भारत की अन्तरात्मा: एक विश्लेषण
भारत की अन्तरात्मा: एक विश्लेषण
भारत की अन्तरात्मा
वर्श्र्म्भरनाथ त्रिपाठी
ISBN : 978-93-80773-29-2
सर्ावधधकार : सुरक्षित
मल्
ू य : 350.00
मद्र
ु क : आर० के० ऑफसेट, ददल्ली-110032
भारत की अन्तरात्मा 3
प्राक्कक्कथन
दो-तीन र्र्व पहले मैंने डॉ. श्री राधाकृष्णन ् की एक अांग्रेजी-पुस्तक Freedom And Culture का दहन्दी
रूपान्तर 'स्र्तांिता और सांस्कृतत' नाम से ककया था। दहन्दी-पाठकों ने उसे बहुत पसन्द ककया है ऐसा प्रतीत होता
है , क्कयोंकक इस थोडे काल में ही उसका प्रथम सांस्करण प्रायः समाप्त हो गया है । अतः दहन्दी-भार्ी पाठकों के
सम्मुख उनकी अमर लेखनी से तनसत
ृ एक और ग्रन्थ-रल का रूपान्तर करने को प्रोत्सादहत हुआ हूां।
प्रस्तुत पुस्तक Heart of Hindusthan नामक अांग्रेजी पुस्तक का दहन्दी अनुर्ाद है । इसमें भारतीय
सांस्कृत के मूल आधारों का, उसकी अन्तरात्मा का सांक्षिप्त ककन्तु स्पष्ट वर्र्ेचन है । वर्द्र्ान ् लेखक ने भभन्न-
भभन्न अर्सरों पर हमारी सांस्कृतत के माभमवक स्थलों का जो स्पष्टीकरण वर्भभन्न लेखों में ककया है , यह उनका ही
सांग्रह है । इन्हें पढ़कर हमें भारत की सभ्यता के प्रमख
ु भसद्धान्तों का ही केर्ल ज्ञान नहीां होता प्रत्युत ् एक सरस,
लोकोत्तर आनन्ददातयनी सादहत्त्यक रचना के पाठ का सख
ु भी भमलता है । आशा एर्ां वर्श्र्ास है कक वर्ज्ञ एर्ां
सहृदय पाठक इसका भी स्र्ागत 'स्र्तांिता और सांस्कृतत' के समान ही करें गे।'
- -विश्िम्भरनाथ त्रिपाठी
विषय-सूची
भारत की अन्तरात्मा 4
प्राक्कक्कथन .................................................................................................................................. 3
दहन्द-ू धमव................................................................................................................................ 18
बौद्ध-धमव ............................................................................................................................... 68
भारतीय दशवन........................................................................................................................... 72
भारत की अन्तरात्मा 5
इस तनबन्ध में मैं दहन्द-ू धमव के मुख्य-मुख्य अांगों का र्णवनमाि कर दे ना चाहता हूां त्जससे सांिेप में
दहन्दओ
ु ां के वर्भभन्न दाशवतनक सम्प्रदाओां का, उनकी धाभमवक अनुभूतत का, उनके आचरणशास्ि एर्ां वर्श्र्ास-
परम्परा का, ययायय ददग्दशवन हो जाय, उसकी र्कालत करना अथर्ा उसके समथवन में कुछ कहना हमें अभीष्ट
नहीां।
दार्शननक आधार
तकव-प्रेम दहन्द-ू धमव की वर्शेर्ता है । भारतीय वर्द्र्ान अपनी स्र्त्प्नल आशाओां एर्ां व्यार्हाररक आत्म-
वर्सजवन में , सरलतम दरु ाग्रह एर्ां उच्चतम काल्पतनक उडान में , चार-पाांच हजार र्र्व के अनर्रत दाशवतनक एर्ां
धाभमवक प्रयत्न में , सत्य-भत्क्कत तथा यथाथव प्रेम की भार्ना से प्रेररत होकर चरम समस्याओां को सुलझाने का
प्रयास करते रहे हैं इसे ब्राह्मण-सभ्यता कहते हैं, क्कयोंकक इसका सांचालन उन ब्राह्मणों के हाथ में था जो ककसी
बात का तनणवय करते समय मनः िोमों से वर्चभलत नहीां होते थे एर्ां त्जनके भसद्धान्तों की आधार-भशला सच्ची
अनुभूतत होती थी।
जगत की त्जस वर्शेर्ता ने दहन्द-ू दाशवतनकों को सत्य के अनुसन्धान की ओर आकृष्ट ककया, र्ह है
इसकी अतनत्यता। उन्होंने दे खा कक दृश्य-जगत ् वर्रामहीन पररर्तवन का भशकार है । उन्होंने प्रश्न ककया-क्कया यह
अतनत्यता, वर्नश्र्रता ही चरम-सत्य है अथर्ा इस वर्नाश की भी कोई सीमा कहीां है ? उन्हें उत्तर भमला-जगत में
एक ऐसी र्स्तु भी है जो तनत्य है , र्ह है अवर्नाशी, अन्य-अपेिा-रदहत परब्रह्म । हम सबके जीर्न में ऐसे िण
आते हैं जब इस अनन्तता की अनुभूतत हम करते हैं, जब हमें इस महान ् रहस्य का आभास भमलता है और जब
हम उस परमात्मा के सात्न्नध्य का बोध करते हैं जो अपनी महत्ता से हमें आच्छन्न ककए है । जीर्न की उन
शोकपण
ू व घडडयों में भी जब हमें प्रतीत होता है कक हम एकान्त, दीन, परम अनाथ हैं, हमारे हृदय में त्स्थत
परमात्मका हमें बराबर यह अनुभर् कराता है कक ये साांसाररक दःु ख-दै न्य तो उस बडे नाटक की शुद्र घटनाएां-माि
हैं त्जसका अन्त शत्क्कत, सौन्दयव एर्ां प्रेस में हे नाटक र्र्व धचल्ला-धचल्लाकर कहते हैं- ''यदद इस वर्श्र् में आनन्द
न होता तो यहाां कोई जीर्न प्राण-धारण ही कैसे करता?" तात्वर्क दृत्ष्ट से दे खने पर यह व्यक्कत जगत उसी एक
अवर्भक्कत ब्रह्म की नाना रूपों में अभभव्यत्क्कत है , उस ब्रह्म की अभभव्यत्क्कत जो समस्त सत्ृ ष्ट का तनत्य आधार
एर्ां पष्ृ ठभभू म है । धाभमवक दृत्ष्ट से दे खने पर यह परमेश्र्र की आत्म-चेतना बन जाता है जो समस्त सत्ृ ष्ट के
उद्भर् तथा लय से युक्कत है । उसके सम्पण
ू व दीघव जीर्न में एकेश्र्र ही दहन्द-ू धमव का प्रमख
ु आदशव रहा है । ऋग्र्ेद
उस एक ही परमात्मा की बात करता है -एकम ् सत ्-त्जसका र्णवन पांडडत लोग नाना रूपों में ककया करते हैं।
उपतनर्दों का कहना है कक अभभव्यत्क्कत के स्तर के अनुसार एक ही ब्रह्म को भभन्न-भभन्न नामों से अभभदहत
ककया जाता है । त्रिमूततव की कल्पना का उदय महाकाव्यकाल में हुआ और पुराण काल तक र्ह भली भाांतत
भारत की अन्तरात्मा 6
दाशवतनक मनोर्वृ त्त का जो सहज गुण उदार मतत है , उसी की प्रेरणा से अनुयातययों की सामान्य प्रर्वृ त्त के
अनुसार दहन्द ू लोग सम्प्रदायों की आपेक्षिकता में वर्श्र्ास करते हैं। धमव तो अव्यक्कत-सम्बन्धी कोई
भसद्धान्तमाि नहीां है त्जसे जब चाहा मानने लगे और जब इच्छा बदली तो दरू हटा ददया। र्ह तो जातत के
आध्यात्त्मक अनुभर्ों का प्रकटरूप है , उसके सामात्जक वर्कास का इततहास है , एक समाज वर्शेर् का
अवर्च्छे द्य घटकार्यर् है । भभन्न-भभन्न लोग भभन्न-भभन्न धमों के अनुयायी बनें, यह तो त्रबलकुल स्र्ाभावर्क
ही है । धमव तो अपने स्र्भार् एर्ां रुधच का प्रश्न है - 'रुधचनाम ् र्ैधचत्र्यात ्।' जब आयव लोग यहाां के उन मूल
तनर्ाभसयों से भमले जो भाांतत-भाांतत के दे र्ताओां की पज
ू ा करते थे, तो उन्होंने एकाएक उनके मतों को दबा दे ने की
बात नहीां सोची। आखखर सभी लोग उसी एक परमत्मा की तलाश में हैं। भगतद्गीता का कथन है कक यदद कोई
उपासक भगर्ान ् के श्रेष्ठतम स्र्रूप तक नहीां भी पहुांच सका है तो भी र्े उसकी प्राथवना अस्र्ीकार नहीां करते। एक
मत को पररत्याग कर शीघ्रतापर्
ू कव दस
ू रे को अांगीकार करने की कोभशश में हम अतीत से बहुत दरू जा पडते हैं,
फलतः अव्यर्स्था एर्ां अनर्स्था का सामना करना पडता है ।
सांसार के महान ् उपदे शक, त्जन्हें इततहास का यथेष्ठ ज्ञान है , अपने वर्चारों को उन लोगों पर जबरन
लादकर जो न तो उन्हें समझते ही हैं और न पसन्द ही करते हैं, अपनी ही पीढ़ी में सांसार का सुधार कर डालने का
प्रयास नहीां करते। वर्र्ाह-वर्च्छे द के भलए सर्ोच्च आदशव की दृत्ष्ट से त्जतना कुछ चादहए, मस
ू ा ने यहूददयों से
1
रजोगुणः स्मत
ृ ो ब्रह्मा, वर्ष्णुः सत्र् गुणात्मकः ।
तमो गुण स्तथा रुद्रो, तनगण
ुव ः परमेश्र्रः ॥
2
तुलना करो-बाइत्रबल-साम-18-25, 26
भारत की अन्तरात्मा 7
उससे कम को ही न्यायतः पाकर सन्तोर् कर भलया और ईसा-जैसे कठोर आचरण-शास्िी ने भी पयावय से उसका
समथवन ककया। र्ह इसीभलए कक लोगों के हृदय सख्त, सुधार-वर्रोधी होते हैं। (10.11....), लूक (16.18) के दृढ़
आग्रह से युक्कत शब्दों को दे खखए और कफर मैथ्यू (5.32 एर्ां 14.9) के अपर्ाद-र्ाक्कयों की ओर ध्यान दीत्जए।
दहन्द-ू दाशवतनक यद्यवप स्र्यां परमोच्च आदशव का पालन करते थे; ककन्तु कफर भी उन्हें पता था कक जनसाधारण
उसके भलए तैयार नहीां हैं और इसभलए बडी सार्धानी से र्े उनका वर्कास करने में लग गये, उन पर बबवर बल-
प्रयोग नहीां ककया। अज्ञान के कारण त्जन तनम्न श्रेणी के दे र्ताओां के लोक में उपासना हो रही थी, उन्हें भी उन
लोगों ने स्र्ीकार कर भलया। केर्ल इतना कहा कक र्े सब उसी एक परम महान ् ईश्र्र के अधीन हैं।3 'कुछ लोगों के
दे र्ता जल में , कुछ के स्र्गव में, कुछ के साांसाररक पदाथों में पाये जाते हैं, पर वर्द्र्ान ् अपने सच्चे परमात्मा को,
त्जसकी महत्ता सर्वि प्रकट हो रही है , अपनी आत्मा में ही पाते हैं।' एक और श्लोक है - 'कमवशील व्यत्क्कत का ईश्र्र
अत्ग्न में , भार्क
ु का भगर्ान ् हृदय में , मन्द बद्
ु धध का मतू तव में एर्ां ज्ञानी का परमात्मा सर्वि ही तनर्ास करता है ।4
दहन्द-ू धमव तथा दशवन मानता है कक समय-समय पर आने र्ाले सत्ृ ष्ट एर्ां प्रलय के चि उस एक ही
वर्श्र्-हृदय के स्फुरण तथा सांकोचन के प्रतीक है जो सदा ही तनत्ष्िय तथा सदा ही सकिय रहता है । समस्त
सांसार ईश्र्र का व्यक्कत स्र्रूप है । सायण का कहना है कक समस्त पदाथव परमात्मा के अवर्भावर् के उपाधेयमाि
है ।5 ये पदाथव भभन्न र्गों में वर्भक्कत ककये गए हैं। इनमें से ज साांस लेते हैं र्े श्रेष्ठ हैं; उनमें भी र्े श्रेष्ठ हैं त्जनके
मत्स्तष्क वर्कभसत हैं; उनम ् र्े श्रेष्ठ हैं जो ज्ञान का प्रयोग करते हैं और सर्वश्रेष्ठ र्े हैं त्जन्होंने प्राखणमाि में ब्रह्म
की एकता का अनुभर् कर भलया है ।6 एक ही मूल आत्मा इन नान रूपों में अभभयुक्कत हो रही है ।
मनुष्य के भीतर जो अनन्त है र्ह सान्त सांसार के नाशमान ् रूप सन्तुष्ट नहीां होता। हमारे दःु खों का
कारण यह है कक हम अपने भीतर ईश्र् को नहीां दे ख पाते। हममें जो सान्त एर्ां अतनत्य है यदद हम उससे बचे रह
सक तो मुत्क्कत पा सकते हैं। जीर्न में त्जतना ही अधधक हम अपने भीतर त्स्थ अनन्त को व्यक्कत कर सकेंगे,
पदाथों की श्रेणी में हमारा स्थान उतना ही उच्च होगा। बहुत प्रबल अभभव्यत्क्कतयाां ही अर्तार कहलाती हैं।
अर्तार क अद्भत
ु , चमत्कारपण
ू व ईश्र्र का सांसार में प्रकट होना नहीां है , र्े तो उसी मह शत्क्कत की उच्च
अभभव्यत्क्कतयाां माि हैं त्जनका सामान्य अभभव्यत्क्कतयों से केर्ल मािा में भेद है । गीता का र्चन है कक यद्यवप
ईश्र्र सभी में है पर र्ह वर्शेर् रूप में उसी पदाथव में व्यक्कत होता है त्जसमें महत्ता पाई जाती है । ऋवर्, बुद्ध,
3
अप्सु दे र्ा मनुष्याणाां, ददवर् दे र्ा मनीवर्णाम ्।
र्ाताना काष्टलोष्टे र्,ु बद्
ु धास्त्र्ात्मतन दे र्ताः ॥
4
अग्नी कृत्यर्तो दे र्ो, हृदद दे र्ो मनीवर्णाम ्।
प्रततभास्र्ोल्पल बुद्धीनाम ्, ज्ञातननाां सर्वतः भशर्ः ॥
(दे खखए भगर्ानदास र्ैददक धमव, उसमें अनेक उपयुक्कत उद्धरण भमलेंगे।)
5
परमात्मनः सर्वऽवप पदाथावः आवर्भावर्ोपाधेयाः ।
6
मनु
भारत की अन्तरात्मा 8
पैगम्बर, ईसा आदद उसी वर्श्र्ात्मा की प्रबल अभभव्यत्क्कतयों हैं। गीता का कहना है कक आर्श्यकता पडने पर र्े
सदा ही प्रकट होती रहें गी। हमारे जीर्न में जब पतन की ओर ले जाने र्ाली भौततक मनोर्वृ त्त की प्रबलता होती है
तो धमव का पुनः सांस्थापन करने के भलए कोई राम अथर्ा कृष्ण, बुद्ध अथर्ा ईसा हमारे बीच अर्श्य आ जाता है ।
इन पुरुर्ों में , जो इत्न्द्रयों पर वर्जय पा लेते हैं, जो प्रेम को सर्वि त्रबखेर दे ते हैं और जो हममें सत्य एर्ां धमव के प्रतत
स्नेह भर दे ते हैं-ईश्र्र की शत्क्कत घनीभूत हो गई है । र्े हमें सच्चे मागव, जीर्न तथा सत्य का दशवन कराते हैं। र्े
अपनी अन्ध-पज
ू ा भी नहीां करने दे त,े क्कयोंकक उससे आत्मसािात्कार में कुछ बाधा पडती है। रामचन्द्रजी ने अपने
को साधारण मनुष्य से अधधक कहकर नहीां प्रचाररत ककया- 'आत्मानम ् मानुर्म ् मन्ये, राम दशरथात्मजम ्' ।
त्जस दहन्द ू को अपने धमव का कुछ भी ज्ञान है , र्ह उन सबकी श्रद्धा और भत्क्कत करता है जो लोक-कल्याण में
लगे हैं। उसका वर्श्र्ास है कक ईश्र्र ककसी भी मनष्ु य के रूप में अर्तररत हो सकता है जैसे ईसा और बद्
ु ध में हुआ
था। यदद ईसाई इस बात को मान लें कक त्रबना ईसा की मध्यस्थता के भी मनुष्य को मुत्क्कत भमल सकती है तथा
ईश्र्र-सािात्कार हो सकता है , तो ईसाई धमव के आधारभूत भसद्धान्तों को दहन्द ू सहर्व स्र्ीकार कर लेगा। ईश्र्र
की अभभव्यत्क्कत से मनष्ु य के व्यत्क्कतत्र् का उल्लांघन नहीां होता प्रत्यत
ु ् र्ह तो मनष्ु य के नैसधगवक आत्मप्रकाशन
का उच्चतम स्र्रूप है , क्कयोंकक मनुष्य का सच्चा रूप तो अलौककक ही है । मानर्-अत्स्तत्र् में अन्ततनवदहत अनन्त
की िभमक अभभव्यत्क्कत ही जीर्न का चरम उद्दे श्य है । इसकी सामान्य गतत नैततक कारणता अथर्ा कमव-
वर्पाक के भसद्धान्त पर तनभवर है । दहन्द-ू धमव एक ऐसे परमात्मा में वर्श्र्ास नहीां करता जो अपने भसांहासन पर
बैठा-बैठा प्रत्येक व्यत्क्कत को जाांचता है और तब उसके सम्बन्ध में उधचत तनणवय दे ता है। दरू बैठकर मनमानी
नीतत से ककसी के दण्ड में र्द्
ृ धध करके तथा ककसी में कमी करके र्ह न्याय का वर्धान नहीां ककया करता । ईश्र्र
मनुष्य में ही है , अतएर् कमव-वर्पाक का भसद्धान्त उसके भलए सर्वथा स्र्ाभावर्क है । प्रत्येक िण मनष्ु य की
परीिा हो रही है । उसका प्रत्येक तनश्छल प्रयत्न उसके अनन्त प्रयास में सहायक होगा। हम त्जस स्र्भार् का
सज
ृ न करते हैं र्ह आगे भी तब तक बना रहे गा जब तक कक हम परमात्मा के साथ अपने तादात्म्य का अनुभर्
नहीां कर लेते। हम उस परमात्मा की सन्तान हैं त्जसके भलए एक हजार र्र्व एक ददन के बराबर हैं। अतः यदद एक
जीर्न में पण
ू त
व ा न भी प्राप्त हो सके तो हमें हताश नहीां होना चादहए। सभी दहन्द ू पन
ु जवन्म मानते हैं। सांसार का
अत्स्तत्र् हमारी गलततयों के कारण है । सष्ृ ट-चि के चलते रहने के कारण हमारे र्े ही गत जीर्न हुआ करते हैं
त्जनके भलए पुनजवन्म आर्श्यक है । भूत में असांख्य बार वर्श्र् की सत्ृ ष्ट एर्ां सांहार हो चुका है और भवर्ष्य में
अनन्तकाल तक बराबर इसी प्रकार उसका उद्भर् तथा लय होता रहे गा।
धाभमवक अनभ
ु तू त
धमव यह प्रयत्न करता है कक मनुष्य को अपने दे र्त्र् का ज्ञान करा दे , केर्ल कोरा बौद्धधक ज्ञान दे कर
नहीां; ककन्तु उससे तादात्म्य की अनुभूतत कराकर । इस अनुभूतत के भलए ककसी वर्भशष्ट मागव का तनदे श नहीां
ककया जा सकता। मनष्ु य की आत्मा अनन्त-स्र्भार्ा है ; अतः उसकी शत्क्कत-सम्भार्नाएां भी अनन्त हैं। उसका
ज्ञेय परमात्मा भी उसी भाांतत अनन्त है । असीम पररत्स्थतत के प्रतत अनन्त आत्मा की प्रततकियाएां सीभमत नहीां
की जा सकतीां। दहन्द-ू दाशवतनकों का वर्श्र्ास है कक अनन्तरूप जीर्न को थोडे-से बांधे हुए रूपों में समेटकर नहीां
भारत की अन्तरात्मा 9
रखा जा सकता। एक सुप्रभसद्ध ग्रन्थ का र्चन है - 'त्जस प्रकार आकाश में उडने र्ाली धचडडयाां तथा समुद्र में तैरने
र्ाली मछभलयाां अपने मागव में कोई धचन्ह नहीां छोडतीां, ठीक र्ैसे ही भगर्त्प्रात्प्त के पथ पर आत्म-सािात्कार-
रभसक अग्रसर होते हैं i7 उपतनर्दों के ऋवर्यों ने, यहूदी पैगम्बरों ने तथा धमव-सांस्थापकों ने परमात्मा का शब्द
सुना है , उसके सात्न्नध्य की अनुभूतत की है । ईश्र्र अपने भक्कतों के प्रतत सदा ही न्यायपूण,व पिपातरदहत
व्यर्हार करता है ; र्े उसे चाहे त्जस नाम से पुकारें एर्ां उसकी उपासना के भलए चाहे त्जस सरखण का उपयोग करें ।
गीता में भगर्ान ् का र्चन है - 'जो कोई त्जस ककसी रूप में मेरे पास आता है , मैं उसी रूप में अर्श्य उसको भमलता
हूां।'
मानर्-चेतना के त्रिवर्धधरूप के आधार पर ज्ञान-मागव, भत्क्कत-मागव एर्ां कमव-मागव के वर्भाग ककये गये हैं।
ज्ञान, अनुभूतत तथा चेष्टा कोई तीन भभन्न-भभन्न शत्क्कतयाां नहीां हैं, र्े तो एक ही अनुभर् के तीन दृत्ष्टकोण है।
तीनों ही अपना-अपना अांश उसकी पतू तव में दे ते हैं एर्ां सभी एक-दस
ू रे में व्याप्त है । सम्यक ज्ञान, सम्र्क इच्छा,
सभ्यकिया-ये तीनों की एक साथ रहते हैं। पहला हमें सत्य का दशवन कराता है , दस
ू रा उसमें अनुराग उत्पन्न
कराता है एर्ां तीसरा हमें जीर्न की रचना में लगाता है । भार्ना की उष्णता से हीन कोरा ज्ञात हृदय को दहम के
समान शीतल कर दे ता है । ज्ञान से प्रकाभशत कोरी भार्क
ु ता पागलपन है । त्जस कमव को ज्ञान का पथ-प्रदशवन तथा
स्नेह की स्फूततव नहीां भमलती, उसे अथवहीन सांस्कार-पद्धतत अथर्ा उन्मुक्कत चांचलता ही समझाना चादहए। पण
ू व
जीर्न की सांत्श्लष्ट अनुभूतत में तीनों ही सत्म्मभलत हैं। भभन्न-भभन्न पुरुर् भभन्न-भभन्न अांगों पर वर्शेर् बल दे ते
हैं, अतएर् जीर्न-समस्या को र्े भभन्न-भभन्न मागों से सुलझाने का प्रयास करते हैं।
गीता का र्चन है कक 'ज्ञान के सम्मान पूततव-वर्धायक और कुछ नहीां है । यह ज्ञान उसी वर्र्ेचना का नाम
है त्जसे यथाथव आत्मज्ञानी सनत्कुमार तथा शुष्क पात्ण्डत्य के प्रतततनधध नारद के उपतनर्त्प्रभसद्ध शास्िाथव में
कोरी बकर्ास कहकर उडा ददया गया है । मनुष्य की मल
ू प्रकृतत तो आत्मस्र्ातांत्र्य एर्ां ज्ञान है । अपनी
पररत्च्छन्नता के कारण हम अपने सत्य-स्र्रूप से अनभभज्ञ रहकर भ्रम में पडे रहते हैं। तकवशास्ि का मुख्य कायव
यह बताना नहीां कक मनष्ु य को ज्ञान क्कयों अथर्ा कैसे होता है , र्रन ् यह बताना है कक र्ह क्कयों अथर्ा कैसे ज्ञान-
प्रकिया में असफल होता है । भूल का कारण हमारा सीभमतत ज्ञान है । सत्य का प्रत्यि करके इन सीमाओां को
ध्र्स्त करना ही मानभसक वर्कास कहलाता है । भार् अथर्ा सांकेत पर तनभवर न रहने र्ाला यह ज्ञान सत्य में ही
तनर्ास करता है । वर्चार एर्ां तकव ज्ञान की प्रात्प्त में सहायक हो सकते हैं। गीता यत्ु क्कतपण
ू व आन्तररक सझ
ू पर
जोर दे ती है -ज्ञानम ् वर्ज्ञान सदहतम ्। बौद्धधक सहारे के त्रबना सम्भर् है हमारी आन्तररक सझ
ू व्यत्क्कतगत
भार्ुकता ही रह जाय। इस रिक र्ाक्कय में गीतकार का यह सांकेत पाया जाता है कक सत्य की प्रत्यिानुभूतत में
सार्वभौभमकता रहती है । यह प्रत्यिानभ
ु तू त हमें वर्नम्रता की भार्ना से प्राप्त हो सकती है । यदद हम बौद्धधक
अहां कार का पररत्याग कर दें तथा त्जज्ञासु भार् को अपना लें, तो स्र्गीय र्ायु के झोंके हम तक पहुांच सकते हैं।
7
इस सम्बन्ध में हमारे 'भारतीय दशवन' नामक ग्रन्थ का गीता-वर्र्यक अध्याय दे खखये।
भारत की अन्तरात्मा 10
योगाभ्यास मन को इस योग्य बनाता है कक र्ह आभ्यन्तररक तनस्तब्धता के गम्भीर घोर् को सुन सके। तब हम
अपनी आत्मा से, वर्श्र्आत्मा से तादात्म्य का अनुभर् कर सकते हैं।
ईश्र्र-सािात्कार के भलए ज्ञान-मागव बहुत ही मन्द गतत एर्ां कष्टपूणव है । 'इस समस्त वर्श्र् के रचतयता
एर्ां वपता को प्राप्त करना बहुत कदठन है तथा उसे पाकर सबको बताना तो असम्भर् ही है ।8 हमारी आयु इतनी
छोटी होती है एर्ां अन्र्ेर्ण की गतत इतनी धीमी। हम खाली बैठकर प्रतीिा नहीां कर सकते। हमें जानने की जल्दी
है । हम ककसी ऐसे धमव को स्र्ीकार कर लेना चाहते हैं जो हमारे जीर्न का सहारा बन सके, जो सन्दे ह-भार्ना से
हमारी रिा कर सके एर्ां व्यार्हाररक जीर्न में हमारा सहायक हो सके। ईश्र्र-सािात्कार के भलए लोगों की
अधीनता उन नीम-हकीमों को अपना जाल त्रबछाने का मौका दे ती है जो अपने अनुयातययों की अल्प काल में ही
मोि प्राप्त करा दे ने का र्ादा ककया करते हैं। अन्धवर्श्र्ास तथा जाद ू जनसाधारण का सम्बल बन गया है ।
ब्राह्मण-व्यर्स्था में बद्
ु धध का पण
ू व पररत्याग ककसी दशा में भी नहीां ककया गया है । सत्य की भार्ना ही लोक-
जीर्न का तनयन्िण करती है। ऊांचे-से-ऊांचे दाशवतनक सत्य को साधारण बुद्धध के मनुष्यों की समझ में अपने
योग्य कथा-कहातनयों का रूप दे ददया गया है त्जससे 'सभी सुगमतापूर्क
व जीर्न के कदठन स्थलों को पार कर
जायां, सभी आनन्द प्राप्त कर सकें, सभी सम्यक् ज्ञान की उपलत्ब्ध कर सकें एर्ां सभी सर्वि सख
ु -भोग कर सकें I9
पुराणों के उपाख्यान मन्द-बद्
ु धध पुरुर्ों को चरम कल्याण का ज्ञान दे कर उसमें उनकी रुधच उत्पन्न करते हैं तथा
उनके आत्म-वर्कास में सहायता प्रदान करते हैं।
उपासना के त्जतने रूप दे श में प्रचभलत थे, दहन्द-ू दाशवतनकों ने उन सबको ही स्र्ीकार कर भलया तथा
उन्हें इस प्रकार िमबद्ध कर ददया कक र्े िमशः ईश्र्राराधन के श्रेष्ठतम रूप तक पहुांच जायें, उस रूप तक पहुांच
जायें जो ईश्र्र के तनकट साहचयव की अनुभूतत का अभ्यास करता है । भशशु-पुराण में भलखा है - 'उत्तमार्स्था तो
सहजार्स्था है , दस
ू री श्रेणी की अर्स्था ध्यान एर्ां धारणा है ; तत
ृ ीय अर्स्था प्रततमा-पज
ू न है तथा चतुथव अर्स्था
तीथवयािा तथा होम इत्यादद करने की है ।10 ऋग्र्ेद में मूततव-पज
ू ा का नाम तक नहीां पाया जाला। अतः स्पष्ट है कक
इसका प्रचार बाद में हुआ। सभी मानते हैं कक अधधकभसत मत्स्तष्क-मनष्ु यों के भलए ही इसकी उद्भार्ना हुई है ।
मनुष्य में आददम युग के, सभ्यता-पूर्क
व ाल के अनेक धचन्ह अब भी पाये जाते हैं। र्ह ईश्र्र की कल्पना रां ग-त्रबरां गे
धचिों के रूप में करना पसन्द करता है । र्ह अपने मनोभार्ों को कला एर्ां सांकेतों के द्र्ारा ही व्यक्कत कर सकता
है । र्े सत्य को व्यक्कत करने के भलए ककतने ही अपयावप्त क्कयों न हों, जब तक मनष्ु यों के आत्म-सािात्कार में
8
प्लोटो-दटभमयस-29
9
सर्वस्तरतु दग
ु ावखण, सर्ो भद्राखण पश्यांतु
सर्वस्तद् बुद्धधमाप्रोतु, सर्वस्सर्वत नन्दतु-भागर्त पुराण।
त्स्पनोजा के कथन से तल
ु ना कीत्जए- 'परम कल्याण सार्वजनीन है तथा उसकी प्रात्प्त सबको समानरूप से होना चादहए।'
10
उत्तमा सहजार्स्था, द्वर्तीया ध्यान धारणा ।
तत
ृ ीय प्रततमा-पूजा, होम यािा चतधु थवका ॥
भारत की अन्तरात्मा 11
सहायक भसद्ध होते रहते हैं, लोग उन्हें सहन करते रहते हैं। जब तक र्ह ठीक दृत्ष्ट-कोण को व्यत्जत करता
रहता है तब तक ककसी भी प्रतीक को ततरस्कृत नहीां करना चादहए। प्रोफेसर धगलबटव मरे ने 'ग्रीक धमव की चार
अर्स्थाएां नामक ग्रन्थ में टापर तनर्ासी मैक्षिमस के लेख का उद्धरण ददया है जो मूततव-पूजा का बडा ही सुन्दर
समथवन है । उस उद्धरण में प्रतीकोपासना के सम्बन्ध में दहन्द-ू भार्ना का तनचोड आ गया है - 'उस ईश्र्र की जो
सबका सष्ृ टा तथा वपता है , जो सूयव एर्ां आकाश से प्राचीन है , जो काल, अनन्तता तथा समस्त सत्ता प्रर्ाह से भी
महान ् है , ककसी भी शास्िी के द्र्ारा व्याख्या नहीां की जा सकती; र्ह र्ाणी के द्र्ारा प्रकट नहीां ककया जा सकता;
आांखों के द्र्ारा दे खा नहीां जा सकता।' अतएर् उसके सच्चे स्र्रूप को समझने में अिम होने के कारण हम शब्दों
की, नामों की हाथीदाांत, चाांदी तथा सोने से तनभमवत प्रततमाओां की, र्ि
ृ तथा नददयों की, पर्वत, भशखर तथा तनझवरों
की सहायता लेते हैं एर्ां उसके ज्ञान की तीव्र त्जज्ञासा हृदय में लेकर सांसार में जहाां भी जो कुछ दे खते हैं उसी को
उसका रूप कहकर प्रचार करने लगते हैं, ठीक र्ैसे ही जैसे लौककक प्रेमी। प्रेमी की दृत्ष्ट में सांसार का सुन्दरतम
पदाथव उसकी प्रेभमका ही है ; ककन्तु उसकी स्मतृ त जगाने की िमता रखने के कारण र्ह र्ीणा, माला, कुरसी,
िीडाभभू म अथर्ा ककसी भी अन्य स्मतृ त-धचन्ह को दे खकर आनन्द से भर उठता है । अधधक वर्र्ेचना करके
प्रततमाओां के वर्र्य में कोई तनणवय करने के झमेले में हम क्कयों पडे ! आर्श्यकता तो केर्ल इस बात की है कक
मनुष्य को ईश्र्र के स्र्रूप को ज्ञान हो जाय और बस । यदद ग्रीक को कफडडयस की कला, भमस्र-तनर्ासी को पशु-
पज
ू ा ककसी को आग एर्ां ककसी को नदी ही ईश्र्र का स्मरण कराती है तो उनकी इस भभन्नता से नाराज होने की
क्कया जरूरत। आर्श्यकता तो केर्ल इस बात की है कक र्े भगर्ान ् को जानें, उसमें अनुरक्कत हों और उसको कभी
न भूलें।11 ककतने सत्य, उदार एर्ां कोमल शब्द हैं पर उत्साहहीन, दरु ाग्रह एर्ां साम्प्रदातयक प्रर्ांचना की ही बातें
सुनते रहने के अभ्यासी हमारे कानों में ये कुछ खटकते से हैं। यदद हम प्रततमा की लािखणकता को भुला दें और
रूपक को अिरशः सत्य मान लें तो हमारे त्जज्ञास्य परमात्मा का ठीक उल्टा रूप हमारे सामने आयेगा।
वर्चारशील भारतर्ासी यह कभी नहीां भूलता कक मूततव-पज
ू ा केर्ल साधन है । योगी भगर्ान ् का दशवन आत्मा में
करता है , प्रततभाओां में नहीां।12
11
पष्ृ ठ 136-137
12
भशर्मात्मतन पश्यत्न्त प्रततमासु न योधगनः 2
भारत की अन्तरात्मा 12
कमवयोगी कमव अथर्ा स्र्कतवव्य पालन करके तथा यि अथर्ा समाजसेर्ा करके मोि-लाभ करने का
प्रयास करता है । स्र्तन्िता मनुष्य का स्र्ाभावर्क गुण है ; आत्म-ज्ञान के अर्रुद्ध होने से बन्धन उत्पन्न होते
हैं। जब हम अपनी दासता को ही प्यार करने लगें तो समझना चादहए कक हमारी दासता पराकाष्ठा को पहुांच चक
ु ी
है । शेर् सांसार से सम्बन्ध वर्च्छे द करने र्ाली स्र्ाथव-प्राचीर को यदद हम तोड सकें तथा उदात्त आदशव को अपना
सकें, तो हम िमशः उस प्रेम का वर्कास कर सकते हैं जो भय, घण
ृ ा एर्ां कटुता का वर्नाश करता है । यांि कक तरह
नीतत-धमव का पालन करने माि से हम अपने लक्ष्य तक नहीां पहुांच सकते। उस नीतत को ईश्र्रानभ
ु तू त का
पुत्ष्टकर भोजन दे कर सशक्कत बनाना होगा। तभी हमें इस बात का अनुभर् होगा कक प्रत्येक मनुष्य में केन्द्रीय
सूयव के अमर प्रकाश की ककरण वर्द्यमान है । जब हम ककसी से प्रेम करते हैं तो परमात्मातवर् में अपनी तथा
उसकी एकता का ज्ञान हमें होता है और उसी ज्ञान को अपने जीर्न में हम कियात्मक रूप दे ते हैं। अब हम दहन्द-ू
धमव की दस
ू री वर्शेर्ता उसकी नैततकता की ओर आते हैं।
नैनिकिा
नैततक आचरण का भसद्धान्त को कायावत्न्र्त करने का उद्दे श्य यह है कक उसे अपनी शत्क्कतयों का पता
चल जाय एर्ां अतीत के बांधन तथा भवर्ष्य के भयों से मक्क
ु त होकर र्ह आत्म-वर्श्र्ास की दृढ़ता से खडा रह सके।
भारत की अन्तरात्मा 13
ऐदहक जीर्न का प्रत्येक िण मधुर प्रेम की भार्ना तथा ईश्र्र के धचर सम्बन्ध की आनन्ददातयनी चेतना में
त्रबताना ही नैततक आचरण है । आदशव पुरुर् सदै र् स्र्गीय प्रकाश में जीर्न-यापन करता है एर्ां सत्य, शुधचता, प्रेम
तथा आत्मवर्सजवन के महान ् गुण उसके जीर्न में मूतरू
व प धारण करते हैं। प्राकृततक शत्क्कतयों पर मनष्ु य की
वर्जय से नहीां र्रन ् र्ासनाओां के तनरोध से ही उसकी नैततक उन्नतत को जाांचना चादहए। गोभलयों की बौछार में
भी सच बोलना, शूली पर चढ़ा ददये जाने पर भी प्रततदहांसा से वर्रत होना, मनुष्य तथा पशु सभी का सम्मान
करना, सर्वस्र् दान कर दे ना, परोपकार में जीर्न उत्सगव कर दे ना, अत्याचार को अवर्चभलत भार् से सहन करना
आदद मनुष्य के प्रधान कतवव्य हैं। हमारे आधुतनक व्यार्हाररक सुधार भले ही उन्हें यह कहकर उडा दें कक र्े ऊांची
बातें हैं और मनुष्य-प्रकृतत के दै तनक उपयोग के अयोग्य हैं; बुद्धधहीन भारतीयों अथर्ा 'गैलीली' के धीर्रों को
सन्तोर् दे ने के भलए र्े प्रशांसनीय आदशव हो सकते हैं, पर उनको व्यार्हाररक रूप दे ना असम्भर् है । दहन्द-ू
दाशवतनक जानते थे कक सामान्य लोक-प्रकृतत एर्ां नैततक आदशव में महान ् अन्तर है अतएर् उन्होंने भशिा एर्ां
अभ्यास की एक ऐसी व्यर्स्था बना दी जो मनष्ु य को इस लक्ष्य की प्रात्प्त के भलए तैयार कर सके। सांस्थाओां एर्ां
सांस्कारों का जाल, जो लोगों के चररि एर्ां नैततक भार्नाओां को वर्कभसत करता है , 'धमव' कहलाता है और र्ह
दहन्द-ू धमव का एक वर्शेर् अांग है । दहन्द ू धमव ककसी को बलपूर्क
व ककसी मत वर्शेर् में दीक्षित करने में वर्श्र्ास
नहीां करता, पर सभी दहन्दओ
ु ां के व्यर्स्था मानकर चलने पर अर्श्य जोर दे ता है । उसे धमव की अपेिा सांस्कृतत
कहना अधधक उपयक्क
ु त होगा। 'यदद तम
ु 'धमव' का पालन करोगे, तो तम्
ु हें भसद्धान्त अथर्ा सत्य का ज्ञान स्र्तः
हो जाएगा।' यह 'धमव' । प्रत्येक व्यत्क्कत के हृदय में त्स्थत मग
ृ प्राय अत्ग्न को प्रज्र्भलत करने में सहायक होता है ।
लोक-हृदय से अनुमोददत आचार-शास्ि ही र्ह 'धमव' है । ककसी व्यत्क्कत वर्शेर् का मन इसका वर्धान नहीां करता;
अतः यह र्ैयत्क्कतक नहीां कहा जा सकता; कानून इसे मानने को वर्र्श नहीां करता, अतः यह बाह्य भी नहीां कहला
सकता। यह तो र्ह आचार-व्यर्स्था है , त्जसका अनुमोदन लोकमत अथर्ा जन-साधारण का हृदय करता है ।
जमवन इसे Sittlichkeit करते हैं। 'कफष्टे ' ने इसकी पररभार्ा इस प्रकार की है - 'आचरण सम्बन्धी र्े तनयम को
लोगों से पारस्पररक व्यर्हार को तनयावित करते हैं एर्ां जो हमारी सांस्कृतत की र्तवमान दशा में आदत अथर्ा दस
ू री
प्रकृतत हैं. इसीभलए हमारे अचेतन मत्स्तष्क का अांग बन गये हैं। 'धमव' ककसी को भी सदाचारी बनने को वर्र्श
नहीां करता, र्ह तो मनष्ु यों को सदाचार-पालन का अभ्यास कराता है । र्ह अटल यात्रिक तनयमों का सांग्रह नहीां है
प्रत्युत ् जीर्नधारी के सदृश है एर्ां समाज के वर्कास से प्रभावर्त होकर स्र्यां भी बढ़ता चलता है । भारतर्र्व में तो
राज्य भी धमव का सेर्क होता था। र्ह भी धमव का अततिमण नहीां कर सकता था। उसका काम धमव को बदलना
अथर्ा रह करना नहीां था, र्रन ् उसके पालन की व्यर्स्था करना था। राज-धमव ककसी दशा में भी लोगों की
जीर्नचयाव में अनुधचत हस्तिेप नहीां करता था। चार हजार र्र्व से भी अधधक हो गये जब से भभन्न-भभन्न धाभमवक
सम्प्रदायों तथा र्ांशों के पारस्पररक युद्ध एर्ां राजनीततक कलह के बार्जूद भी हमारा 'धमव' अथर्ा सामात्जक
जीर्न उन्हीां भसद्धान्तों को मानकर चलता आ रहा है । यदद हम भारतीय जीर्न की सप्राण अवर्त्च्छन्न धारा
दे खना चाहते हैं तो उसका दशवन हमें उसके राजनीततक इततहास में नहीां र्रन ् उसके साांस्कृततक तथा सामात्जक
जीर्न में ही भमल सकता है । राजनीततमयता का रोग तो उसे प्लासी के युद्ध के बाद ही लगा है । आज सम्पण
ू व
जीर्न राजनीतत से ओत-प्रोत है । राज्य का समाज पर आिमण आरम्भ हो गया है और रर्ीन्द्रनाथ के शब्दों में
भारत की अन्तरात्मा 14
'त्रबना राष्रों का भारत' अब पाश्चात्य अथव में उसके समस्त गुण-दोर्ों को लेकर एक 'राष्र' बन जाने के प्रयास में
सांलग्न है ।
13
धारणाद धमवभमत्याहुः धमेण र्द्धधताः प्रजा
भारत की अन्तरात्मा 15
ये सांन्यासी सांसार को दख
ु -दै न्य में पडा छोडकर अलग नहीां हो जाते। उनमें जो परम महान ् हैं, जैसे बुद्ध तथा
शांकर, रामानुज तथा रामानन्द एर्ां और भी अनेक, र्े तो राष्र के रक्कत में ही प्रवर्ष्ट हो गये हैं तथा उन्होंने ही
उसके धमव की स्थापना की है । उनके नाम आज राष्र की सबसे बडी पैतक
ृ सम्पवत्त हैं।
दहन्द-ू धमव का आदशव प्रत्येक व्यत्क्कत को ब्राह्मण, प्रत्येक पुरुर् को पैगम्बर बनाना है । तभी उसको
आन्तररक स्र्तन्िता एर्ां आध्यात्त्मक साहचयव का आनन्द प्राप्त होता है और तभी र्ह स्र्मेर् दष्ु टता का
प्रततकार तथा प्रततदहांसा करना बन्द कर दे ता है और तब उसमें इतना धैयव एर्ां प्रेम उत्पन्न हो जाता है कक यदद
कोई र्ार करे तो र्ह उसे सहन कर सके तथा यदद कोई उसे लूटना चाहे तो खुद ही र्ाांतछत र्स्तु को उसे अपवण कर
सके। उसका हृदय शात्न्त से पण
ू व रहता है त्जसका अथव है घण
ृ ा का एकान्त वर्नाश । सच्चा ब्राह्मणत्र् मानर्-
शत्क्कत के उच्चतम वर्कास का प्रतीक है । आध्यात्त्मक महत्ता के आधार पर ही समाज में र्णव की व्यर्स्था की गई
है । मनुष्य के पांख नहीां होते; अतः उडकर भशखर पर जा पहुांचना उसके भलए सम्भर् नहीां, उसे तो धीरे -धीरे कार
तथा प्रयास के साथ ऊपर उठने में ही सन्तष्ु ट होना पडेगा। दहन्दओ
ु ां की सामात्जक व्यर्स्था में यही िभमक
योजना स्र्ीकृत हुई है । इस बात की पुत्ष्ट में गोरिा तथा अदहांसा के दो उदारहण दां ग
ू ा। 'ककसी जीर् की दहांसा मत
करो।' यही सबसे बडा धमव है , यही मनुष्य के योग्य धमव है । प्रत्येक ब्राह्मण के भलए इसका पालन करना अतनर्ायव
है कफर भी इस व्यर्स्था में ित्रियों का वर्धान है त्जनका धमव है यद्
ु ध में लोगों को मारना तथा स्र्यां लडते हुए मर
जाना। व्यर्स्था-वर्धायकों का वर्चार था कक 'आांख एर्ां दाांत के बदले में दाांत' लेने की भार्ना मानर्-प्रकृतत का
14
यहाां पर हमने इस वर्र्य में कुछ नहीां भलखा है कक र्णव-व्यर्स्था का ग्राम-शासन तथा व्यर्साय-सांघ पर क्कया प्रभार् पडता
है तथा इस सांस्था के र्तवमान भ्रष्ट रूप को भी छोड ददया है ।
भारत की अन्तरात्मा 16
अटल गण
ु है । उसका तनर्ारण एकाएक नहीां ककया जा सकता। जहाां अनाचार को स्र्ीकार करना अनुधचत है एर्ां
प्रेम के द्र्ारा उसका प्रततकार सम्भर् नहीां, र्हाां बलपूर्क
व उसका वर्रोध करना वर्दहत है एर्ां ित्रियों से कहा गया
है कक शिुओां का दमन करना तुम्हारा कतवव्य है । कफर भी यह अधधकार तो मानर्-प्रकृतत पर दया करके ही ददया
गया है तथा ित्रियों को बता ददया गया है कक ब्राह्मणों का प्रेम-धमव उनके दहांसा-धमव से श्रेष्ठ है । ित्रिय वर्कास
की तनम्न श्रेणी का द्योतक है, क्कयोंकक र्ह मनुष्य को केर्ल माांस का वपांड मानता है , उसमें भगर्ान ् की ज्योतत
नहीां दे खता। उसे घण
ृ ारदहत भ्रातभ
ृ ार् से कतवव्य समझकर ही यद्
ु ध करने की आज्ञा है , प्रततदहांसा की भार्ना से 7f
- 3H वर्चार से नहीां कक इसने हमें दख
ु ददया है , अतः हम भी इसे दख
ु दें गे। यदद ित्रिय इस प्रकार मानर्दहत का
ध्यान रखकर अपना कतवव्य करे तो उसकी आध्यात्त्मक उन्नतत होगी और धीरे -धीरे पशब
ु ल पर आधश्रत रहना
कम करता हुआ र्ह अांततोगत्र्ा सांसार में ककसी भी जीर् की दहांसा न करनेर्ाला ब्राह्मण बन जायेगा। दहांसापण
ू व
युद्ध की आज्ञा दी अर्श्य गई है , पर चरम लक्ष्य तो उसका अततिमण कर जाना ही है । प्रकृतत की धारा के साथ
बहने का उद्दे श्य उसे पार कर जाना है ।
अदहांसा धमव का वर्धान पशु-पक्षियों के भलए भी है । हे तु-शास्ि की दृत्ष्ट से इसका अथव यह भी है कक हमें
तनराभमर् भोजन ही करना चादहए। पशु-पक्षियों की सत्ृ ष्ट भी ईश्र्र ने ही की है , अतएर् उनके प्रतत भी हमें सदस्य
होना चादहए। गाय पशु-जगत ् की प्रतीक है । धाभमवक दहन्द ू तनत्य भगर्ान ् से प्राथवना करता है कक गो-ब्राह्मण की
रिा हो, गो-ब्राह्मण जो िमशः पशु एर्ां मानर् जगत ् के शारीररक एर्ां आध्यात्त्मक पोर्कों के प्रतीक हैं। गाांधीजी
ने भलखा है - 'गाय के दे र्त्र्-प्रदान का कारण तो स्पष्ट है । भारतर्र्व में मनुष्य की सबसे बडी भमि गाय ही थी।
उससे ही समद्
ृ धध की प्रात्प्त होती थी। गाय एक करुण काव्य है ... र्ह करोडों भारतर्ाभसयों की माता है । गौ-रिा
का अथव समस्त मूक सत्ृ ष्ट की रिा है ।15' भारतर्र्व में कुछ ऐसे लोग भी थे जो पशुओां पर जरा भी दया नहीां
ददखाते थे। उनकी आदत में सध
ु ार करना पडा था। माांस-त्यागी तथा खेल अधर्ा भोजन के भलए भी ककसी पशु की
दहांसा न करनेर्ाले ब्राह्मण का आदशव लोक-चररि की उन्नतत में काफी सहायक भसद्ध हुआ है । ित्रिय तथा र्ैश्य
मुख्यतः शाकाहारी हैं। उत्सर् तथा पर्व के ददन शूद्र भी माांस-भिण नहीां करते। इस प्रकार शाकाहारी-प्रर्वृ त्त
तनत्श्चत रूप से बढ़ रही है । पशुओां पर त्रबल्कुल ही दया न करने र्ाले केर्ल 'पांचम' र्णी ही हैं त्जन पर दहन्द-ू धमव
का प्रभार् रां चमाि भी नहीां ददखाई पडता है ।
दहन्द-ू धमव पर यह लाांछन लगाना कक उसने दभलत र्गों के मानभसक एर्ां चाररत्रिक वर्कास के भलए कुछ
भी नहीां ककया, प्रकट करता है कक दहन्द-ू धमव ने भारत में जो कुछ ककया है उसके सांबध
ां में हम त्रबल्कुल ही अज्ञ हैं।
बौद्ध एर्ां ईसाई धमव की इतनी शतात्ब्दयों के पश्चात ् भी आज जब तक सभ्य जातत ककसी असभ्य जातत के
सम्पकव में आती है तो र्ह उस असांस्कृत जातत की मनोर्वृ त्त को समझने का प्रयास नहीां करती, केर्ल िूर उपायों
के द्र्ारा वर्जय प्राप्त कर उन्हें अपने अधीन बना लेती है त्जसका पररणाम यह होता है कक यदद उस असभ्य
जातत के पास रोने को आांखें बच रहीां तो र्ह ददन-रात रो-रोकर भगर्ान ् को अभभशप्त ककया करती है कक क्कयों
उसने इन सांस्कारों को उनके दे श में भेजा। भारत के आयों ने यहाां के मूल तनर्ाभसयों को भी अपना अांग बना भलया
15
नर्जीर्न-6 अक्कतूबर, 1921
भारत की अन्तरात्मा 17
तथा मभलनता एर्ां मददरापान की आदत छुडाने में , पवर्ि जीर्न त्रबताने एर्ां परमात्मा की भत्क्कत करने में उनकी
प्रचुर सहायता की। यह दे खकर कक यहाां के मूल तनर्ासी नागों की पज
ू ा करते हैं, आयों ने उनसे कहा कक नागदे र् से
भी महान ् नागेश्र्र है , र्ह नागों का स्र्ामी कृष्ण है जो काभलय नाग के मस्तक पर नत्ृ य कर रहा है । समाज को
शीघ्रतापूर्क
व उच्च आचर की ओर ले जाकर, जो आन्तररक प्रेरणा के त्रबना असम्भर् है , उन्होंने कोई ऐसा काम
नहीां ककया त्जसके भलए र्े इततहास के प्रतत दहांसा-भाजन बनें। र्णव-व्यर्स्था के द्र्ारा िभमक सभ्यता-वर्करण
का कायव मस
ु लमानों के आने से पहले तक चलता रहा । भारत-जैसे वर्शाल दे श में , जहाां यातायात की कोई वर्शेर्
सुवर्धा भी नहीां थी, जो कुछ भी सफलता भमली र्ह र्ास्तर् में महान ् है । जेम्स केनेडी भलखते हैं- 'इन आददम
तनर्ाभसयों अथर्ा अन्त्यजों को दहन्द ू धमव में दीक्षित करके उन्हें पचा जाने का भार नर्ीन दहन्द-ू धमव पर पडा और
ईसा की 7र्ीां तथा 11र्ीां शताब्दी के मध्य में यह काम परू ा हो गया। यह काम इतनी कुशलता से ककया गया कक
आज इस समस्त उत्तरी भारत में रक्कत, सांस्कृतत एर्ां धमव की दृत्ष्ट से बहुत कुछ एक ही प्रकार की जनता को
तनर्ास करते दे खते हैं जो अपनी सीमा के उस पार तनर्ास करने र्ाली नीच जाततयों से भली भाांतत पहचानी जा
सकती है ।'16 दहन्द-ू समाज में वर्दे शी बराबर आते रहे तथा दहन्द-ू धमव इन भभन्न प्रकृतत के लोगों में उच्च जीर्न
की स्फूततव उत्पन्न करने में बराबर सफल रहा है । अगर यह सांस्कार-कमव न चलता रहता तो आज भारत में पाांच
करोड अछूतों के स्थान में 25 करोड अछूत होते। दहन्दओ
ु ां की राजनीततक पराधीनता के कारण यह काम कुछ
मन्दा पड गया है । तभी से दहन्द-ू समाज अनद
ु ार रूदढ़र्ादी बन गया है और भारत-तनर्ाभसयों का एक बहुत बडा
भाग समाज से दरू जा पडा है । दस
ू रे सम्प्रदाय इस दब
ु ल
व ता से लाभ उठाकर उसकी काफी हातन कर रहे हैं।
परम्परा
सभी दहन्द ू र्ेदों को सर्ोपरर धाभमवक प्रमाण स्र्ीकार करते हैं। उनमें जीर्न तथा वर्श्र् के तवर् का
तनरूपण है । र्ेदों का प्रधान अांग उपतनर्द् हैं जो उस स्र्तांि आध्यात्त्मक प्रगतत का पररणाम हैं त्जसने अज्ञातरूप
से र्ेदों के अपररष्कृत अांशों को दबा ददया। दहन्द-ू धमव का परर्ती इततहास इसी औपतनर्ददक सुदृढ़ आधार पर
तनभमवत एक भव्य भर्न का इततहास । यद्यवप धाभमवक वर्चारों ने अनेक िाांततयाां की, अनेक बार महान ् वर्जयें
प्राप्त कीां, कफर भी लगभग पाांच हजार र्र्ों से उसके मुख्य भसद्धान्त उसी रूप में चले आ रहे हैं। जब-जब दरु ाग्रह
के वर्कास ने धमव को सांकीणव साम्प्रदातयकता में अर्रुद्ध कर ददया है तब-तब सच्चे महात्माओां ने जन्म लेकर
आध्यात्त्मक नर्-जागरण का उपदे श ददया है । उपतनर्दों का प्रर्ाह जब दरु ाग्रहपूणव वर्र्ाद में लुप्त हो गया, जब
शुष्क शास्िाथव के ज्र्र ने धाभमवक चेतना को बेसुध कर ददया, तब भगर्ान ् बुद्ध ने सत्य की सरलता एर्ां आचरण
की वर्शद्
ु धता पर जोर ददया। जब शास्िीय सांस्कृतत एर्ां तनरथवक पात्ण्डत्य ने धमव को अमानवु र्क शास्िर्ाद
बनाकर इस दब
ु ोध व्यथवता में तनष्णात ् पत्ण्डतों की हास्यास्पद अहां कार से भर ददया था, सम्भर्तः तभी, यद्यवप
दे श के दस
ू रे भाग में , गीताकार ने सभी पवर्ि-हृदय मनुष्यों के भलए स्र्गव-द्र्ार उन्मक्क
ु त कर ददया। भारतीय धमव
का जो सांस्कार शांकर ने ककया था र्ह अब भी सर्वथा शत्क्कतहीन नहीां हुआ है । रामानज
ु तथा माधर्, कबीर तथा
16
इम्पीररयल गजदटयर-भाग 2, अध्याय 8
भारत की अन्तरात्मा 18
नानक दहन्द-ू धमव पर अभमट छाप छोड गए हैं। यह स्पष्ट है कक दहन्द-ू धमव एक प्रणाली है , पररणाम नहीां; एक
र्द्वधमान परम्परा है , अटल ददव्य-प्रकाशन नहीां। ककसी ओर से भी आने र्ाले ज्ञान पर इसने कोई प्रततबन्ध नहीां
लगाया, क्कयोंकक आत्मराज्य में मेरे और तेरे का भेद नहीां है ।
दहन्द-ू धमव
आयों के भारत में प्रर्ेश करने के ददन से आज तक गम्भीर जातीय एर्ां धाभमवक वर्प्लर्ों की तनरन्तर
सामना करते रहने का गौरर् अथर्ा दभ
ु ावग्य भारत का सदा ही रहा है । एक वर्शेर् अथव में भारतर्र्व सांसार का एक
छोटा सांस्करण है । र्ह एक प्रयोगशाला है जहाां सांसार की समस्याओां से सम्बत्न्धत जातीय अथर्ा धाभमवक
सांश्लेर्ण के प्रयोग ककये जाते हैं। यदद र्ह ठीक है कक प्रत्येक जातत की एक वर्शेर्ता होती है और र्ह
ईश्र्राभभव्यत्क्कत के ककसी वर्शेर् रूप को ही हमारे सम्मख
ु उपत्स्थत करती है , तो मालम
ू होता है जातीय एर्ां
धाभमवक सांघर्ों का समाधान करने के भलए ही भारत चुना गया है ।
दहन्द-ू धमव की प्रचांड तरां गों तथा शाांत जल-राभश के लम्बे इततहास में इस सररता की र्ि गततयों एर्ां
वर्स्तत
ृ बालुकापूणव तटों में एक सामान्य र्वृ त्त को, एक आध्यात्त्मक उद्दे श्य को खोज लेना सम्भर् है जो तनत्य
पररर्तवनशील रूपों के भीतर भी त्स्थर रहा है । प्राचीन दहन्द-ू धमव के मुख्य भसद्धान्त मत
ृ सीप नहीां हैं प्रत्युत ्
भारत की अन्तरात्मा 19
'धमव' शब्द का अथव काफी जदटल है । यह उन सभी आदशों तथा उद्दे श्यों को, प्रभार्ों तथा सांस्थाओां को
व्यक्कत करता है जो मनष्ु य के व्यत्क्कतगत एर्ां सामात्जक चररि का तनमावण करते हैं। यह उस आचार-शास्ि का
नाम है त्जसके पालन से ऐदहक सुख तथा मोि, दोनों की ही प्रात्प्त होती है ।17 यह आचारशास्ि तथा धमव दोनों का
समुच्चय है । 'धमव' तनयमों से दहन्द-ू जीर्न पूणत
व ः तनयांत्रित है। उसके उपर्ास तथा उत्सर्, उसके पाररर्ाररक तथा
सामात्जक बांधन, उसकी रुधच तथा स्र्भार्-सबका मल
ू ाधार धमव ही है ।
मानर् जीर्न का लक्ष्य मोि है । आत्म-भशखर पर चढ़कर अमरत्र् लाभ करना मनष्ु य के भलए तनत्श्चत
है । हम दे र्-सन्तान-अमत
ृ स्य पुिाः- हैं। मानर्-हृदय का अमर स्र्प्न जीर्न की आत्मज्ञान के भलए तीव्र उत्कण्ठा
ही दहन्द-ू धमव का आधार है । र्ह मानता है कक आत्मा ही अत्न्तम सत्य है । हृदय की सब कामनायें, न्याय के सारे
वर्र्ाद, आत्मा के अत्स्तवर् को मानकर ही चलते हैं। इसे तकव के द्र्ारा भसद्ध नहीां ककया जा सकता, यद्यवप
इसके त्रबना प्रमाण की ही सम्भार्ना नहीां हो सकती। यह केर्ल श्रद्धा का भी वर्र्य नहीां है क्कयोंकक यह र्ही श्रद्धा
है जो तकव का भी मूल है । यदद मनुष्य की आत्मा के सम्बन्ध में भी सन्दे ह सम्भर् है तो सन्दे ह ही सांसार से भमट
जाएगा। यदद कुछ भी है तो आत्मा भी है । यह र्ह चरम सत्य है जो पररर्तवन से परे है , र्ह अदृष्ट र्ास्तवर्कता है
जो समस्त जीर्न एर्ां तकव का आधार है । 'हम है ' यह एक ऐसा सत्य है त्जसकी तुलना में हमारे वर्चारों का कोई
महवर् नहीां। मनुष्य की र्े दब
ु ल
व ताएां ही, जो उसके मागव में बाधक होती हैं, उसके भय का कारण बनती हैं; र्ह
अन्धकार है जो अन्तर के प्रकाश को तछपाये है । यदद हम अपने जीर्न के एकमाि तनत्श्चत त्रबन्द ु अपनी आत्मा
की शरण में पहुांच जाएां तो हम अनुभर् करें गे कक सांसार-रूपी अन्तहीन प्रतीत होने र्ाले पथ में हम अकेले नहीां हैं
और तब हम सांसार पर वर्जय पा सकते हैं तथा मत्ृ यु को ललकार सकते हैं। 'जो तुम्हारे भीतर है , र्ह उससे बडा है
जो सांसार में है ।18
यद्यवप सम्पण
ू व प्रयत्न का उद्दे श्य मनुष्य की आध्यात्त्मक पूणत
व ा है , पर दहन्द-ू धमव ककसी भी धाभमवक
वर्श्र्ास अथर्ा उपासना के फलस्र्रूप पर जोर नहीां दे ता। भगर्ान ् की प्राथवना करने अथर्ा उस तक पहुांचने के
मागव-चयन में लोगों को पूणव स्र्तन्िता है । दहन्द-ू वर्द्र्ान ् मानर्-जातत-वर्द्र्ान तथा दशवन के पत्ण्डत थे, अतएर्
उन्होंने धाभमवक वर्श्र्ास के सम्बन्ध में कभी बल प्रयोग नहीां करना चाहा । धमव-सम्बन्धी शिु अथर्ा
मनोमाभलन्य तभी शरू
ु होता है जब हम ईश्र्र-सम्बन्धी अपनी कल्पना को वर्शेर् महवर् दे ने लगते हैं। इसके
अततररक्कत धमव स्र्तन्िता का समथवक है एर्ां मनुष्य पर सबसे बडा अत्याचार यही है कक हम उसे समझ में न
आने र्ाली बात में वर्श्र्ास करने को वर्र्श करें । दस
ू रे , व्यत्क्कत तथा ईश्र्र के सम्बन्ध का र्गीकरण बहुत कदठन
है । मनुष्य के हृदय अपने रक्कत से अपनी भत्क्कत-पद्धतत का रूप अांककत करता है । एक सांस्कृतत का श्लोक है -
17
अभ्युदय तथा तनश्रेयश
18
जान 5-21
भारत की अन्तरात्मा 20
इसका यह अथव कदावप नहीां है कक दहन्द ू दाशवतनकों को ईश्र्र को सम्यक् ज्ञान नहीां है तथा र्े सब धमों
को समानरूप से ठीक मानते हैं। उन्हें ऊांचे-से-ऊांचे सत्य का यथाथव अनुभर् है , यद्यवप र्े यह नहीां चाहते कक सब
उनके ही अनुभर् को स्र्ीकार कर ले। उनका ख्याल है कक यदद मत्स्तष्क सांस्कृत है तो सत्य का प्रत्यि स्र्तः हो
जायेगा। प्रत्येक धमव अपने अनुयातययों के मानभसक एर्ां सामात्जक वर्कास का प्रकाश होता है , इसभलए उपलब्ध
मतों के स्थान में त्रबलकुल नये मतों को स्थावपत करना धष्ृ टतापूणव है । तनम्न श्रेणी के वर्चार बढ़ती हुई वर्र्ेचना
के सम्मख
ु ठहर नहीां सकते तथा सच्चा सध
ु ारक मनष्ु य की मानभसक एर्ां चाररत्रिक उन्नतत करने का यत्न करता
है । सत्य का ज्ञान धाभमवक वर्श्र्ास का पररणाम नहीां होता र्रन ् गम्भीर नैततक आचरण का अनुभर् होता है ।
इसीभलए दहन्द-ू दाशवतनक भसद्धान्त की अपेिा आचार को अधधक महवर् दे ते है । दहन्दओ
ु ां के धमव को धमवशास्ि न
कहकर जीर्न-योजना कहना ही अधधक उपयक्क
ु त होगा। कोई दृढ़ दहन्द ू है अथर्ा नहीां, यह बात इस पर इतना नहीां
तनभवर करती कक र्ह ककसी वर्शेर् भसद्धान्त को मानता है अथर्ा नहीां, त्जतना इस बात पर कक र्ह 'धमव' को
मानकर चलता है कक नहीां।20
ईश्र्र के अत्स्तत्र् में दृढ़ वर्श्र्ास होने से जो आचरण स्र्भार्तः होने लगता है , धमव उसी को जीर्न का
आदशव बनाने की आज्ञा दे ता है। यदद सबसे बडा सत्य यही है कक ईश्र्र मनष्ु य के हृदय में तनर्ास करता है तो इस
वर्श्र्ास को कायावत्न्र्त करने र्ाला आचरण ही आदशव आचरण होगा। भभन्न-भभन्न | सद्गण
ु सत्य के ही
19
एच.एच.वर्ल्सन - 'लेख तथा व्याख्यान', भाग 2, पष्ृ ठ 8
20
मनुस्मतृ त 2, 2
भारत की अन्तरात्मा 21
वर्भभन्न रूप (सत्याकाराः) हैं।21 सत्य, सौन्दयव एर्ां शील आदशव पुरुर् के जीर्न के लिण हैं, उसका आर्श्यक अांग
है । र्ह आत्मत्याग, वर्नम्रता, र्ात्सल्य एर्ां पवर्िता आदद सदगुणों का व्यक्कत स्र्रूप ही होगा। बासना पर
आत्मा की वर्जय होने से घण
ृ ा के मेघ एर्ां वर्र्य की कांु जर्ादटका वर्नष्ट हो जाती है और उसका हृदय शात्न्त से
भर उठता है और तब महान ् सांकट के अर्सरों पर, व्यत्क्कतगत हातन अथर्ा सामात्जक सांकट में भी र्ह वर्चभलत
नहीां होता। शान्त धचत्त, दृढ़ तनश्चय तथा प्रमादरदहत दृत्ष्ट से र्ह समयोधचत व्यर्हार ककया करता है । र्ह ककसी
एक दे श का नहीां प्रत्यत
ु ् सच्चे अथव में सांसार का नागररक बन जाता है । शत्क्कत की इच्छा एर्ां अहां कार उत्पन्न
करने र्ाले रजोगण
ु तथा आलस्य एर्ां तनत्ष्ियताजनक तमोगुण पर आनन्द एर्ां प्रेम व्यांजक सत्र्गण
ु का
प्राधान्य हो जाता है । महात्मा के धमव अन्तप्रेरणा बन जाता है ; दस
ू रों के भलए र्ह बाह्य-तनयांिण है , सामात्जक
रीतत अथर्ा लोक-मत का अनरु ोध है ।
जो आदशव हमें िोध एर्ां मोि से बचने को कहता है , मनसा, र्ाचा, कमवणा पवर्ि बनने को कहता है , र्ह
पाप एर्ां दःु ख से पण
ू व जीर्न के थपेडों से व्यग्र मानर् के भलए असम्भर् आदशव है । र्ह जीर्न से ऐसी चीज माांगता
है त्जसका दे ना जीर्न के भलए सम्भर् नहीां। र्ह जीर्न के समस्त आधारों को नष्ट कर दे ना चाहता है । यदद मोि
के भलए सर्वस्र्-त्याग आर्श्यक है तो बहुत-से लोग मोि के वर्चार को ही त्याग दें गे। सांसार का कुछ ऐसा तनयम
है कक जो आध्यात्त्मक मयावदा का पालन करना चाहते हैं, उनके सफलता भमलने की आशा बहुत कम ही होती है ।
हम सभी जानते हैं कक 'पर्वत के उपदे श' को ककस प्रकार असम्भर् आदशव कहकर उडा ददया जाता है । हम हमेशा
एक गाल पर थप्पड खाकर मारने र्ाले की ओर दस
ू रा गाल दस
ू रा थप्पड खाने के भलए नहीां फेर सकते, जब हमारा
अनुभर् है कक दोनों गालों पर चपत लगाने की इच्छा में प्रबल आकर्वण है । कष्टों में भी आनन्द का अनुभर् करना
ददव्य गुण हो सकता है ; पर मनुष्य तो बडा दब
ु ल
व प्राणी है । ईसाई-सांसार तो यह कहकर सांतोर् कर लेता है कक ईसा
भी एक-आध बार दःु ख से व्याकुल हो उठे थे- 'हे वपता! यदद सम्भर् हो तो इस वर्र् के प्याले को हटा लो।' 'हे
भगर्ान ्! आपने हमारी सध
ु क्कयों त्रबसार दी?' र्े लोग, त्जन्हें अपनी व्यार्हाररकता पर गर्व है , आदशव को सामान्य
मानर्-स्र्भार् का रूप दे दे ना चाहते हैं, उसे प्रभुता एर्ां लोभ, र्ासना तथा पाप के अधीन बना दे ना चाहते हैं।
आधुतनक साांसाररक सध
ु ारक कहता है - 'तुमने प्राचीन उपदे शकों को यह कहते सुना है कक 'दहांसा मत करो', पर मैं
तम
ु से कहता हूां कक 'भोजन के भलए पश,ु भशकार के भलए पिी तथा यद्
ु ध में मनष्ु यों को छोडकर तम
ु ककसी को
दहांसा न करना।' कहा गया है -'लालच न करो।' पर मेरा आदे श है कक 'तुम बडे पैमाने पर उद्योग और साम्राज्यर्ाद
को छोडकर और कहीां लालच मत करना।' तुमने पुराने लोगों को यह भी कहते सुना है कक 'घण
ृ ा मत करो' मैं तुमसे
कहता हूां कक 'तम
ु वपछडी हुई जाततयों, अपने शिओ
ु ां तथा तनबवलों को छोडकर अन्य ककसी से भी घण
ृ ा न करना ।'
उस त्यागपूणव धाभमवक जीर्न से घबडाकर, त्जसका भसद्धान्त है कक आनन्द की प्रात्प्त शत्क्कत तथा सम्पवत्त से
नहीां शात्न्त एर्ां प्रेम से होती है , हमारे प्रगततशील सुधारक धमव-तनयमों में इतने अपर्ाद जोड दे ते हैं कक उनकी
आत्मा की हत्या हो जाती है तथा दहांसा धन-राभश एर्ां शस्िास्ि प्रचरु अर्ावचीन व्यर्हार को ही मनष्ु य-जीर्न का
चरम उद्दे श्य मानने र्ाले भसद्धान्त की पुत्ष्ट हो जाती है । र्े अनायास ही उस मनुष्य की कहानी को भुला दे ते हैं,
21
दे खो महाभारत-अनुशासन पर्व-162 तथा शात्न्त पर्व-33
भारत की अन्तरात्मा 22
त्जसने अनेक र्र्ों के भलए पयावप्त अन्न-सांग्रह करने के भलए बडी-बडी खवत्तयों के. तनमावण करने की योजना
तैयार की थी, ककन्तु उसी रात को मत्ृ यु का भशकार हो जाने के कारण उस योजना को कायावत्न्र्त करने का अर्सर
ही त्जसे नहीां भमल सका था।
में ददखाई नहीां दे ती।22 चूांकक हमारी समस्त किया र्ासनाजन्य होती है ; अतएर् उसका उधचत सांयम भी धमव का
अांग है । फलतः काम भी धमवसग
ां त समझा गया है । काम का अथव केर्ल पाशवर्क इच्छाओां की तत्ृ प्त नहीां है र्रन ्
आत्म-स्र्ातांत्र्य का प्रकाशन है । यह तब तक सम्भर् नहीां जब तक हम इत्न्द्रयों की दासता से मुक्कत नहीां होते।
मनुष्य-जीर्न नाना प्रकार के इत्न्द्रय-सुखों के उपभोग में ही नहीां समाप्त हो जाता र्रन ् र्ह तो अशाश्र्त रूपों के
द्र्ारा वर्कभसत होने र्ाले एक शाश्र्त तवर् की अभभव्यत्क्कत है । मनुष्य की कामनाओां को पाररर्ाररक जीर्न एर्ां
सामात्जक कतवव्य की ओर प्रेररत कर ददया गया है । भार्क
ु अथर्ा कलात्मक जीर्न भी जीर्न के परमकल्याण
का अांग है , परन्तु सांन्यास के र्ातार्रण में कला का वर्कास सम्भर् नहीां। उसके भलए अथव की आर्श्यकता है ।
यदद लोगों की रचनात्मक प्रर्वृ त्तयों को उच्च साांस्कृततक जीर्न के भलए मक्क
ु त करना है तो समाज की आधथवक
आर्श्यकताओां की पतू तव करनी होगी; अतः ऐसे तनयम बना ददये गये हैं त्जससे व्यत्क्कत की स्र्तांिता समाज की
आर्श्यकता से तनयांत्रित कर दी गई है । आत्म-त्याग के ही द्र्ारा सम्पवत्त का उपाजवन एर्ां उपभोग सम्भर् है ।
काम तथा अथव का तनयांिण भी धमव ही करता है । त्जनमें धमव-भार्ना प्रबल होती है र्े सात्त्र्क प्रकृतत कहलाते हैं,
अथव-प्रेमी राजभसक प्रकृतत के होते हैं तथा केर्ल वर्र्य-लोलप
ु तामभसक प्रकृतत के मनष्ु यों में पररगखणत है ।23 जो
व्यत्क्कत 'धमव' के तनयमों का पालन करता है र्ह अनायास ही मोि प्राप्त कर लेता है ; अतएर् धमव, अथव काम तथा
मोि जीर्न के लक्ष्य कहे जाते हैं।
जीर्न तथा वर्श्र् की उत्पवत्त का कुछ भी कारण क्कयों न हो, नैततक उद्दे श्य की महत्ता को सभी स्र्ीकार
करते हैं। दहन्द-ू दशवन के अनस
ु ार मनुष्य का जन्म एक ददव्य उद्दे श्य का पररणाम है । हमारे वर्गत जीर्न की
अतप्ृ त र्ासनाएां ही इस जन्म का कारण हैं। तप के द्र्ारा ही हमारी दब
ु ल
व ता शत्क्कत में एर्ां अवर्द्या ज्ञान में
पररणत हो सकती है । जीर्नजात पापों का िय तप तथा सांयम के द्र्ारा ही ककया जा सकता है । 'आश्रम' शब्द की
व्युत्पवत्त त्जस धातु से है उसका अथव कष्ट उठाना है । त्रबना कष्ट के उन्नतत नहीां हो सकती; त्रबना मत्ृ यु के
परु
ु ज्जीर्न कैसे सम्भर् हो सकता है ! आदद से लेकर अन्त तक हमारा जीर्न एक प्रकार की मत्ृ यु है त्जसका अथव
है अधधक वर्शाल जीर्न। त्जतना ही हम अपने भलए मत
ृ होते जाते हैं, उतना ही भगर्ान ् के तनकट अधधक जीवर्त
होते हैं। जीर्न तथा मत्ृ यु में अटूट सम्बन्ध है एर्ां पूणव वर्नाश का फल र्गव जीर्न है । प्रत्येक दहन्द ू के भलए चारों
आश्रमों का वर्धान है । पहले दो आश्रम ब्रह्मचयव तथा गह
ृ स्थ आश्रम कहलाते हैं। अत्न्तम दोनों जीर्न से
अर्काश ग्रहण करने से सम्बत्न्धत हैं तथा उनमें पहुांचकर परु
ु र् भगर्ान ् तथा मानर्ता का सेर्क बन जाता है ।'24
पहला आश्रम यज्ञोपर्ीत सांस्कार से आरम्भ होता है जो आध्यात्त्मक जीर्न में दीक्षित होने का सूचक
है । इसका उद्दे श्य मनुष्य के शारीररक एर्ां मानभसक पष्ु टता का वर्धान करना है । इस आश्रम का मुख्य लक्ष्य
स्र्ास्थ्य-र्द्वधन एर्ां मानभसक वर्कास है । छाि को तनमवलता, ब्रह्मचयव, भशष्टाचार एर्ां आत्स्तकतापण
ू व जीर्न
की भशिा दी जाती है । सब वर्द्याधथवयों को, चाहे र्े राजपूत हों अथर्ा कृर्क-सन्तान-दररद्र जीर्न त्रबताकर
22
मनस्
ु मतृ त 2, 23।
23
मनुस्मतृ त 12, 38
24
मनस्पतत 6 87
भारत की अन्तरात्मा 24
सामात्जक सहानुभूतत का अभ्यास करना पडता है । प्रत्येक छाि को जीर्न-धारणा के भलए भभिा माांगनी पडती है
और दररद्रता का अभ्यास वर्द्याथी को यह बुद्धध दे ता है कक साध-ु जीर्न के भलए सम्पवत्त आर्श्यक नहीां होती।
वर्द्याधथवयों को स्र्च्छन्द नहीां छोडा जाता और न उन्हें वर्र्ेकहीन धमावन्धता के ही अधीन कर ददया जाता है । न
तो उन्हें स्र्कल्पना-प्रसूत प्रततमाओां का तनमावण करने को अधधकार रहता है और न र्े अन्धवर्श्र्ास तो
साम्प्रदातयक सांकीणवता के ही भशकार बनाने ददये जाते हैं। वर्द्याधथवयों की िमता एर्ां आर्श्यकता के अनुसार ही
भशिा का प्रबन्ध ककया जाता है । तब समस्या इतनी जदटल नहीां थी जैसी आज है , क्कयोंकक बालकों का भार्ी
व्यर्साय प्रायः तनत्श्चत रहता था। भशिा की व्यस्था में , र्ह धाभमवक हो अथर्ा सामान्य, बालक तथा बाभलकाओां
में कुछ भी भेद नहीां ककया जाता था। केर्ल सहभशिा को अर्श्य प्रोत्साहन नहीां ददया जाता था।
भशिा-काल समाप्त होने पर वर्द्याथी को पाररर्ाररक उत्तरदातयत्र् ग्रहण करना पडता था। पुरुर् अकेला
नहीां होता, उसके ऊपर स्िी एर्ां बच्चों का भी भार होता है ।25 र्ह कुटुम्ब का भरण-पोर्ण करने र्ाला तथा समाज
का आश्रयदाता बन जाता है । पाररर्ाररक जीर्न एर्ां सामात्जक कतवव्य, दोनों ही चरम लक्ष्य की प्रात्प्त में
सहायक होते हैं एर्ां उनके भलए आत्म-सांयम अतनर्ायव है । प्रत्येक पुरुर् को लोक-कल्याण की भार्ना से ही अपना
कतवव्य करना पडता है । केर्ल व्यत्क्कतगत सख
ु के भलए लोक सेर्ा का पररत्याग ककसी को भी नहीां करना
चादहए।26 हम पारस्पररक सहायता करने का र्चन दे चुके हैं, अतएर् हमें एक-दस
ू रे के भलए ही प्राण धारण करना
चादहए-व्यत्क्कत पररर्ार का, पररर्ार सम्प्रदाय का, सम्प्रदाय राष्र का एर्ां राष्र सांसार का दहत-साधन करे । र्णव-
धमव, त्जसका उपयोग गह
ृ स्थ आश्रम से आरम्भ होता था, मनुष्यमाि की एकता एर्ां अन्योन्याश्रय-सम्बन्ध को
मानकर ही चलता है । र्ह सामात्जक तथा र्ैयत्क्कतक आर्श्यकता का ध्यान रखकर चलता है । र्ह व्यत्क्कतत्र् की
रिा करता है , क्कयोंकक र्ह अपने से श्रेष्ठ सत्ता की सेर्ा करके अपने को ऊपर उठा दे ता है । र्ातार्रण के एक वर्शेर्
अांग पर अपनी सम्पण
ू व शत्क्कत को केत्न्द्रत करके र्ह अपना पूणव वर्कास करने का प्रयास करता है । यह हीगल के
वर्रोधी दृश्यों के सामांजस्य का उदाहरण है । यह एक ऐसा दृत्ष्टकोण है जो व्यत्क्कत एर्ां समाज के वर्रोधी-से प्रतीत
होने र्ाले अधधकारों में सत्न्ध करा दे ता है । र्णव-व्यर्स्था का मूल भसद्धान्त अकेले व्यत्क्कत का कल्याण अथर्ा
अकेले समाज को दहत नहीां है ; ककन्तु उनसे भी श्रेष्ठ उद्दे श्य की कल्पना है त्जसकी प्रात्प्त में सतत ् आत्म-
सांस्कार एर्ां समाज-सेर्ा साधन बन जाते हैं। मानर्-प्रकृतत की अनेक-रूपता का ध्यान रखकर र्ह उन प्रणाभलयों
एर्ां उपायों का तनदे श करता है त्जनका अनुसरण करके प्रत्येक व्यत्क्कत अपने को पण
ू रू
व पेण व्यक्कत कर सकता है ।
र्ास्तवर्क भेदों को स्र्ीकार करके र्ह आदशवसाम्य की स्थापना करता है । र्ह प्राकृततक शत्क्कतयों से सहयोग
करता है , उनकी अर्हे लना नहीां करता । आधतु नक ज्ञान-मांच से जो इस व्यर्स्था की प्रततकूल आलोचना करते हैं
र्े भूल जाते हैं कक ककसी अन्य दे श में इतने भभन्न मानभसक एर्ां साांस्कृततक स्तरों के लोग एक ही समाज का अांग
कभी नहीां बने। र्ेद-पूर्व काल के तनर्ासी, त्जनसे आयवगण आकर भमल गये, तनम्न कोदट की सभ्यता एर्ां सांस्कृतत
से यक्क
ु त थे। उन्हें शद्
ु धध-सम्भार्नाहीन 'एकजातत' कहलाने र्ाले चतथ
ु व र्णव में स्थान ददया गया, क्कयोंकक उनमें
मत्स्तष्क, हृदय एर्ां चेष्टा के उत्कर्व के अनुसार तीन श्रेखणयों में वर्भक्कत कर ददए गए। त्जनमें बुद्धध का वर्शेर्
25
मनुस्मतृ त 10, 45
26
भगर्तद्गीता 3, 16
भारत की अन्तरात्मा 25
उत्कर्व पाया जाता है , र्े ब्राह्मण हैं, त्जनमें प्रेम तथा परािम का उत्कर्व है र्े ित्रिय हैं; त्जनकी रुधच व्यार्हाररक
जीर्न में ही वर्शेर् हैं, र्े र्ैश्य हैं। ये चारों र्णव िमशः बौद्धधक, सैतनक, व्यार्सातयक तथा शारीररक श्रमजीवर्यों
के समानाथवक हैं। सब अपनी-अपनी शत्क्कत के अनुसार सांसार की सेर्ा करते हैं। ब्राह्मण अपने अध्यात्म, ित्रिय
अपने परािम, र्ैश्य अपनी बद्
ु धध तथा शूद्र सेर्ा के द्र्ारा समाज का उपकार करता है ।27' सभी लोक-दहत को
र्गव-दहत की तुलना में श्रेष्ठ समझते हैं। स्र्ाथव एर्ां आत्मोन्नतत की कामना को न्याय तथा धमव के उन तनत्य
भसद्धान्तों से, त्जनका दातयत्र् हमारे ऊपर रख ददया गया है, दबा ददया जाता है । प्रत्येक र्णव अपने-अपने कतवव्य
का पालन करता है तो समाज को न्याययुक्कत अथर्ा धमवसम्मत कहा जाता है ।
शूद्रों के भी र्ास्तवर्क दहतों की उपेिा नहीां की गई थी। र्ैश्य व्यापार करते तथा धन एर्ां सुखभोग में
रुधच रखते थे, पर इसमें भी उन्हें जीर्न एर्ां कल्याण की भार्ना रखनी पडती थी। इस र्गव को एक प्रकार का
आधथवक-सांघ कहना चादहए। कफर भी र्खणक् -र्वृ त्त दबी रहती थी, क्कयोंकक उन्हें सख
ु -साधनों को स्नेह-रज्जु में ही
बाांधकर रखना होता था। ित्रियों का कतवव्य था कक र्े आन्तररक अव्यर्स्था तथा बाह्य आिमणों से समाज की
रिा करें । दे श की सैतनक-शत्क्कत उनके ही अधीन थी। दे श की राजनीतत का सांचालन भी र्ही करते थे। दहन्द-ू धमव
को यह पसन्द नहीां था कक समस्त समाज आर्श्यकता पडने पर सैतनक का काम करे । प्रत्येक कायव में वर्शेर्ज्ञता
ही कुशलता की जननी होती है। त्जनका धमव ही यद्
ु ध करना तथा अन्याय का बलपूर्क
व प्रततकार करना है , उनकी
धचत्त-र्वृ त्त भी र्ैसी ही होनी चादहए एर्ां उनकी भशिा का उधचत प्रबन्ध होना चादहए। शासन-कला का ममवज्ञ
प्रत्येक व्यत्क्कत नहीां हो सकता। लोगों की यह भार्ना दृढ़ होती जा रही है कक यदा-कदा राजनीतत से अपना
मनोरां जन कर लेने र्ाले लोग, त्जनका उद्दे श्य अपने तनर्ावचकों को सन्तोर् दे ना माि होता है तथा त्जनकी
राजनीततक पाठशाला लोकवप्रय तनर्ावचनों की हुल्लडबाजी ही है , कभी सफल शासक नहीां बन सकते। एक वर्शेर्
र्गव को सेना तथा शासन का भार सौंप ददया गया था। सम्पण
ू व समाज शासन, प्रभुता एर्ां शत्क्कत की उत्कट र्ासना
से पीडडत नहीां था। आज दतु नया पर हुकूमत करने तथा अपने भलए बाजार तलाश करने की भार्ना से महायद्
ु ध
छे डे जाते हैं, लोगों के चाररत्रिक वर्कास अथर्ा कल्याण की भार्ना से जाते प्रेररत होकर नहीां। राजनीततक
वर्क्षिप्तता के कारण सांसार में महान ् अनर्स्था है और हम एक अतनत्श्चत पररणाम की ओर द्रत
ु गतत से वर्र्श
बहे जा रहे हैं। कहा जा सकता है कक इसी बात का क्कया तनत्श्चय की शासन-व्यर्सायी र्गव की उपत्स्थतत से
न्यायपूणव तनस्स्र्ाथव राज्य स्थावपत हो सकेगा? परन्तु त्जस प्रकार की भशिा उन्हें दी जाती है , र्ह इस बात का
पयावप्त प्रमाण है कक र्े अपने कतवव्य का पालन उधचत रूप से करें गे। इसके अलार्ा शासकों को 'धमव' के रद्द
करने अथर्ा उसमें पररर्तवन करने का अधधकार ही नहीां था, र्े तो केर्ल उसके पालन कराने के भलए तनयक्क
ु त थे।
'धमव' में पररर्तवन तो केर्ल ब्राह्मण वर्द्र्ान ् ही कर सकते थे, त्जनका अपना कोई स्र्ाथव नहीां था एर्ां जो
हठपूर्क
व दररद्रता में रहकर आध्यात्त्मक जीर्न त्रबताते थे। शांका अथर्ा सांकट के अर्सर पर धाभमवक समस्याओां
का तनणवय र्ही ककया करते थे।
27
शुिनीतत 1,38,42
भारत की अन्तरात्मा 26
उनका सामात्जक सांगठन र्ही था जो वर्भशष्ट जन-शासन-प्रणाली का श्रेष्ठतम रूप हो सकता है , क्कयोंकक
तनयम बनाने का तनःस्पह
ृ दाशवतनकों के ही हाथ में था। यहूदी, ईरानी तथा केल्ट जाततयों में भी कानून बनाने का
काम पुजारी ही करते थे। ब्राह्मणों के ज्ञान, आत्म-तनग्रह, तनःस्र्ाथव प्रेम आददक सद्गण
ु ों के कारण स्र्ाथवपण
ू व
कानून का बनना कदठन था। ज्ञानाजवन तथा जीर्नोत्कर्व में तनरत ब्राह्मणों का पद शासकों तथा अधधकाररयों से
ऊांचा था तथा इनको सन्तोर् दे नेर्ाला आचरण करने को ब्राह्मण बाध्य नहीां थे। र्े सभी साांसाररक धचन्ताओां से
मक्क
ु त कर ददए गए थे; आध्यात्त्मक बातों में र्े भौभमक अधधकाररयों के अधीन नहीां थे ।28 यह सांस्था मानती है
कक सब प्रकार के श्रेष्ठ सुधारों को जन्म पहले ककसी एक ही व्यत्क्कत के मत्स्तष्क में होता है और जनसाधारण
उससे बचना चाहते हैं। यदद सुधार होने से पूर्व बहुमत उसके पि में होना आर्श्यक कर ददया जाय तो समाज
कभी आगे नहीां बढ़ सकता। सांस्कृततां एर्ां वर्कास के भलए परमार्श्यक है कक वर्धायक वर्द्र्ान ् एर्ां पण
ू व स्र्ाधीन
हों। 'शताब्दी (Century)' नामक पत्रिका में बररे ण्ड रशल का एक सुन्दर लेख है । उसमें उन्होंने भलखा है कक
"स्र्तांि न होने से दरू दशी व्यत्क्कत शत्क्कतहीन हो जाता है ।'' मनु के अनुसार “एक ज्ञानी का मत लाखों मख
ू ी के
मतों से श्रेष्ठ होता है ।'29
28
मनुस्मतृ त 4, 11
29
मनुस्मतृ त 12, 113
भारत की अन्तरात्मा 27
हमारी शत्क्कत बढ़नी चादहए। ित्रिय, हीनर्णव होने से बल प्रयोग कर सकता है -यद्यवप वर्शुद्ध हृदय, एर्ां घण
ृ ा
रदहत-पर ब्राह्मण तो ककसी दशा में भी घण
ृ ा अथर्ा बल-प्रयोग नहीां कर सकता। र्णों में जो अपेिाकृत भेद है र्ह
भी पूणव आदशव की दृत्ष्ट से ठीक है । हम इसका भी एक उदारहण दे ते हैं। आधतु नक वर्कासर्ाद का भसद्धान्त भी
मनुष्य तथा पशुओां में एक ही जीर्न-प्रर्ाह माननेर्ाले दहन्द-ू मत की पत्ु ष्ट करता है । दहन्द-ू धमव जीर्माि को
आदर की दृत्ष्ट से दे खने पर उनके प्रतत स्नेह एर्ां करुणा के प्रसार पर जोर दे ता है । अदहांसा का तनयम पशुओां के
भलए भी है । उसका तो यह भी भसद्धान्त है कक माांसभिण मनष्ु यों की उदात्त र्वृ त्तयों में जडता का सांचार करता है ।
र्ह शरीर को त्जतना पुष्ट नहीां करता उतना मन को दब
ु ल
व बनाता है । ईसा भी तो स्पष्ट कहते हैं कक पशुओां को भी
अबध्य समझना चादहए क्कयोंकक त्रबना ईश्र्र की मरजी के एक गोरै या की भी मत्ृ यु नहीां हो सकती, पर भारतर्ासी
माांसाहारी थे, अतएर् ऐसे तनयम बनाये गए त्जसमें माांस-भिण चतथ
ु व र्णव के ही भलए वर्दहत रह गया और शेर्
समाज के भलए साधारणतः उसका तनर्ेध कर ददया गया, त्जसका पररणाम यह हुआ कक दहन्द-ू समाज समुदायतः
माांस खाना छोडता जा रहा है ।
र्णव का आधथवक महवर् है । आजकल पाई जाने र्ाली जाततयों में से अनेक तो केर्ल व्यार्सातयक
समुदाय हैं। सब कोई सब कुछ नहीां कर सकता और र्ह यह समझता ही है कक र्ह चाहे त्जस व्यर्साय को
सफलतापूर्क
व चला सकता है। लोगों को काम की खोज में भी नहीां भटकना पडता । उनका काम पहले से ही
तनत्श्चत रहता है । तनबावध प्रततयोधगता एर्ां स्र्ाथवपण
ू व व्यत्क्कतप्राधान्य का दमन ककया जाता है । प्रत्येक काम
अथर्ा व्यर्साय को धाभमवक स्र्रूप दे ददया गया है । थबई तथा बढ़ई, कुम्हार तथा ग्र्ाला वर्श्र्ास करता है कक
अपना-अपना काम करके र्ह ईश्र्र की इच्छा का पालन करता है और समाज की सेर्ा करता है । बडे पैमाने पर
चलने र्ाले उद्योगों तथा भमलों के इस युग में हम जरा भी नहीां सोचते कक पररर्ार से दरू रहकर ककसी बडे भमल में
काम करने र्ाले मजदरू मशीन की तरह त्जस काम में जट
ु े रहते हैं, उसमें उन्हें आनन्द नहीां भमलता। जातत-
व्यर्स्था में एक ही व्यर्साय में काम करने र्ाले सब लोग अपने स्र्ाभावर्क र्ातार्रण में काम करते हैं, उन्हें घर
से दरू जाकर थोडे र्ेतन पर अधधक समय तक काम करने को वर्र्श नहीां होना पडता । सौंदयव, स्नेह तथा
सामात्जक कतवव्य की भार्ना से यक्क
ु त पण
ू व जातीय जीर्न मजदरू को आनन्द दे ता है । उसके कुटुम्ब के लोग काम
में उसका हाथ बांटाकर उसे माधुयव तथा कोमलता से भर दे ते हैं। यदद अल्पर्यस्क बच्चों तथा त्स्ियों का काम
करना आर्श्यक ही हो तो यही अधधक उपयुक्कत है कक र्े घरे लू र्ातार्रण में ही काम करें जहाां अपनी रचना-
प्रर्वृ त्तयों को र्े स्र्तनभमवत र्स्तओ
ु ां में मत
ू व कर सकें। प्रततयोधगता में सफलता अथर्ा ग्राहकों के सन्तोर् की अपेिा
यहाां पर कतवव्य-पालन के भलए उन्हें श्रेष्ठतर प्रेरणा भमल सकती है । एक ही पेशे के लोगों में सामद
ु ातयक
सद्भार्ना एर्ां व्यार्सातयक मयावदा का वर्कास होता है । र्ातार्रण के वर्कास प्रभार् से छोटे -छोटे बच्चों को
उपयक्क
ु त व्यार्सातयक भशिा भमल जाती है । अज्ञातरूप से र्े व्यर्साय-परम्परा में दि हो जाते हैं और इस प्रकार
अपनी रुधच के अनुकूल आत्मानुमोददत व्यर्साय में लग जाते हैं। यह सच है कक आधुतनक पररत्स्थततयाां कुटीर
उद्योग अथर्ा छोटे पैमाने के उत्पादन के प्रततकूल हैं, पर सभी जगह ऐसा नहीां है । लभलत कलाएां, सजार्ट के
काम एर्ां कताई तथा बन
ु ाई के काम आदद ककसानों के सहायक व्यर्साय के रूप में घर पर चल सकते हैं और तेल
के इांजन अथर्ा त्रबजली से चलने र्ाले छोटे -छोटे कारखाने भी खोले जा सकते हैं। व्यार्सातयक सांघ के रूप में
भारत की अन्तरात्मा 28
जातत-व्यर्स्था अभी बेकार नहीां हुई है । यद्यवप आरम्भ से ही जीर्न के तनत्श्चत कायविम बना लेने का प्रस्तार्
अनुधचत नहीां कहा जा सकता, कफर भी नैसधगवक प्रततभा तथा र्ैयत्क्कतक प्रर्वृ त्त का कुछ भी ध्यान न रखकर ककसी
पद्धतत वर्शेर् को त्स्थर रूप दे दे ने का यह भी पररणाम हो सकता है कक व्यत्क्कत का जीर्न दासता की जांजीर में
जकड जाय और र्ह आधुतनक युग की जदटल पररत्स्थतत के अनुकूल अपने को न बना सके।
र्स्तुतः ककसी भी व्यत्क्कत की जातत उसकी बुद्धध, मनोर्ेग अथर्ा चेष्टा के प्राधान्य से तनधावररत होती
है । ये स्थूलरूप से सत्र्, रजस ् एर्ां तमस ् नामक तीन गुणों के व्यांजक हैं।'30 मनु ने जातत-तनणावयक तीन बातों का
उल्लेख ककया है -तपस ् अथर्ा व्यत्क्कतगत प्रयास, श्रत
ु म अथर्ा साांस्कृततक र्ातार्रण एर्ां योतन अथर्ा
र्ांशानुिम। पहला तनयम काफी अतनत्श्चत है और उसका र्ैज्ञातनक उपयोग सम्भर् नहीां। दस
ू रा पाररर्ाररक
प्रभार्ों पर आधश्रत है जो स्र्यां जन्मजात सांस्कारों पर आधश्रत रहते हैं। व्यार्हाररक लिण केर्ल जन्म रह जाता
है और उनका मत दहन्दओ
ु ां को स्र्ीकृत कमव एर्ां पन
ु जवन्म के भसद्धाांत के ही अनक
ु ू ल है ।
छाि-जीर्न की भशिा एर्ां अभ्यास के बार्जूद भी र्णव-धमव की भभन्नता के कारण लोगों में
भमथ्याभभमान एर्ां दरू त्र् की भार्ना का आ जाना सम्भर् था; अतः सबके साथ एक-सा व्यर्हार करने के तनयम
पर काफी जोर ददया गया है । जैसे व्यर्हार की हम दस
ू रों से आशा करते हैं र्ैसा ही व्यर्हार दस
ू रों के साथ करना
सर्वश्रेष्ठ गण
ु समझा जाता है । वर्ष्णु पुराण में भलखा है - “तुम्हें सर्वि समत्र्-दशवन करना चादहए क्कयोंकक
30
दे खो भवर्ष्परु ाण 3, 4-23 ।
31
इस वर्र्य में महाभारत-र्ाण पर्व, अध्याय 216 भी पठनीय है ।
32
र्त्त
ृ मेर्-महाभारत-र्ाण पर्व, अध्याय 314।
33
र्न पर्व-182, दे खो मनुस्मतृ त 4, 224-225 ।
भारत की अन्तरात्मा 29
साम्यभार्ना ही, समवर् ही, ईश्र्र की उपासना है ।34 अदहांसा, सत्य, तनश्छल व्यर्हार, पवर्िता तथा आत्म-
तनग्रह आदद ऐसे कतवव्य हैं त्जनका पालन सबके भलए समान भार् से अतनर्ायव।35 आखखर र्णव-वर्भेद हमारी
अपूणत
व ाओां के ही कारण तो है, अतएर् उसके भलए गर्व करने की कौन-सी बात है । भगर्ान ् में र्णव-भेद कहाां है !
जातत-भेदों का वर्धान केर्ल गह
ृ स्थआश्रम के भलए है । यहाां भी मानर्ता से बढ़कर उनका स्थान नहीां समझा
जाता। आज इस बात की जरूरत है कक जातत-भेद के मूल भसद्धान्त को तो हम स्र्ीकार कर लें पर एक अधधक
उदार सामात्जक मनोर्वृ त्त वर्कभसत करने का अभ्यास करें । जीर्न-सवु र्धाओां को घातक सांकीणवता एर्ां कठोर
तनयमों से जकड रखना मानर्ता एर्ां सौहाद्रव के आदशव से प्रततकूल है ; अतः उनका पररत्याग करना होगा। मनु ने
उन्हें प्रोत्साहन नहीां ददया- "ककसान, पररर्ार का शुभ धचन्तक, ग्र्ाला, नौकर, नाई तथा सेर्ा-भार् से आने र्ाले
गरीब अपररधचत शद्र
ू के हाथ से भी भोजन ग्रहण कर लेना चादहए।'36
भारत में मस
ु लमानों के आगमन से पर्
ू व जातत-भेद इतना अनल्
ु लांघ्य नहीां था। सामात्जक तनयमों में
तरलता थी तथा वर्कास के भलए आर्श्यक पररर्तवन को ककसी कठोर तनयम के अनुरोध से बभलदान नहीां कर
ददया जाता था। पुराणों में ऐसे पुरुर्ों तथा पररर्ारों की कथायें हैं त्जन्हें हीन र्णव से उच्च र्णव प्राप्त हो गया था।
उत्थान तथा पतन की सम्भार्ना मनु को भी मान्य है ।37 पण्
ु य िभमक शद्
ु धध के द्र्ारा र्णव-पररर्तवन के भलए
कुछ तनयम हैं।38 पुण्य करके तनम्न कोदट से ऊपर उठना सम्भर् था। जब भारत में दहन्दओ
ु ां का राजनीततक
प्रभुत्र् लुप्त हो गया और यहाां के नए शासकों ने बलात ् धमव-पररर्तवन की नीतत को अपना भलया तो सामात्जक
भार्ना गायब हो गई तथा धमव-तनयम और नीततयाां अन्धवर्श्र्ास बन गईं, त्जसका राष्रीय सांगठन पर बडा ही
भयांकर पररणाम हुआ। हमें धमव की उस मल
ू भार्ना को पुनः प्राप्त करना होगा जो कुछ वर्शेर् रूपों तक ही
सीभमत नहीां थी प्रत्युत ् जो पुराने रूपों को बदलकर तथा नये-नये रूपों का वर्कास करके तनत्य नये रूपों में व्यक्कत
हुआ करती थी। राजनीततक सांकट के समय जातत-व्यर्स्था को जो वर्शेर् महवर् प्राप्त हो गया था, अब उसकी
कोई आर्श्यकता नहीां रही। भवर्ष्य में र्णव तभी रह सकेगा जब उसे सामात्जक सम्बन्धों तक ही सीभमत रखा
जाये। प्रत्येक समाज का तनयम है कक व्याह-सांबांध लोग उन्हीां लोगों से करते हैं जो समान स्र्भार् तथा आचार
रखते हैं। चकूां क एक ही व्यर्साय के लोगों में सामान्य साांस्कृततक परम्परा का वर्कास अधधक सम्भर् है ; अतः
समान व्यर्साय के लोगों में ब्याह-सम्बन्ध का एक तनयम-सा हो जाता है । प्राचीन भारत में भी असर्णव वर्र्ाह
को मना नहीां ककया गया था यद्यवप उसको प्रोत्सादहत भी नहीां ककया गया । अनुलोम तथा प्रततलोम वर्र्ाह कम
ही होते थे पर दहन्द-ू कानून की दृत्ष्ट में र्े अर्ैधातनक नहीां हैं।'39 इस प्रकार के वर्र्ाह बडी सांख्या में इसभलए नहीां
होते कक र्े जातत के तनकटतम औद्योधगक, सामात्जक तथा आध्यात्त्मक जीर्न में गडबडी उत्पन्न कर दे ते हैं।
34
अध्याय 17।
35
मनुस्मतृ त 10-63, 6-91, 92।
36
मनुस्मतृ त 4, 223।
37
मनस्
ु मतृ त 10-42, 9-335।
38
मनुस्मतृ त 10, 57-65
39
दे खो बॉम्बे लॉ ररपोटव र-भाग 24, गुलाब बाई बनाम हीरालाल ।
भारत की अन्तरात्मा 30
जातत-भेद यदद तनकट सामात्जक सम्बन्ध का ही आधार रहे तो र्ह राष्रीय जीर्न के बडे िेि में बाधक नहीां हो
सकता । सम्राट् अशोक ने अपने दहन्द ू मांिी से कहा था- "वर्र्ाह तथा तनमांिण के समय र्गव का वर्चार करना
चादहए, धमव के प्रश्न में नहीां, क्कयोंकक धमव का सम्बन्ध सद्गण
ु ों से होता है और सद्गण
ु ों एर्ां र्णों में कोई सम्बन्ध
नहीां।'40
40
इत्ण्डयन सोशल ररफामवर-जून 4, 1922
भारत की अन्तरात्मा 31
दहन्दओ
ु ां ने उत्साह तथा सफलता के साथ न ककया होता तो आज अछूतों की सांख्या पाांच करोड से कहीां अधधक
होती। जब वर्दे भशयों का आिमण हुआ तो दहन्द ू घबरा गए एर्ां आत्मरिा की भार्ना बना ददया। पररणामतः कुछ
जाततयाां र्णव-व्यर्स्था के बाहर ही रह गईं। यद्यवप मनु का कहना है कक "पांचम र्णव है ही नहीां ।''41 कफर भी त्जन
जाततयों पर अभी तक धमव का प्रभार् नहीां पडा था, र्े पांचम र्णव बन गईं। "जो अपने कतवव्य से च्युत है , िूर तथा
तनदव यी है और दस
ू रों को दःु ख दे ता है , जो कामी तथा सांहार की भार्ना से पण
ू व है , र्ह म्लेच्छ है ।"42 इन लोगों की
शोचनीय दशा का त्जतना र्णवन ककया जाए, थोडा है । ककसी भी व्यत्क्कत की उपेिा केर्ल इसभलए करना कक र्ह
नीचे है अथर्ा ककसी भभन्न जातत का है , दहन्द-ू धमव के वर्रुद्ध है । अब जब शात्न्त स्थावपत हो चुकी है तो दहन्द-ू
नेता इस प्रमुख सत्य को बार-बार घोवर्त कर रहे हैं कक नीच-से-नीच पुरुर् में भी आत्मा है और हमें कभी यह ने
समझना चादहए कक उनका सध
ु ार हो ही नहीां सकता।
र्ाणप्रस्थ तथा सांन्यास नामक अत्न्तम दोनों आश्रम, त्जनको सवु र्धा के भलए हम एक ही समझ सकते
हैं, उन लोगों के भलए हैं जो प्रततयोधगतापूणव जीर्न-सांघर्व से अर्सर ग्रहण कर चुके हैं। भारतीय पुरुर्ों का सर्वश्रेष्ठ
उदाहरण सांन्यासी है । पिपात, घण
ृ ा एर्ां र्ासना का पूणव वर्नाश करके व्यत्क्कत स्र्ाथव-परायणता की तनम्नकोदट
से आत्म-वर्सजवन की उच्चता तक पहुांचा है । र्ह सब सांस्थाओां में रह चक
ु ा है और अब उन सबसे परे hat 3 । अब
उसका भार्ुक जीर्न भगर्त्भत्क्कत अथर्ा ईश्र्र-प्रेम में प्रकट होता है , पाशवर्क र्ासना अथर्ा र्ैयत्क्कतक
सुखाभभलार्ा में नहीां। उसे मानर्ता की एकता तथा सम्पूणत
व ा का प्रत्यिानुभर् हो जाता है एर्ां र्ह सब प्रकार के
अन्धवर्श्र्ासों तथा दरु ाग्रहों से मुक्कत हो जाता है । उसकी समस्त शत्क्कत का उपभोग मानर्-सेर्ा में होता है ,
क्कयोंकक र्ह जानता है कक ईश्र्र सब मनुष्यों में है एर्ां सब मनुष्य ईश्र्र में है ।43 जो सबको एक में दे खता है ,
त्जसमें अहम ् सर्वभार्ना से दब गया है , र्ह पाप कर ही नहीां सकता। र्ही भगर्द्गीता का पुरुर्ोत्तम, बौद्धों का
बुद्ध, सच्चा ब्राहाण है त्जसे अपनी दररद्रता का गर्व है , जो अपने कष्टों में ही प्रसन्न है तथा जो शात्न्त एर्ां
आनन्द को हृदय में रखकर त्स्थतप्रज्ञ हो जाता है , र्ह सब मनष्ु यों, पशओ
ु ां तथा पक्षियों को प्रेम करता है , अन्याय
का प्रततकार नहीां करता र्रन ् प्रेम से उसे जीत लेता है । उसमें मानर्-आत्मा का श्रेष्ठतम स्र्रूप ददखाई पडता है ।
उपतनर्त्कालीन ऋवर्यों के यग
ु से सांन्याभसयों के आदशव से भारतीय जीर्न सदा ही प्रभावर्त रहा है । इस आदशव
के पालन करने के भलए राजा अपने दण्ड तथा मक
ु ु ट को छोडकर दररद्रतासच
ू क कपडे पहन लेता है , योद्धा वर्जय-
गर्व भूल कर अपने अस्ि-शस्ि तोड फेंकता है एर्ां कुशल व्यापारी तथा मजदरू दृढ़तापूर्क
व फल को भगर्ान ् पर
छोडकर अपने कतवव्य-पालन में सांलग्न हो जाता है ।
सांन्यासी मानर्ता के उपकारक एर्ां सहायक होते हैं। उनमें जो सर्वश्रेष्ठ हैं, जैसे शांकर तथा रामानुज,
रामानन्द और कबीर, र्े तो जातत के रक्कत में भभांद गए हैं एर्ां उन्होंने ही उसके धमव की नीांर् डाली है । यह सच है कक
मध्य कालीन योरोप की ही भाांतत भारत में भी बहुतेरे सांन्याभसयों ने साांसाररक धचन्ताओां से बचने के भलए एकान्त
41
10, 4।
42
शुिनीतत 1, 44
43
सर्व भूतमयम ् हररम ्-वर्ष्णुपुराण 1, 19, 91
भारत की अन्तरात्मा 32
में भाग जाने की गलती की। मठों की सुनसान कोठररयों में अथर्ा पहाडों की कन्दराओां में जीर्न त्रबताने र्ाले ये
सांन्यासी गहन अन्धकार के पथ-भ्रष्ट यािी हैं। पाप के तनरन्तर ध्यान एर्ां अपनी मत्ु क्कत की धचन्ता में सांलग्न ये
तपस्र्ी, मालूम पडता है , अपनी आत्मा की रिा करने की व्यग्रता में ही उससे हाथ धो बैठे। त्जस प्रकार
मध्ययुगीय योरोप में मठ-जीर्न का जो तूफान उठा र्ह ईसा के उस उपदे श के त्रबल्कुल प्रततकूल है जो हमसे
कहता है कक हमें अपने को वर्श्र्ासपाि सेर्क बनाना है , तनरीिण-कायव में तनयुक्कत चौकीदार, कायावध्यि त्जसके
बहुत बडी त्जम्मेदारी है , पि
ु त्जससे वपता अपने गप्ु त रहस्यों की चचाव करता है , बनाना है , उसी प्रकार जीर्न-
सांघर्व से पराङमख
ु ये पुरुर् यथाथव सांन्यासी नहीां हैं। सांन्यासी तो लोक-कल्याण के साथ सब कुछ सहन करने को
सदा तैयार रहता है ।
उन्नतत के भशखर पर पहुांचने के भलए, ब्राह्मण बनने के भलए, यह आर्श्यक नहीां हैं कक धमव-तनयमों का
अिरशः पालन ककया जाय। ऐसे उदाहरण भी भमलते हैं जहाां धमव-र्वृ त्त एकाएक जाग पडी है -तनतान्त साधारण
प्रतीत होने र्ाले लोगों में उच्च आध्यात्त्मकता की बाढ़ तथा उच्च र्गीय जीर्न की भशिा से हीन व्यत्क्कतयों में
आश्चयवजनक चाररत्रिक वर्कास भी दे खने को भमलता है । धाभमवक तनयम तो आध्यात्त्मक वर्कास के सामान्य
रूप के द्योतक हैं। तनम्न श्रेणी के लोगों के तनरथवक श्रम-साध्य तनयम-पालन पर तथा कमवकाण्ड के औधचत्य के
सम्बन्ध में धचन्तापण
ू व प्रश्नों पर मुक्कतात्माएां हां सा करती हैं, सभी र्णों के लोग सांन्यास-आश्रम में जा सकते हैं,
पर त्रबना तीनों ऋणों से उऋण हुए ककसी को भी मुत्क्कत की इच्छा नहीां करना चादहए'44 - दे र् ऋण से स्तुतत एर्ां
प्राथवना के द्र्ारा, वपत ृ ऋण से दान, समाज-सेर्ा तथा सन्तानोत्पादन के द्र्ारा, ऋवर्-ऋण से वर्द्यादान के
द्र्ारा उऋण हुआ जा सकता है ।
44
मनुस्मतृ त 6, 35
भारत की अन्तरात्मा 33
उनकी बात बताते हैं जो दहन्द-ू दे र्ताओां के उपासक थे। भारतर्र्व को यह इतना बडा प्रभार् इसभलए नहीां है कक
उसका धमव इतना प्राचीन अथर्ा उसका साम्राज्य बडा है , इसभलए भी नहीां कक उसने सांहारक शस्िास्िों का
तनमावण ककया है अथर्ा उसने बहुत बडी मािा में बल-प्रयोग ककया है , र्रन ् इसभलए कक इस नानात्र् के नीचे
एकत्र् का ज्ञान उसे था । जहाां भी भारतर्ासी गये र्हाां सब पदाथों का एकता भगर्ान ् में कर लेने की भार्ना भी
उनके साथ गई। त्जतने महान ् वर्चार भारत में आये उन सबका सांश्लेर्ण इसी रूप में ककया गया। उसने सभी
धमों का स्र्ागत ककया, क्कयोंकक ध्यान की नभस्पशी उच्चता से उसने यह अनभ
ु र् कर भलया कक पर्वत-भशखर पर
का आध्यात्त्मक प्रदे श एक ही है यद्यवप घादटयों से उस तक पहुांचने के मागव भभन्न-भभन्न हैं। जो लोग त्रबना यह
जाने कक सब रास्ते एक ही चोटी तक पहुांचने के वर्वर्ध मागव हैं, मैदान में भटकते कफरते थे, उनको उसने बताया -
"आांखें खोलो । घाटी की र्स्तए
ु ां हमें अलग ककये हैं। चोटीपर हम सब एक हैं। पहाडी के नीचे खडे रहने पर इस मागव
की वर्धधता का अर्श्य कुछ अथव है ; ककन्तु अगर हमें इस बात का ज्ञान हो जाय कक दहमाच्छाददत भशखरों पर
उनका क्कया महवर् है तो हमें पता चलेगा कक र्े सब एक ही परमात्मा तक पहुांचने के भभन्न-भभन्न रास्ते हैं।"
सम्भर् है कक अपनी समन्र्य-शत्क्कत के कारण भारतर्र्व एक बार कफर सांसार के उन प्रबल धाभमवक प्रर्ाहों में
सामांजस्य स्थावपत कर सके त्जनका सत्म्मलन उसी अन्तरात्मा में हुआ है ।
मानर्-सांस्था होने के नाते धमव एक जीर्धारी प्राणी के समान है । इसमें उसी प्रकार की सम्पण
ू त
व ा आत्म-
र्ैलिण्य होता है जैसा अन्य जीर्धाररयों में । र्ह अचल, त्स्थर न होकर सतत गततशील रहता है । उसका तवर्
उसके वर्गत जीर्न में नहीां भमल सकता है और न उसके र्तवमान रूप में ही र्ह पाया जा सकता है । धमव की
व्याख्या हमें उसके र्ास्तवर्क अथव, उनके लक्ष्य को ध्यान में रखकर करनी होगी, उसकी अस्फुट अथर्ा
अधवप्रस्फुदटत अभभव्यत्क्कत में नहीां, ठीक र्ैसे ही जैसे येम्पीडाककल्स की व्याख्या अररस्टादटल ने की थी।
(मेटाकफत्जक्कस 1, 985 अ 3)। यदद हम ककसी धमव की िभमक अर्स्थाओां के इततहास का अध्ययन करें तो हम
दे खेंगे कक उसमें एक ऐसा भौततक गम्भीर तवर् है जो सदा नये-नये रूपों में अपने को अभभव्यक्कत करने का प्रयत्न
ककया करता है , पर जो कभी पण
ू त
व ः व्यक्कत नहीां हो पाता। यह र्द्वधमान आदशव, यह गत्यात्मक भसद्धान्त ही, जो
ककसी भी वर्भशष्ट अर्स्था में अपण
ू व रूप से ही प्रकाभशत रहता है , र्ास्तवर्क तवर् है , यही उस समस्त ऐततहाभसक
गतत का र्ास्तवर्क अथव है ।
यदद हम दहन्द-ू धमव का तवर् जानना चाहें तो र्ह हमें आध्यात्त्मक अनुभूतत की र्ास्तवर्कता में
भमलेगा। अपने अन्तस्तल में हमने सत्य को दृढ़तापूर्क
व पकड रखा है । दहन्द ू धमव के सम्पूणव इततहास में धमव की
इस आभ्यन्तररकता पर, उसके र्ैयत्क्कतक अथर्ा प्रयोगात्मक स्र्रूप पर, जोर ददया गया है । जब दहन्द ू
र्ैददककाल को अपने सांस्थापकों का युग कहकर स्मरण करते हैं, तो इसका अथव यह होता है कक र्ैददक ऋवर् पथ-
प्रदशवक थे, अध्यात्म दे श के प्रथम अन्र्ेर्क थे। ऋवर् शब्द 'दृश' धातु से बना है त्जसका अथव 'दे खना' होता है ।
धमव का अथव दृत्ष्ट वर्र्य दशवन, अनुभूतत होता है । ऋवर्यों ने त्जस सत्य की घोर्णा की है र्ह तकव अथर्ा
तनयभमत दशवन का फल नहीां हे प्रत्युत ् आध्यात्त्मक सूझ का पररणाम है । ऋवर्यों को र्ेद में तनबद्ध सत्यों का
रचतयता नहीां समझा जाता र्रन ् र्े तो उनके दे खनेर्ाले भर हैं त्जन्होंने अपनी आत्मा का वर्श्र्ात्मा से तादात्म्य
करके उन चरम-सत्यों का दशवन कर भलया है । उनके र्चनों का आधार आर्ेशपूणव सूझ नहीां है र्रन ् हृदय में त्स्थत
शत्क्कत एर्ां जीर्न का अनर्रत अनभ
ु र् है । "सदा पश्यत्न्त सरू यः।" र्ेदों को सर्वश्रेष्ठ प्रमाण इसीभलए माना जाता
है कक र्ास्तवर्कता ही सबसे बडी प्रामाखणकता है । ईश्र्र हमारा वप्रय आदशव नहीां है , र्ह तो उस सत्य का नाम है
त्जसका हम अनुभर् करते हैं। आध्यात्त्मक अनुभूतत ककसी काल्पतनक वर्चार को नहीां, सत्य के तनकटतम
साहचयव को कहते हैं।
त्जस महात्मा ने भगर्ान ् का साहचयव प्राप्त ककया है केर्ल उसके सम्बन्ध की चचाव सन
ु कर ही उसे नहीां
जाना है , र्ह उसकी पररभार्ा नहीां चाहता। उसके भलए शांका अथर्ा अवर्श्र्ास करना असम्भर् है । उसके इस
अद्भुत एर्ां सरल तनश्चय को भी डडगा नहीां सकता; ककन्तु त्जन्होंने धमव का ज्ञान दस
ू रों से सुनकर प्राप्त ककया है ,
जो धाभमवक बनने का कष्ट तो नहीां उठाना चाहते पर धमव से प्राप्त होने र्ाले सन्तोर् का उपभोग करना चाहते हैं,
जो धमव का पथ-दशवक चमत्कारपूणव कहातनयों अथर्ा कमवकाण्ड की सांस्कार-पद्धतत को बनाना चाहते हैं, उन
साधारण मनुष्यों के भलए इस अनुभूतत को धचिात्मक रूप दे ने की आर्श्यकता है । इसके अततररक्कत अपने
अनुभर् को दस
ू रे पर व्यक्कत करने का, उसके रहस्यों को वर्शद रूप दे ने तथा वर्रुद्ध आलोचना से उसकी
भारत की अन्तरात्मा 35
यथाथवता की रिा करने का एकमाि साधन भार्ा तथा तकव है । दहन्द-ू धमव में ईश्र्र की व्याख्याएां सभी प्रकार की
सांस्कृतत के लोगों के अनुरूप पाई जाती हैं-त्रबल्कुल स्थूल भी तथा परम सूक्ष्म भी।
इस अन्तज्ञावन से युक्कत व्यत्क्कत जब अपने अनुभर् को साधारण तकव की भार्ा का रूप दे ना चाहता है तो
र्ह एक अतनर्ायव प्रबल वर्श्र्ास के साथ, जो स्र्ाभावर्क है, इस अलौककक सत्य का प्रततपादन करता है । र्ह
जानता है कक आत्मा का तनकट, सीधा तथा तनत्श्चत सम्बन्ध एक ऐसे लोक से है जो इत्न्द्रय जगत ् से भभन्न है ,
जो इत्न्द्रयों के इस सामान्य लोक से अत्यधधक तेजपूणव होकर भी उससे ककसी प्रकार कम सत्य नहीां है । तकव,
अन्तज्ञावन एर्ां आध्यात्त्मक अनभ
ु तू त सब एक स्र्र से उस सत्ता की यथाथवता के सािी हैं त्जसका मल
ू स्र्रूप
आध्यात्त्मक है , जो इस सबका आधार, “अमरता एर्ां मत्ृ यु त्जसकी प्रततच्छाया है " (यस्य छायामत
ृ म ् यस्य
मत्ृ युः - ऋग्र्ेद 10-121)। आध्यात्त्मक अनुभूतत का मुख्य लिण उसकी अतनर्वचनीयता है । जब हम अनुभूतत
सत्य का र्णवन करना चाहते हैं तब हमें रूपों अथर्ा शब्दों का सहारा लेना पडता है , पर सत्य को व्यक्कत करने के
भलए बडे-से-बडे शब्द अथर्ा रूप भी अपयावप्त हैं। बुद्ध आध्यात्त्मक अनुभूतत की यथाथवता स्र्ीकार करते हैं पर
र्े उसे ककसी स्र्तांि सत्ता को ज्ञापक नहीां मानते। उनकी दृत्ष्ट में यह मत कक आध्यात्त्मक अनुभतू त ईश्र्र का
सािात्कार कराती है , अनम
ु ानमाि है , प्रत्यि ज्ञान नहीां। बद्
ु ध प्रत्यि को छोडना नहीां चाहते। र्े इतना ही कहकर
सन्तुष्ट हो जाते हैं कक इस व्यक्कत र्स्तु-जगत ् में एक सूक्ष्म भार्-जगत ् भी व्याप्त है । श्रेष्ठ दहन्द-ू दाशवतनक तथा
धमव-शास्िी शांकराचायव का कथन है कक सभी रूपों में भमथ्या का अांश रहता है एर्ां सत्य रूपों से परे है । उपतनर्द्,
बुद्धध और शांकराचायव तथा उनके अनुयायी मानते हैं कक अवर्भक्कत, अद्र्ैत इस अनेकरूप, अतनत्य-जगत ् से परे
अथर्ा उसी में व्याप्त वर्शद्
ु ध तेजपूणव आत्मा एक तनगण
ुव सत्ता है त्जसका न तो सम्यक् ज्ञान ही सम्भर् है और
न उसका र्णवन ही ककया जा सकता है । हम न मानकर भी इस बात को मान लेते हैं कक ईश्र्र की महत्ता अज्ञेय है ,
र्ह मन तथा र्चन की पहुांच के बाहर है । "र्ह ज्ञात से भभन्न है तथा अज्ञात से भी श्रेष्ठ है (केनोपतनर्द् 1, 3)।
"र्हाां तक दृत्ष्ट नहीां पहुांचती, मन तथा र्ाणी भी नहीां पहुांचती" (र्ह
ृ दारण्यक उपतनर्द् 3, 8, 8) पर इस बौद्धधक
तथा आध्यात्त्मक वर्नम्रता में एक खतरा है । ब्रह्म के वर्र्य में मौन रहने से बुद्ध पर नात्स्तक होने का आिेप
ककया गया। उस चरम सत्य को सर्वथा सम्बन्धहीन एर्ां तनगण
ुव बताकर हम उसे केर्लमाि सत्ता-शून्य बना दे ते
हैं। शांकराचायव का कहना है कक अनभ
ु र्मल
ू क गण
ु ों के अभार् को सत्ता की त्जस अलौककक महत्ता का अनभ
ु र्
जीर्न ने ककया है उसको केर्ल व्यक्कत कर दे ने का प्रयास है-र्ह ब्रह्म जो पूणत
व ः भभन्न है , त्जसके वर्र्य में तनर्ेध
र्ाक्कय को छोडकर और कुछ कहा ही नहीां जा सकता।
दहन्द-ू धमव केर्ल तनर्ेधात्मक व्याख्या से सन्तुष्ट नहीां हुआ। आध्यात्त्मक अनुभूतत के तीन गुण होते
हैं-सत्य, ज्ञान तथा तनरपेिता। चांकू क हमारी अनभ
ु तू त का कुछ भाग इन गण
ु ों से यक्क
ु त होता है , अतएर् यह भी
सम्भर् है कक अनुभूततमाि का स्र्रूप इसी प्रकार का हो। त्जस चेतना को प्रत्यि, तनरपेि अन्तज्ञावन होता है र्ह
र्ही ददव्य चेतना है जो हमारा आदशव है । उस ब्राह्मी त्स्थतत में र्ास्तवर्कता स्र्यां अपने-आपको दे खती है , स्र्यां
अपने-आपको जानती है एर्ां पण
ू त
व ः स्र्तांि रही है । तब ऐसा कुछ शेर् नहीां रह जाता जो उसका अपना ही स्र्रूप न
बन जाय अथर्ा जो उसको अज्ञात रह जाय और तब सभी प्रकार के द्र्न्द्र्ों का अन्त हो जाता है । यही पूणव सत्ता,
भारत की अन्तरात्मा 36
पूणव चेतना, पण
ू व स्र्तांिता की त्स्थतत है , यही सत ्, धचत ्, आनन्दां है । वर्चार तथा उसके वर्भभन्न रूप, इच्छा तथा
किया, प्रेम तथा समत्र् का र्ही आधार है । उसके ये मानर्ी अांश कष्ट, िोभ एर्ां द्र्न्द्र्पण
ू व होते हैं। इसीभलए जो
शान्त तथा मानर्ी है र्ह अनन्त एर्ां पण
ू व ब्रह्म की दृत्ष्ट से अपयावप्त है । परमात्मा यथाथव है , सत्य नहीां; पूणव है ,
प्रशस्त नहीां। उसकी स्र्तांिता ही उसका जीर्न है , र्ही उसकी मूलभूत स्र्ाभावर्कता है ।
ईश्र्र र्ह अनन्त तवर् है जो हमारे भीतर भी है और बाहर भी। यदद हमारे भीतर परमात्मा न होता तो
हमें उसकी आर्श्यकता का अनुभर् ही न होता; यदद हमारे बाहर र्ह न होता तो उपासना की कोई जरूरत न
रहती। जब हम परमात्मा को मनुष्य की आत्मा से श्रेष्ठ स्र्रूप का बताते हैं तो हमारा धमव भत्क्कतपण
ू व होता है ।
ईश्र्र-सम्बन्धी हमारा सर्ोच्च ज्ञान भी अपण
ू व ही होता है । सदा कुछ-न-कुछ ऐसा शेर् रह ही जाता है जो अज्ञात
या अनुच्चाररत है । धाभमवक चेतना इस बात पर जोर दे ती है कक उस श्रेष्ठ तवर् के साथ साहचयव का अनुभर् करें
त्जसके साथ हमारे तादात्म्य की सम्भार्ना न हो। भत्क्कत कई प्रकार की होती है । एक भक्कत अपने प्रभु के समीप
चरम दै न्य की भार्ना लेकर उपत्स्थत होता है और दस
ू रा अपने उस वप्रयतम के प्रेमालाप में मग्न रहता है
त्जसकी दया की आशा अधम-से-अधम पापी भी कर सकता है । उस सर्ोत्तम तवर् से ईश्र्र की तुलना करना,
त्जसका ज्ञान हमको है , ककसी अन्य र्स्तु से तुलना करने की अपेिा कहीां अधधक सत्य के नजदीक है । भक्कत उस
महान ् सत्य को एक ऐसे साकार ईश्र्र का रूप दे ना चाहता है जो सांसार का मल
ू , पथ-दशवक एर्ां अन्त है । ब्रह्म को
तनरपेि तवर् समझने अथर्ा उसे शरीरधारी ईश्र्र मानने में कुछ मौभलक भेद नहीां है केर्ल दृत्ष्टकोण का अन्तर
है । अन्तर इतना ही है कक एक हमें ईश्र्र के र्ास्तवर्क स्र्रूप का और दस
ू रा उसके उस स्र्रूप का जैसा र्ह
हमारी इत्न्द्रयों को प्रतीत होता है । ईश्र्र का व्यत्क्कतत्र् तो एक धचन्हमाि है और यदद हम उसकी लािखणकता को
भूल गये तो सत्य से बहुत दरू जा पडेंगे।
भारत की अन्तरात्मा 37
45
इस्लाम पर स्फुट वर्चार-लेखक सर अहमद हुसेन के. सी. आई. ई., सी. एस. आई.; सम्पादक, खान बहादरु
हाजी ख्र्ाजा मुहम्मद हुसेन, गर्नवमेंट सेण्रल प्रेस, है दराबाद (दक्षिण) ।
भारत की अन्तरात्मा 38
ककसी धमव का ककसी दे श वर्शेर् में क्कया रूप होगा, यह उसकी साांस्कृततक परम्परा और राष्रीय
वर्भशष्टता पर तनभवर करता है। अरब में इस्लाम केर्ल एक सरल ककन्तु उच्च ईश्र्रर्ादी धमव था, त्जसमें आगे
आने र्ाली शतात्ब्दयों में उत्पन्न हुई बारीककयों के भलए कोई स्थान नहीां था। जब इसने फारस के लोगों पर
अधधकार जमाया तब सेभमदटक भार्नाओां ने रहस्यर्ादी भार्नाओां के सामने मस्तक टे का। आददम अरब-
परम्परा की अनुपम सुन्दरता का स्थान एक गहन दशवन तथा आकर्वक धमव-कथाओां ने ले भलया, त्जनमें मुहम्मद
एक रहस्यपण
ू व व्यत्क्कत बन गये जो न पण
ू त
व ः इस लोक के थे और न स्र्गव के। भारतीय जनता में लगभग 7 करोड
व्यत्क्कत इस्लाम-धमव को मानते हैं और उनमें से अधधकाांश उसी नस्ल के हैं त्जसके दहन्द।ू यह स्र्ाभावर्क है कक
भारतीय इस्लाम की अपनी वर्शेर्ताएां हैं। अभी तक भारतीय मस
ु लमान इस्लाम की व्याख्या करने में अपने
आध्यात्त्मक र्ांशानुगत ज्ञान का उपयोग करना अपने भलए गौरर् र्स्तु समझता था; परन्तु इधर, आश्चयव है कक
हमारे कुछ भशक्षित मुसलमान भाइयों के हृदय में एक वर्धचि भ्रम घर करता जा रहा है चूांकक उन्होंने इस्लाम धमव
स्र्ीकार कर भलया है , र्े स्पेन के मरू ों और बगदाद के खलीफाओां के र्ांशज हो गये हैं। र्े साांस्कृततक और
सामात्जक दृत्ष्ट से अपने को अपने दहन्द-ू पडोभसयों से भभन्न मानते हैं। अपने धाभमवक वर्श्र्ास अथर्ा बौद्धधक
वर्चारों को बदलकर हम अपनी सम्पूणव मानभसक दशा को तो नहीां बल दे ते। धमव-पररर्तवन का अथव यह तो नहीां
होता कक हम अपने दे श के इततहास अथर्ा उसके आदशों से वर्लग हो जायें। आज के यग
ु की यह अभभनन्दनीय
त्स्थतत है कक मुसलमानों के भारतीय नेता भारतर्र्व की आध्याभमक परां परा की एकता का अनुभर् करने लगे हैं
और उन कृत्रिम वर्र्मताओां तथा वर्भभन्नताओां का वर्रोध कर रहे हैं त्जन्हें झूठे पैगम्बरों और कुदटल
राजनीततज्ञों ने उकसाया है । हमारा धमव चाहे जो हो परन्तु हमारी रगों में एक ही खन
ू प्रर्ादहत हो रहा है और हमारी
आध्यात्त्मक परम्परा एक ही है । 'ए. ई.' जो बात आयरलैंड के वर्र्य में कहता है र्ह भारतर्र्व के वर्र्य में और भी
अधधक सत्य है । हम उन कुछ अर्भशष्ट जाततयों में से एक हैं, त्जनकी परम्परा का स्रोत दे र्ताओां और दै र्ी
भारत की अन्तरात्मा 39
घटनाओां से सम्बद्ध है ।'46 भारतर्र्व का इततहास अतीत की धुांधली स्मतृ तयों तक जाता है और इसी कारण हमारी
अनेक पद्धततयाां हमें प्रभावर्त करती हैं और कभी-कभी हमारी इच्छा के प्रततकूल अन्तरात्मा में एक अद्भुत
स्र्र झांकृत करतीां तथा हमें वर्स्मत
ृ घटनाओां की याद ददलाती और हमारी वर्स्मत
ृ दृत्ष्ट को सकिय बनाती हैं।
भारतात्मा एक आध्यात्त्मक तवर् है जो हम सबको भारतीय बनाती है । एक व्यापक अध्यात्म की आधार-भशला
के सहारे इस्लाम की सत्यतम, उच्चतम, और उत्कृष्टतम अथव में व्याख्या करने का, ताकक र्ह उस धमव से पथ
ृ क्
हो जाये त्जसे एक अभशक्षित कट्टरपांथी, कुदटल राजनीततज्ञ अथर्ा अनद
ु ान मल्
ु ला स्र्ीकार करता है , भारतीय
मुलमानों का ही अधधकार है । यदद भारतीय मुसलमान अपनी पैतक
ृ परम्परा और नर्-स्र्ीकृत धमव में
सामञ्जस्य पैदा कर ले तो र्ह इस्लाम के उन पहुलओां को बल दे सकेगा जो अभी तक उदासीनता के भशकार रहे
हैं; परन्तु त्जन्होंने सचमच
ु सभ्यता तथा सांस्कृतत के वर्कास और एक मत
ृ प्राय सांस्था को नर्जीर्न प्रदान करने
में सहयोग ददया है । साथ ही र्ह उन तनस्सार छोटी-छोटी बातों का ततरस्कार कर सकेगा जो ऐततहाभसक घटनाओां
के कारण आर्श्यकता से अधधक महवर् पा गई हैं। र्ह उस रूदढ़-प्राप्त धमव के कुप्रभार् को तोड सकेगा जो जनता
के जीर्न की ओत-प्रोत ककये हैं और इस्लाम-जगत ् के समि मह
ु म्मद की भशिाओां का ऐसा भाष्य प्रस्तत
ु कर
सकेगा जो, मैं तनश्चयपूर्क
व कह सकता हूां, उनकी भशिाओां के अधधक सत्न्नकट होगा, उन रूदढ़र्ादी पररर्द्वधनों
के नहीां त्जनकी सत्ृ ष्ट उनके बाद के अनुयातययों ने की है । श्री अमीर अली ने अपनी पुस्तक 'इस्लाम की
अन्तरात्मा' में (त्जसका इस आलोचना के भलखने में मैंने तनस्सांकोच उपयोग ककया है ) और सर अहमद हुसेन ने
अपनी पुस्तक 'इस्लाम पर स्फुट वर्चार' में उन सन्
ु दर वर्चार-कुसुमों का आभास ददया है जो भारतीय अतीत की
भूभम में वर्कभसत होंगे।
मुहम्मद के जीर्न के त्जस पहलू का भारतीयों पर सबसे अधधक प्रभार् पडता है , र्ह है उसकी गहन
धाभमवक भार्ना। सत्ृ ष्ट के रहस्योद्घाटन के प्रयत्न में मह
ु म्मद प्राथवना और मनन के भलए हीरा पर्वत की एक
कन्दरा में वर्चार-तनमग्न और समाधधस्त रात-रात बैठे रहते थे। उनकी दृत्ष्ट में धमव का अथव था सत्य को
पहचानना एर्ां जीर्न में उसे मूतरू
व प दे ना। धमव और जीर्न को पयावय बताने का अथव यह होता है कक हम धाभमवक
वर्श्र्ासों और रूदढ़यों के प्रतत भी र्ैसी धारणा बना लेते हैं। धाभमवक वर्श्र्ास उसी सीमा तक ठीक होते हैं जहाां तक
उनमें और जीर्न की घटनाओां में साम्य होता है । अनुभर् धाभमवक वर्श्र्ासों की कसौटी है और यह प्रत्येक युग का
कतवव्य है कक र्ह अनुभर् के अनुरूप धाभमवक वर्श्र्ासों की नूतन व्याख्या करता जाए। सर अहमद हुसेन ने
इस्लाम की जो नई व्याख्या प्रस्तत
ु की है र्ह न तो पण
ू त
व ः प्राचीन वर्श्र्ास के अनक
ु ू ल है और न पण
ू त
व ः उसकी
वर्रोधी, र्रन र्ह इन दोनों के बीच की र्स्तु है (पष्ृ ठ 8-9)। लेखक कुरान के शब्दों की उस शात्ब्दक व्याख्या कोई
श्र्र-र्ाक्कय मानने के भलए तैयार नहीां है जो मुल्लाओां तथा मौलवर्यों ने प्रस्तुत की है र्रन ् उसने उनका र्ह अथव
लगाने में , जो उसको यक्क
ु तसांगत मालम
ू होता है , अपने को पण
ू व अधधकरी माना है । ऐसा करने में उन्होंने मह
ु म्मद
की भशिा के प्राण का अनुगमन कक है , क्कयोंकक उन्होंने कहीां भी ऐसे बन्धन नहीां लगाये हैं त्जनके कारण भार्ी
46
'भाष्यकार'
भारत की अन्तरात्मा 40
मनुष्य जातत की आत्मा पर प्रततबन्ध लगे। ईश्र्र का ज्ञान मनुष्यात्मा के द्र्ारा ही सम्भर् है और हम यह
वर्श्र्ास करने के भलए वर्र्श नहीां हैं कक त्जनको ऐसा ज्ञान हुआ था, उनमें से बुद्धधमान ्-से-बुद्धधमान ् व्यत्क्कत भी
अपने युग की भल
ू ों और भ्रमों से पूणत
व ः मक्क
ु त था। कुरान में ऐसी अनेक स्थानीय और अल्पकालीन महवर् की
बातें हैं जो धमव के शुद्ध अथव में त्रबल्कुल अनार्श्यक हैं। सभी धमों के कट्टर और अनुदार अनुयायी भूल जाते हैं
कक धमव की शुष्क अत्स्थयाां सारहीन हैं, महवर् तो केर्ल उस भार्ना का है जो उन अत्स्थयों में प्राण-प्रततष्ठा
करती है । (पष्ृ ठ 12)। सर अहमद हुसेन ने इस्लाम और उस धमव का अन्तर प्रकट करने का उद्योग ककया है त्जसे
कुछ मौलर्ी कट्टरता के साथ प्रततपाददत करते हैं। 'मैं इस्लाम को मुहम्मदी-धमव से पथ
ृ क् मानता हूां। मुहम्मदी-
धमव र्ास्तवर्क और शुद्ध इस्लाम नहीां है । र्ह इस्लाम की आत्मा को भूल गया है और केर्ल उसके तनयमों की
शब्दार्ली को याद ककये हैं' (पष्ृ ठ 12 दटप्पणी 'क') ।
जब हम धमव के अनभ
ु र्-गम्य पहलू पर वर्चार करते हैं तो हम दे खते हैं कक सभी मतों के सचमच
ु धाभमवक
व्यत्क्कत एक-दस
ू रे के उससे कहीां अधधक तनकट हैं त्जतना कक र्े समझते हैं। दहन्द-ू धमव की उदारता के अनुरूप
हमारे लेखक ने स्र्ीकार ककया है कक सभी धमों का आधार-सत्य एक है और उसने जलालद्
ु दीन रूमी के इस र्ाक्कय
को अपने मत की पत्ु ष्ट में उद्धत
ृ ककया है - 'सभी धमों में मौभलक एकता है ।''47 भारतीय मस
ु लमान के भलए
पथ
ृ क्ककरण की भार्ना को हृदयांगम करना असम्भर् है यद्यवप सेमेदटक धमों की यह एक प्रमुख वर्भशष्टता है ।
भारतर्र्व अपने इततहास के आदद काल से धाभमवक स्र्तन्िता और धाभमवक सद्भार्ना का समथवक रहा है । इसी
भार्ना के अनुरूप अकबर महान ् ने सभी भारतीयों को एक ऐसे धमव के सूि में बाांधकर, त्जसकी कियाओां में
मुसलमान और दहन्द ू एक-दस
ू रे से सहयोग कर सकें, एक सस
ु ांगदठत राष्र में पररणत करने का उद्योग ककया था
यद्यवप उस समय की त्स्थतत की प्रततकूलता के कारण र्ह अपने उद्दे श्य में सफल नहीां हो सका। उपतनर्दों की
आदशवर्ाददता से प्रभावर्त होकर, त्जसमें मतू तवपूजा और अन्धवर्श्र्ास के भलए कोई स्थान नहीां है और जो इस
कारण सांसार के सभी लोगों को स्र्ीकायव हो सकती है , अकबर के प्रपौि द्र्ारा भशकोह ने 'मजमए
ु बहरै न' (अथावत ्
इस्लाम और दहन्द-ू धमव के सागरों का सत्म्मलन) नामक पस्
ु तक की रचना की। उसने स्र्ीकार ककया कक दोनों ही
धमव उच्च जीर्न का मागव ददखाने की पूरी िमता रखते हैं। सर अहमद हुसेन का वर्श्र्ास है कक हम वर्भभन्न
मागों का अनस
ु रण करते हुए भी समान मत्ु क्कत-पद की प्रात्प्त कर सकते हैं। 'कृपया यह न भभू लए, मनष्ु य अनेक
हैं और मत्स्तष्क भी अनेक हैं; अतः त्जतने वर्चारशील मत्स्तष्क हैं उतने ही वर्भभन्न धमव, ईश्र्र-सम्बन्धी
वर्भभन्न मत, उसके गण
ु ों की वर्भभन्न कल्पनाएां और सत्ृ ष्ट तथा प्रलय की उतनी ही धारणाएां सम्भर् हैं' (पष्ृ ठ
24)। जो लोग मस
ु लमानों के आचारों से पररधचत हैं, उनके भलए शायद यह वर्श्र्ास करना कदठन होगा कक
उपयुक्क
व त मत कुरान की भशिाओां के अनुकूल है ; ककन्तु यह ठोस सत्य है । यह भ्राांततमूलक वर्श्र्ास कक इस्लाम के
अततररक्कत और कोई सच्चा धमव नहीां है , कट्टरता, असहनशीलता और धमावन्धता का सज
ृ न करता है और कुरान
की भशिाओां के वर्रुद्ध है । 'कुरान की दस
ू री सरु ा का पहला खण्ड हमें स्पष्ट आदे श दे ता है कक न केर्ल उसमें
वर्श्र्ास करो जो मुहम्मद को व्यक्कत ककया गया था र्रन ् उसमें भी वर्श्र्ास करो जो मुहम्मद के पूर्र्
व ती सन्तों के
47
महनईर, तत
ृ ीय, पष्ृ ठ 12
भारत की अन्तरात्मा 41
द्र्ारा प्रकट ककया गया है । यह स्पष्टतः इस बात का प्रमाण है कक आज भी कई सच्चे धमव हैं और भवर्ष्य में भी
अनेक सच्चे धमव रहें गे त्जनमें इस्लाम केर्ल एक होगा और है । (पष्ृ ठ 40-4)।'48
मुहम्मद की धाभमवक प्रततभा इसी से स्पष्ट है कक उन्होंने कोई सैद्धात्न्तक परीिण नहीां रखा। उनके
र्ाक्कयों के सांग्रह में प्रायः सर्वप्रथम र्ाक्कय है - 'जो व्यत्क्कत कहता है कक अल्लाह के अततररक्कत कोई दस
ू रा दे र्ता
नहीां है , र्ह तनश्चय ही मोि प्राप्त करे गा।' मुहम्मद ने ईसाई और यहूदी धमों के पथ
ृ क्कत्र् की नीतत का वर्रोध
ककया है और कहा है कक र्े सभी लोग मोि के अधधकारी हैं जो ईश्र्र में वर्श्र्ास करते हैं और उनके भसर्ा कोई भी
स्र्गव में प्रर्ेश न पा सकेगा.... यदद यह सच है तो इसका प्रमाण दीत्जए। नहीां, र्ह हो ईश्र्र की ओर आकृष्ट होता
है और उधचत कायव करता है , ईश्र्र की कृपा प्राप्त करे गा।' (सुरा पांचक 105 - 106 ) । 'सचमुच मुसलमान और र्े
जो यहूदी, ईसाई अथर्ा सबाई हैं अथर्ा जो भी ईश्र्र में अत्न्तम ददन में वर्श्र्ास करता है और र्ह कायव करता है
जो ठीक है .... उनको ईश्र्र की कृपा प्राप्त होगी, उनको न ककसी र्स्तु का भय होगा और न उनको कोई दःु ख
होगा।' (सुरा पांचम 69)। वर्मल अन्तरद्दत्ष्ट के कारण मह
ु म्मद ने आचार को वर्चार की अपेिा अधधक महवर्
ददया है । प्रत्येक धमव जो नेकी के बढ़ाने में सहायक होता है , उनके भसद्धान्त चाहे जो हों, स्र्ीकार करने योग्य है;
क्कयोंकक यदद हम ईश्र्रे च्छा का पालन करें गे तो हमें धमव के भसद्धान्त भी मालम
ू हो जाएांग।े 'हमने प्रत्येक को एक
तनयम और एक मागव बताया है और यदद ईश्र्र की इच्छा होती तो र्ह सबको एक धमव को अनुयायी बना सकता
था। परन्तु उसने ऐसा नहीां ककया ताकक र्ह तुम सबकी उस मागव में परीिा कर सके जो उसने अलग-अलग तम
ु
सबको बताया है । इसभलए अच्छे कायों में तनष्ठा बढ़ाओ। तुम्हें ईश्र्र के पास लौटकर जाना है और र्ह तुम्हें
48
जलालुद्दीन रूमी की मनसर्ी पांत्क्कतयों का तनम्नाांककत साराांश व्यक्कत करता है कक हमें तनम्न कोदट की उपासना-
वर्धधयों से क्कयों सहानुभूतत रखनी चादहए और उनकी सदाशयता में वर्श्र्ास करना चादहए-'मूसा ने एक ददन ग्रीष्म ऋतु में
एक वर्क्षिप्त गडररये को ईश्र्र की प्रततष्ठा पर आिेप करते हुए प्राथवना करते सुना और र्ह घबरा उठा, क्कयोंकक गडररया कह
रहा था, 'परमात्मा, कैसा अच्छा होता कक मैं जान पाता कक तू कहाां है ताकक मैं तेरी सेर्ा कर सकता, तेरे बालों में कांघी कर
दे ता, तेरे जूतों की भमट्टी झाड दे ता, तेरे कमरे में झाडू लगा दे ता और तेरे भलए तनत्य प्रातःकाल दध
ू और शहद ले आया
करता।' मूसा ने कहा, 'अरे अधमी। र्ाग्धारा को रोक ! तू ककससे बातें कर रहा है ? क्कया तू सर्वशत्क्कतमान ् परमेश्र्र अल्ला के
प्रतत यह कह रहा है ? क्कया तू समझता है कक उसे तेरी मूखत
व ापूणव सेर्ा की आर्श्यकता है ? क्कया तू सभी सीमाओां का उल्लांघन
कर जाएगा? कुकमी! चेत जा, ताकक त्रबजली न फटे और हम सब तेरे कारण वर्नाश को प्राप्त न हों। र्ह तो त्रबना आांखों के
दे खता है , त्रबना कानों के सन
ु ता है , न उसके कोई बेटा है , न स्िी, न र्ह ककसी स्थान में बन्द है और न र्ह समय के अन्तगवत
है । उस पर यदद कोई सीमाएां कुछ प्रभार् रखती हैं तो र्े प्रकाश और प्रेम।' लत्ज्जत होकर बेचारे गडररये ने अपना कपडा फाड
ददया। उसका सभी धमवर्श नष्ट हो गया और र्ह दहम्मत हारकर चल ददया। तब ईश्र्र ने मूसा ने कहा, 'तूने मेरी प्रततष्ठा
की रिा करने के बहाने मेरे एक सेर्क को दःु खी करके क्कयों भगा ददया है । ये जल्दबाज, मैंने मुझे लोगों को अलग करने र्ाली
नहीां र्रन ् भमलानेर्ाली भशिा दे ने के भलए भेजा था। मुझे जो सबसे अधधक नापसांद है , र्ह है त्रबलगार् और पररत्याग। सबसे
बरु ी बात है ककसी को बलपर्
ू कव ककसी मागव पर चलर्ाना। मैंने व्यत्क्कतगत लाभ के भलए सत्ृ ष्ट नहीां की थी र्रन ् मेरा उद्दे श्य
यह था कक जीर्न मुझसे भमलने की महत्ता को समझ सके। यदद कोई बचपन की बात करे तो इससे क्कया होता है ! मैं तो केर्ल
हृदय की परख करता हूां कक उनमें मेरे भलए वर्शुद्ध प्रेम है कक नहीां।'
क्कलाड फील्ड द्र्ारा वर्रधचत 'इस्लाम के सांतों और सूकफयों' से उद्धत पष्ृ ठ 154
भारत की अन्तरात्मा 42
उसका ज्ञान प्रदान करे गा त्जसके वर्र्य में तुममें मतभेद है।' (सुरा पांचम, 48)।49 कुरान के अनुसार मुसलमान र्े
हैं, 'जो नैततक आचरण में वर्श्र्ास रखते हैं और अपने जीर्न में नैततक आचरण का पालन करते हैं। र्े सब लोग
मुसलमान है , 'जो ईश्र्र में आस्था रखते हैं और अच्छे काम करते हैं ।'50 इसी दृत्ष्टकोण से अभी दहज हाइनेस दद
आगा खाां ने कहा था कक महत्मा गाांधी मुसलमान हैं। ईसा ने भी यह नहीां कहा था कक 'तम
ु उनकी पहचान उनके
वर्श्र्ासों से कर सकोगे' बत्ल्क यह कक 'तुम उनके कायों से उनकी पहचान कर सकोगे।' और पीटर ने भी ठीक ही
कहा है - 'मझ
ु े यह सत्य प्रतीत होता है कक ईश्र्र व्यत्क्कत वर्शेर् की चाह नहीां करता, र्रन ् प्रत्येक राष्र और जातत
में जो उससे डरता है और आचरण शुद्ध रखता है , उसे र्ह स्र्ीकार करता है ।'51
सर अहमद हुसेन ठीक ही कहते हैं कक 'इस्लाम और ईसाई धमव अथर्ा ककसी दस
ू रे सत्य धमव में कोई
र्ैर्म्य नहीां है ' क्कयोंकक सभी धमों का सार यही है कक हम सब ईश्र्र के पुि हैं और आपस में भाई-भाई हैं। केर्ल
रूदढ़-प्रधान सम्प्रदाय ही एक-दस
ू रे के वर्रोधी हैं। ईसा का धमव मह
ु म्मद के धमव से समता रखता है; परन्तु जब सेंट
पॉल कहते हैं कक ईसा को मसीह और मनुष्यों के बीच में ईश्र्रर्त ् मानो-जो एक ऐसी बात है त्जसका समथवन
करते सभी वर्चारशील ईसाई दहचकते हैं-जो ईसाई धमव इस्लाम का वर्रोधी हो जाता है और मुसलमान की
स्र्ाभावर्क इच्छा होती है कक र्ह ईसा के सम्बन्ध में कही जानेर्ाली बात को मह
ु म्मद के वर्र्य में कहे । इस्लाम
के पि में यह बात कहनी ही पडेगी कक उसमें मुहम्मद के वर्र्य में जो कहा गया है , र्ह अधधक युत्क्कतसांगत प्रतीत
होता है । र्ह उसे ईश्र्र का दत
ू मानता है त्जसने मनुष्यमाि के एक बडे भाग के धमव का सांशोधन ककया। इस
सबके होते हुए भी र्ै केर्ल मनुष्य के समान पाप कर सकते थे और अल्लाह की दया के इतने ही भूखे थे। 'यह न
इस्लाम है और न ईमान कक मुहम्मद ईश्र्र थे अथर्ा ईश्र्र के समान थे। यद्यवप कुछ मौलवर्यों ने यह भसद्ध
करने का प्रयत्न ककया है और कहा है कक अहमद के स्र्रूप में र्ही अहद (अथावत ् एक) है । हमारे पैगम्बर ने खुद
कभी अपने को मनुष्य से बढ़ाकर नहीां बताया (पष्ृ ठ 48)।' मह
ु म्मद ने कहा है - 'ईश्र्र ने मझ
ु े चमत्कार ददखाने के
भलए नहीां भेजा है । उसने मझ
ु े तम्
ु हें धमव की भशिा दे ने के भलए भेजा है । मैंने यह कभी नहीां कहा कक अल्लाह की
दे नें मेरे हाथ में है , अथर्ा मैं गप्ु त बातों को जानता हूां, या मैं कोई फररश्ता हूां। मैं तो एक ऐसा व्यत्क्कत हूां जो त्रबना
अल्लाह की मजी के न अपनी मदद कर सकता है और न अपने ऊपर भरोसा कर सकता है ।' (सुरा सिहर्ीां, 95-98,
बहत्तरर्ीां 21-24)। तो भी उनके प्रारत्म्भक अनय
ु ातययों का उत्साह और भत्क्कत ऐसी थी कक मह
ु म्मद के सम्बन्ध में
अनेक धाभमवक तथा चमत्कारक कहातनयाां प्रचभलत हो गईं। कहा जाता है कक त्जस ददन पैगम्बर का जन्म हुआ
उस रात को िास रोज का महल भूचाल के कारण धगर गया, पारभसयों की पवर्ि आग बझ
ु गई, सार्ा झील सख
ू
गई, दजला नदी में बाढ़ आ गई और सांसार-भर की मतू तवयाां मांह
ु के बल जमीन पर धगर पडी। सौभाग्यर्श इन
कहातनयों ने कभी पवर्ि धमवकथाओां का रूप ग्रहण नहीां ककया। उनके प्रारत्म्भक अरब-अनुयायी इतने जागरूक
और वर्चारशील थे कक उन्होंने मुहम्मद की रातोरात यरूशलम की यािा और ईश्र्र का मक्कका के तनकट उन्हें
अपना पैगम्बर कहकर सम्बोधधत करना आदद कहातनयों को भी इस्लाम में र्ह महवर् प्राप्त न करने ददया जो
49
एकतीसर्ीां 46, तैंतीसर्ीां 23-24, उनतालीसर्ीां 41, चालीसर्ीां 13 भी दे खखए।
50
प्राथवना-सांगीत ।
51
कायव दशम 34-35
भारत की अन्तरात्मा 43
ईसाई धमव में ईसा के पुनरुज्जीवर्त होने और आकाश-मागव से उडते चले जाने को प्राप्त है । उनको मसीहा को
श्रद्धास्पद स्थान भी नहीां भमलता। इस सम्बन्ध में र्हाबी-आन्दोलन को दे खखए त्जसका भसद्धान्त है कक ईश्र्र
की उपासना के भलए केर्ल उसके सम्मख
ु भसजदा करना पयावप्त है । उसके तनकट ककसी सहायक को बुलाने की
भार्ना मूततव-पूजा के समान है और सबसे अधधक पण्
ु य का काम यह होगा कक मुहम्मद की कब्र और इमामों की
दरगाहों को पण
ू त
व ः नष्ट कर ददया जाय।
अब हम इस्लाम के भसद्धान्तों पर वर्चार करके दे खें कक क्कया ईश्र्र की कल्पना दहन्द-ू दृत्ष्टकोण से
मौभलकरूप में भभन्न है? यद्यवप सभी धमव ईश्र्र की सत्ता में वर्श्र्ास करते हैं तो भी त्जस रूप में ईश्र्र की पूजा
की जाती है उसी के आधार पर धमों में वर्भभन्नता आ जाती है । दहन्दओ
ु ां के अनुसार ईश्र्र की रहस्यमयी सत्ता का
आभास ककन्हीां शब्दों से व्यक्कत नहीां ककया जा सकता। ईश्र्र की कोई बौद्धधक पररभार्ा नहीां दी जा सकती; हाां,
उसको आत्मा के सहारे अनुभर् ककया जा सकता है । यदद पररभार्ा दे ना ही पडे तो हम उन साधनों का उपयोग
52
'इस्लाम की अन्तरात्मा,' लेखक-अमीर अली, 212
53
कलकत्ता ररव्यू, मई, 1923
54
एभशया, ददसम्बर, 1922
भारत की अन्तरात्मा 44
ककये त्रबना नहीां रह सकते जो हमें उपलब्ध हैं। हम अपनी चेतना-शत्क्कत से पररधचत हैं, इसभलए हम ईश्र्र की
प्रर्वृ त्त की व्याख्या इसी की समानता के सहारे करते हैं। ईश्र्र दै र्ी सत्ता है त्जसमें सत्य, स्नेह और पूणत
व ा अथर्ा
ज्ञान, सौन्दयव और शत्क्कत के तीनों गुण र्तवमान हैं। अथर्ा यों कदहये कक उसमें चेतन-जगत ् की ज्ञान, भार्ना
तथा चेष्टा से सम्बत्न्धत तनस्सीमता, सौन्दयव और राजसत्ता नामक गण
ु वर्द्यमान हैं। दहन्दओ
ु ां के त्रिमूततव की
कल्पना ईश्र्र की प्रर्वृ त्त के इन्हीां तीनों पिों को व्यक्कत करती है । ब्रह्मा के स्र्रूप में ईश्र्र सज
ृ न करता है , वर्ष्णु
के रूप में पालता है और भशर् के रूप में न्याय करता है । सत्ृ ष्ट करने में; ब्रह्मा ईश्र्र के आदशवस्र्रूपों का सहारा
लेता है । उसकी असीम बुद्धध का पररचय उस असीम सांसार से भमलता है जो है , था और भवर्ष्य में भी रहे गा।
असीम शत्क्कत और वर्श्र्-शासक के हृदय में स्नेह का प्रतीक वर्ष्णु है , र्ह हमें बुराइयों का सामना करने में
सहायता दे ता है और ऊपर उठने में सहयोग करता है । भशर् न्यायाधीश के समान हैं त्जनकी शत्क्कत असीम है 'जो
कुछ भी कर सकते हैं अथर्ा त्रबना ककये छोड दे सकते हैं अथर्ा त्जस प्रकार उसे करना चादहए, उससे भभन्न ढां ग से
कर सकते हैं।"55 दहन्द,ू ईश्र्र को चाहे त्जस नाम से पक
ु ारे परन्तु र्ह उसमें ज्ञान, प्रेम और जीर्न की सामदू हक
कल्पना अर्श्य करता है । सर अहमद हुसेन का वर्श्र्ास है कक सभी धमव एक ही सत्ता में वर्श्र्ास करते हैं- 'एक
और केर्ल ईश्र्र जो असीम सर्ोपरर, अनादद, अनन्त और पूणत
व ः स्र्च्छन्द है । उसी असीम और सर्ोपरर सत्ता
को वर्भभन्न भार्ाओां में यज़्द, ईश्र्र, जेहोर्ा, गॉड, अल्लाह आदद कहा गया है ।'
55
कतुम्
व कतव अन्यथाकतम
ुव ्
56
'इस्लाम की अन्तरात्मा', पष्ृ ठ 416 में उद्धत
भारत की अन्तरात्मा 45
अत्न्तम तनणवय के समय का न्यायाधीश है ।' र्ैष्णर्-धमव और इसाई धमव ईश्र्र की प्रेममयी कल्पना पर सबसे
अधधक बल दे ते हैं; परन्तु यहूदी और ईस्लाम धमों में ईश्र्र की शत्क्कत को बहुत महवर् ददया गया है । ईश्र्र
सर्ोच्च शत्क्कत और सर्वकालीन न्यायाधीश है । मुहम्मद अांततम तनणवय के ददन का बहुधा त्जि करते हैं जबकक
आकाश और पथ्
ृ र्ी मोड दी जाएगी, ईश्र्र के अततररक्कत कोई पास नहीां होगा और प्रत्येक व्यत्क्कत के पाप-पुण्यों
का लेखा-जोखा प्रधान न्यायाधीश ईश्र्र के सम्मख
ु होगा। ईश्र्र की दस
ू री वर्शेर्ताओां की अर्हे लना नहीां की गई
है । ईश्र्र केर्ल न्यायी ही नहीां र्रन ् र्ह 'पापों को िमा करनेर्ाला और प्रायत्श्चत को स्र्ीकार करनेर्ाला भी है ।'
(सुरा चालीसर्ीां, 1-2)। र्ह भल
ू े हुए लोगों का पथ-प्रदशवक और सभी सन्तापों से मुत्क्कत दे ने र्ाला है त्जसका स्नेह
'पिी के अपने बच्चे के प्रतत स्नेह से भी अधधक कोमल है ।57 ईश्र्र का स्नेह प्रकट करने र्ाले र्ाक्कय अनेक स्थलों
पर आते हैं- 'हे ईश्र्र! मझ
ु पर दया कर, क्कयोंकक तू दया करने र्ालों में सबसे श्रेष्ठ है ' (सरु ा बाईसर्ीां, 118 ) । 'क्कया
र्ह अधधक सम्मान के योग्य नहीां है जो दखु खयों की पुकार सन
ु ता है , उनके दःु खों को दरू करता है और तुम्हें तुम्हारे
पूर्ज
व ों का उत्तराधधकारी बनाता है ?' (सुरा सत्ताईसर्ीां, 62)। 'ईश्र्र से िमा माांगो और उसकी ओर आकृष्ट हो।
सचमच
ु ईश्र्र दयालु और स्नेहशील है ' (सरु ा ग्यारहर्ीां, 90)। 'कह दो कक ऐ मेरे बन्दो, तम
ु ने तनयमों का उल्लांघन
करके अपने को ही हातन पहुांचाई है ; परन्तु तुम तनराश न हो, क्कयोंकक ईश्र्र सभी पापों को िमा करता है । र्ह
कृपालु और दयालु है ।' (सुरा उन्तालीसर्ीां, 53)। अरव हमान शब्द, त्जससे कुरान का प्रत्येक पररच्छे द प्रारम्भ होता
है , इस बात का द्योतक है कक दै र्ी प्रेम का अांचल सभी जगत ् के ऊपर का परदा हट जाता है और र्ह ईश्र्र के
तनकट पहुांच जाता है । ईश्र्र सांसार का सष्ृ ट तथा पालक भी है । र्ह राग-द्र्ेर्हीन दरू स्थ दे र्ता से अधधक
इततहास और प्रकृतत में व्याप्त सत्ता है । ईश्र्र पूरब और पत्श्चम दोनों ओर है । इसभलए तुम चाहे त्जस ओर मुख
करो, तम्
ु हें ईश्र्र का स्र्रूप ददखाई पडेगा। (प्रथम, 115)। 'और र्ह तम्
ु हारे ही भीतर है , र्ह तुम्हें क्कयों नहीां ददखाई
पडता है ?' (इक्कयार्नर्ीां, 21)। 'हम शीघ्र ही सभी स्थानों में और उनकी आत्माओां में ही अपने प्रकाश को प्रकट
करें ग,े यहाां तक कक उनको वर्ददत हो जाय कक यह सत्य है । (बारहर्ीां, 53)। इस भाांतत कताव, पालक और न्यायी के
गुण ईश्र्र में प्रततपाददत हैं और उसको त्रिमूततव की कल्पना से बचाने र्ाली बात केर्ल यही है कक उसकी एकता
पर सभी स्थलों में बल ददया गया है ।
57
इस्लाम की अन्तरात्मा,' पष्ृ ठ 150-157
भारत की अन्तरात्मा 46
के भलए सचेष्ट रहते हैं। चाहे हम ज्ञान-मागव का सहारा लें, चाहे भत्क्कत का और चाहे कमव-मागव का; ककन्तु उद्दे श्य
और पररणाम एक ही रहता है ।
इस्लाम में नैततकता का आदशव काफी ऊांचा है । यदद हमें उन्नतत में रहनेर्ाले वपता के योग्य बनना है , तो
हमें ऐसा कोई कायव नहीां करना चादहए त्जससे मनष्ु य की दै र्ी उत्पवत्त पर शांका उत्पन्न हो। सच्ची धाभमवकता के
वर्कास के भलए मुहम्मद ने रोजा, नमाज, जकात (दान), हज्ज (मक्कका की धमव-यािा) और आचरण की शद्
ु धता
पर बल ददया है । दान दे ना सभी के भलए अतनर्ायव है । अततधथ-सेर्ा धमव का अांग बन गया है । अव्यभभचार को एक
वर्शेर् गण
ु माना गया है । शराब के नशे में मस्त हो जाना, जआ
ु खेलना तथा अन्य अनधु चत कायों की भत्सवना की
गई है । धमव का सार नैततक आचरण ही है । 'जो भोग-र्ासनाओां और ददखार्े से बचते हैं, दान दे ते हैं, प्राथवना करते
हैं, अपने र्ादों और उत्तरदातयत्र् को तनभाते हैं, र्े सनातन सुख के अधधकारी होंगे।' (सुरा तेईसर्ीां, 8) 'जो
मस
ु लमान नांगों को कपडे दे ता है , उसे ईश्र्र जन्नत में हरे र्स्ि पहनायेगा।"58 आदम के पि
ु इब्रादहम की कहानी,
त्जसके आधार ले हण्ट ने, अबू त्रबन आघम' कवर्ता भलखी है, यही भशिा दे ती है कक मनुष्यों का दहतैर्ी ईश्र्र का
दहतैर्ी है । साधारण मुसलमान चाहे जो कुछ करता हो परन्तु इस्लामधमव जीर्धाररयों की ओर से उदासीन नहीां है ,
र्रन ् बह उनके जीर्न की पवर्िता पर बल दे ता है । 'सांसार में सभी जानर्र और सभी पिी उसी प्रकार जीर्धारी हैं
जैसे कक तुम और अन्त में र्ह भी ईश्र्र में ही लीन होंगे ।'59 जानर्रों की कुरबानी के सम्बन्ध में भारतीय
मुसलमानों को कुरान की ये पांत्क्कतयाां स्मरण रखनी चादहए- 'ईश्र्र उस जीर् के खून अथर्ा माांस से सन्तुष्ट नहीां
होता त्जसकी तुम कुरबानी करते हो, र्रन ् र्ह तुम्हारी धमव-तनष्ठा से सन्तष्ु ट होता है ।' (सरु ा बाईसर्ीां, 36)। िमा
कर दे ना और वर्रोध न करना इस्लाम-धमव के अन्तगवत नहीां समझे जाते। इस सम्बन्ध में कुरान के तनम्नाांककत
अर्तरणों पर ध्यान दे ना उपयोगी होगा- 'बुराई का बदला उस र्स्तु से दो जो बेहतर है ।' (सुरा इकतालीसर्ीां, 34 )
। स्र्गव का र्णवन करते हुए मह
ु म्मद ने कहा- 'यह उन भले लोगों के भलए है जो समद्
ृ धध और तनधवनता की दशा में
भी दान दे ते हैं जो िोध को र्श में रखते हैं, मनष्ु य के प्रतत िमा का व्यर्हार करते हैं; क्कयोंकक परमात्मा नेकी
करनेर्ालों से ही स्नेह करता है ।' (सुरा बयालीसर्ीां, 7)। भोजन, तलाक आदद से सम्बन्ध रखनेर्ाली छोटी-छोटी
बातों का इस्लाम-धमव से कोई सीधा सम्बन्ध नहीां है । यद्यवप मुहम्मद ने अपने समय को ध्यान में रखते हुए
उनके वर्र्य में भी कुछ आदे श ददये हैं लेककन उनमें कोई वर्शेर् धाभमवकता का पट
ु नहीां। जैसा कक माननीय श्री
अमीर अली कहते हैं- 'खाने-पीने से सम्बन्ध रखनेर्ाली आज्ञाएां, अथावत ् वर्धध-तनर्ेध, मुहम्मद साहब ने प्रचाररत
अर्श्य ककये हैं; ककन्तु इस बात का स्मरण रखना चादहए कक र्े उस समय की अस्थायी त्स्थतत के अनक
ु ू ल थे।
उन पररत्स्थततयों के न रहने पर उन तनयमों की आर्श्यकतों भी नष्ट हो गई है । इसभलए यह धारणा बनाना कक
इस्लाम की प्रत्येक भशिा अतनर्ायवतः, अपररर्तवनीय है , मनुष्य की बुद्धध के वर्कास और इततहास के साथ
अन्याय करना है ।' पैगम्बर साहब ने मनुष्य की बुद्धध को अांधाधुन्ध आदे शों की चेरी बनाने की भशिा नहीां दी।
जो धमव साधारण बद्
ु धध के आधार पर सभी ददशाओां में प्रभावर्त हुआ है , र्ह आजकल की दतु नया में अमानवु र्क
कृत्यों का समथवन नहीां बनाया जा सकता। भारतीय मुसलमान आचायों के नेताओां को यह तनत्श्चत करना पडेगा
58
'इस्लाम की अन्तरात्मा', पष्ृ ठ 54।
59
र्ही, पष्ृ ठ 158
भारत की अन्तरात्मा 47
अत्न्तम तनणवय के ददन र्े लोग, त्जन्होंने कुरान की भशिाओां की अर्हे लना की है , बडे सांकट का अनभ
ु र्
करें गे और त्जन्होंने उनके अनुरूप अपने जीर्न को ढाला है , र्े ईश्र्र में लीन हो जायेंगे। मुहम्मद का बदहश्त में
जाना इस बात का प्रतीक है कक ससीम और असीम का सांयोग होना सांयोग है । सूफी मत का कथन है कक मनष्ु य-
जीर्न का चरम उद्दे श्य ईश्र्र में फना (लीन) हो जाना है , क्कयोंकक जो ईश्र्र का दशवन कर लेता है र्ह ईश्र्रर्त ् हो
जाता है । मनुष्य त्जन दशाओां में होकर ईश्र्रवर् प्राप्त करता है उनको जलालद्
ु दीन रूमी द्र्ारा इस भाांतत र्णवन
ककया गया है -
'तनजीर् पदाथव से पहले हम र्नस्पतत-जगत ् में प्रवर्ष्ट हुए, उससे उठकर हम जीर्धारी हुए और उसमें
भी उन्नतत करने पर हम मनष्ु य हुए। तब कफर क्कया भय है कक मत्ृ य हमें तनम्नतर कोदट में धगरा दे गी अगले जन्म
में हम फररश्ते होंगे और उस दशा से उन्नतत करके हम नामहीन परमेश्र्र में लीन होंगे। सभी सत्ृ ष्ट पुकारकर कह
रही है -'हम लौटकर ईश्र्र में ही लीन होंगे।'
जीर्न का ध्येय ईश्र्र में लीन होना ही है । अल हजर्ीरी नामक सूफी कहता है - 'जब मनष्ु य अपने गुणों
से परे हो जाता है , तो र्ह पण
ू त
व ा को प्राप्त कर लेता है । उस समय र्ह न तो तनकट होता है और न दरू , न भलप्त
और न वर्लग, न उन्मत्त और न सुबोध, न घतनष्ठ और न अपररधचत; उस समय उसका न कोई नाम रहता है , न
तनशान।'60 यद्यवप सूकफयों के अनुसार जीर्न का रोचक और स्र्ाभावर्क र्णवन करती है जो मुक्कतात्माओां को
प्राप्त होता है । इस जीर्न के र्णवन बहुत ही र्ास्तवर्क प्रतीत होते हैं और 'कुछ-कुछ श्रांग
ृ ारपूणव भी; परन्तु उनको
शात्ब्दक अथव में सत्य मानना भल
ू होगी। 'ऐ शान्त जीर् ! अपने स्र्ामी के पास र्ापस जा, प्रसन्न हो और उसे
प्रसन्न कर। आ, मेरे सेर्कों में सत्म्मभलत हो और मेरे आनन्द कानन में वर्चर' (नर्ाभसर्ीां, 27-30)। यह दोनों
मत र्ेदान्त के अद्र्ैत और आत्स्तक भाष्यकारों के मतों के समान हैं। व्यत्क्कतत्र् का वर्कास पण
ू त
व ा प्राप्त करने
तक रुक नहीां सकता, अस्तु भवर्ष्य में चररि के उत्तरोत्तर वर्कास के भलए अर्सर भमलते रहें गे।
भवर्ष्य हमारे र्तवमान जीर्न पर आधश्रत है । 'भवर्ष्य में प्रत्येक जीर् र्ही भोगेगा त्जसका उसने सौदा
ककया है ' (दसर्ीां, 30)। स्र्गव अथर्ा नरक हमारे कमों का ही फल है । कभी-कभी यह भी कहा जाता है कक ईश्र्र की
अज्ञेय इच्छा ही सबाके प्रेरणा दे ती रहती है । इस्लाम के परर्ती इततहास में ईश्र्र की सर्ोच्च सत्ता और मनुष्य के
उत्तरदातयवर् में साम्य स्थावपत करने की अनेक चेष्टाएां हुई हैं। कुरान में ऐसे स्थल हैं त्जनसे यह ध्र्तन तनकलती
है कक ईश्र्र मनमानी करता है । चूांकक ईश्र्र सभी का स्र्ामी है इसभलए र्ह त्जसे चाहता है , िमा करता है और
त्जसे चाहता है दण्ड दे ता है ' (दस
ू री, 184; तीसरी, 22; पाांचर्ीां, 18 और तेहरर्ीां, 31 भी दे खखए)। 'सचमुच ईश्र्र
60
'इस्लाम की अन्तरात्मा' पष्ृ ठ 172-213
भारत की अन्तरात्मा 48
त्जसे चाहता है भ्रम में डाल दे ता हैं और त्जसे चाहता है उसे प्रायत्श्चत करने पर अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है '
(तेरहर्ीां, 27)। ऐसे भी र्ाक्कय हैं जो मनुष्य के उत्तरदातयत्र् पर जोर दे ते हैं- 'कोई भी जीर् अपने अततररक्कत और
ककसी के भलए पररश्रम नहीां करे गा और न कोई अपने अततररक्कत ककसी दस
ू रे का भार र्हन करे गा' (दस
ू री, 286)।
'जो ककसी पाप का भागी होता है , अपने ही कारण होता है ' (चौथी, तीसरी)। 'जो कोई पथ-भ्रष्ट होता है र्ह स्र्यां ही
अपने भटकने के भलए पण
ू त
व ः उत्तरदायी होता है ' (दसर्ीां, 108)। सर अहमद हुसेन का मत है कक भाग्य और प्रारब्ध
इस्लाम धमव का अांग नहीां है (पष्ृ ठ 12, नोट 'द')। 'रसल
ू ने स्पष्ट भशिा दी है कक पहले हमें अपनी शत्क्कत-भर
उद्योग करना चादहए और तब शेर् ईश्र्र के सहारे छोड दे ना चादहए। हम, सम्भर् है , इस भशिा के पूर्ावद्वध को
भूल जायें और केर्ल उसके उत्तराद्वध को याद रखें; क्कयोंकक र्ह उष्णकदटबन्ध-जन्य आलस्य से मेल खा जाता है ।'
(पष्ृ ठ 62, नोट 'ह')। मनष्ु य तनयतत का खखलर्ाड नहीां है । उसे उधचत अथर्ा अनधु चत मागव के अनस
ु रण की
स्र्तांिता प्राप्त है । ईश्र्र हमें भलाई अथर्ा बुराई करने को बाध्य नहीां करता। र्ह केर्ल सत्य और पवर्िता का
मागव ददखाता है और तनयमों के पालन करने में हमारी सहायता करता है यद्यवप यदद हम उनकी अर्हे लना करते
हैं, तो र्ह हमें दण्ड दे ता है । खलीफा अली का कथन है - 'ऐ खद
ु ा के बन्दो! जो कतवव्य तम्
ु हें सौंपा गया है उसे परू ा
करो, क्कयोंकक उसकी उपेिा करने में पतन है । तम्
ु हारा सदाचरण ही मत्ृ यु का मागव सुगम बना सकेगा। स्मरण
रखो कक प्रत्येक पाप तुम्हारे ऋण को बढ़ाता है और तुम्हारे पाश को दृढ़तर बनाता है । दया का सन्दे ह आ गया है ,
सत्य का मागव स्पष्ट है , तम्
ु हें जो आज्ञा दी गई है उसका पालन करो, पवर्िता के साथ रहो, धमवरत होकर कायव
करो और ईश्र्र की अचवना करो कक र्ह तुम्हें प्रत्येक उद्योग में सहायता दे और तुम्हारी वपछली भूलों को िमा
करे ।"61 ईश्र्र की आज्ञाएां अध्यात्म-जगत ् के तनयममाि हैं। ईश्र्र उन्हीां की सहायता करता है जो उसकी अचवना
करते हैं और र्ह अपनी दया उसी को प्रदान करता है जो पापी प्रायत्श्चत करता और अपनी आत्मा को अपवर्ि
र्ासनाओां से मुक्कत करने की कामना करता है । खलीफा अली ने कहा है - 'यह न कहो कक मनुष्य बाध्य है क्कयोंकक
इसका अथव है ईश्र्र में तनरां कुश अत्याचार का प्रततपादन करना; न यही कहो कक मनुष्य को पूणव स्र्तन्िता है ।
यह कहना अधधक उधचत होगा कक हम उसकी कृपा और सहायता से अच्छे कायव करने के भलए अग्रसर होते हैं और
हम भल
ू केर्ल इस कारण करते हैं कक हम उसके आदे शों का ध्यान नहीां रखते।"62
इस्लाम रहस्यवर्हीन धमव है। इसकी सादगी में ही इसकी शत्क्कत और सन्
ु दरता है । यहाां न तो र्े
बारीककयाां हैं त्जनमें धमव-पापों को वर्शेर् रुधच होती है , न र्े उलटबाभसयाां हैं त्जनको दै वर्कता का लिण माना
जाता है और न अध्यात्म की डीगें ही हैं। यह एक प्रकृतत के सहारे चलने र्ाला धमव है त्जसका मूल भसद्धान्त यह है
कक ईश्र्र सभी र्स्तओ
ु ां को बनाता, पालता, र्श में रखता और पण
ू त
व ा प्रदान करता है । यह उच्च ईश्र्रर्ादी धमव
सरल धचत और सीधे-सादे व्यत्क्कतयों के भलए बहुत ही उपयक्क
ु त है । जहाां तक सांस्थाओां का सम्बन्ध है , यह पण
ू त
व ः
युत्क्कतयुक्कत है । इसमें न जातत है न पुरोदहत, इसमें न बभलदान की आर्श्यकता है न ककसी पद्धतत वर्शेर् की और
न ककसी रूदढ़प्राप्त उपासना-वर्धध की जो मन को एक ईश्र्र की कल्पना से वर्चभलत कर दे । मक्कका और काबा की
यािा ही एक बाह्य साधन है त्जसपर मुहम्मद ने जोर ददया है और र्ह भी एक वर्शेर् सवु र्धा की दृत्ष्ट से। प्राथवना
61
'इस्लाम की अन्तरात्मा', पष्ृ ठ 409
62
र्ही पष्ृ ठ 410
भारत की अन्तरात्मा 49
के समय मुसलमान मक्कका की ओर मुख करता है , क्कयोंकक र्ही र्ह ओजस्र्ी केन्द्र है जहाां मुहम्मद की भशिा का
पहले-पहल प्रचार ककया गया था (सुरा दस
ू रा, 139-144)। मक्कका की ओर ध्यान लगाने से मुसलमान को यह
अनुभर् करने में सहायता भमलती है कक र्ह एक सम्प्रदाय का सदस्य है जो मुहम्मद को दत
ू मानने में एक मत है
और त्जसके सभी सदस्य समान आकाांिाओां से पण
ू ,व समान र्स्तुओां के प्रतत श्रद्धालु और आदशों के उपासक हैं।
व्यर्हार-िेि में इस्लाम की वर्शेर्ता उसका प्रजातांिर्ाद है । यही उसके धमव-पररर्तवन कराने के प्रचार में सफलता
की कुञ्जी है । यह अपने वर्स्तत
ृ प्राांगण में प्रत्येक रां ग और जातत के व्यत्क्कत को आमत्न्ित करता है । उसका
वर्श्र्ास है कक ईश्र्र के सेर्क बनने की िमता सभी में है ।
'प्रत्येक मनुष्य की आत्मा में ईसा तछपे हुए हैं चाहे तुम उनकी सहायता करो चाहे उनका अर्रोध, चाहे
तम
ु उनको कष्ट पहुांचाओ अथर्ा उनके घार्ों का उपचार करो। यदद तम
ु ककसी भी मनष्ु य पर पडे हुए पदे को हटा
दो तो तुम तनश्चय ही उसके नीचे ईसा को तछपा हुआ दे खोगे।''63
मुसलमान 'तवर्मभस' के तनष्कर्व को तनभवय होकर स्र्ीकार करता है और कम-से-कम मत्स्जद में
मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद-भार् नहीां रखता। ईश्र्र की दृत्ष्ट में मनुष्यमाि की समानता के भसद्धान्त की दह
ु ाई
दे ते रहने पर भी यह बात दहन्द ू मत्न्दरों और ईसाई-धगरजाघरों के वर्र्य में नहीां कही जा सकती। हम सब ईश्र्र
की सन्तान हैं और इसभलए आपस में भाई-भाई हैं-इन दो भसद्धाांतों का ध्यान रखते हुए इस्लाम की सरल भशिा,
सांसार के अनेक अन्धकारपण
ू व स्थानों से बबवर कियाओां को हटाने और करोडों व्यत्क्कतयों को उच्चतर जीर्न
त्रबताने की प्रेरणा दे ने की शत्क्कत का प्रदशवन कर चुकी है । इसने वपछडी हुई जाततयों को र्ासनात्मक अनेकेश्र्रर्ाद
की भूल-भूलैया से तनकल आने और शैतान की उपासना, बाल-हत्या, नर-बभल, जाद-ू तांि आदद से बचने में
सहायता दी है । इसका भवर्ष्य भी वर्शाल होगा परन्तु र्ह जब जब कक यह तनस्सांकोच और तनमवम भार् से सभी
नये वर्र्ैले पौधों को काट दे और दै तनक जीर्न में अपने दोनों मौभलक भसद्धान्तों पर आचरण करे ।
इस्लाम के सम्पकव से दहन्द-ू धमव ने समुधचत लाभ नहीां उठाया। यह सत्य है कक चैतन्य, कबीर, नानक
आदद द्र्ारा सांचाभलत सध
ु ार आन्दोलन, इस्लाम की अन्तरात्मा से काफी प्रभावर्त हुए हैं। दहन्द-ू धमव की
अद्र्ैतधारा इस्लाम के प्रचार के बाद और पुष्ट हो गई है ; परन्तु दहन्द-ू धमव सुगमता से काफी और सीख सकता
था। दस
ू रों के धमव को ज्ञान न होना अन्याय और भूल का स्रोत है । कततपय असभ्य मुसलमानों के कायों ने
दहन्दओ
ु ां के भलए इस्लाम के आदशों को समझ सकना असम्भर् कर ददया है । जहाां इस्लाम दहन्द-ू धमव की
सहानुभूततपूणव जानकारी द्र्ारा बहुत सीख सकता है , र्हाां दहन्द-ू धमव को ईश्र्र-सम्बन्धी अपूणव धारणाओां एर्ां
तनम्न कोदट की उपासना-वर्धधयों के प्रतत कम सहृदय होना चादहए और अधधक तनत्श्चत ढां ग से उनको वर्रोध
करना चादहए। दहन्द-ू धमव ने यह मानने की मख
ू त
व ा की कक सत्य धीरे -धीरे प्रकट होकर रहे गा और तनम्न कोदट की
भशिाएां अपने-आप छोड दी जायेंगी। दहन्द-ू धमव का वर्श्र्ास था कक त्जस प्रकार सय
ू व के प्रकाश के सामने
अन्धकार वर्लीन हो जाता है , उसी प्रकार सत्य के सम्पकव में आकर असत्य स्र्यम ् ही नष्ट हो जायेगा। यह आशा
आशा ही रह गई है । र्े भी जो ईश्र्र के सम्बन्ध में उच्चतम वर्चारों से अर्गत हैं, बबवरता की जघन्यतम कियाओां
63
क्कलाड फील्ड द्र्ारा वर्रधचत 'इस्लाम के सूफी और सन्त', पष्ृ ठ 159
भारत की अन्तरात्मा 50
में भलप्त दे खे जाते हैं। जो बडी सफाई के साथ अदहांसा की बात करते हैं, र्े ही बभल दे ने को प्रोत्सादहत करते ददखाई
पडते हैं। दहन्द-ू धमव को अपनी उदारता छोड दे ने की आर्श्यकता नहीां है; परन्तु उसे इसका ध्यान अर्श्य रखना
चादहए कक अच्छे -बुरे का अन्तर स्पष्ट बना रहे और उत्तरोत्तर उन्नतत होती रहे । हमें अपनी सस्थाओां को अधधक
प्रजातांिात्मक बनाना चादहए और वर्रोधी मतों के झगडों, दरू
ु ह भसद्धान्तों और उन अत्याचारपूणव सांस्थाओां को,
त्जनके कारण मनुष्य की आत्मा सचमुच वपसी जा रही है , नष्ट कर दे ना चादहए। इस्लाम और दहन्द-ू धमव अपने
उच्चतम स्र्रूप में यही भशिा दे ते हैं कक ईश्र्र की सत्य और पवर्िता के साथ सेर्ा करना और जीर्न की सभी
घटनाओां में उसकी आज्ञाओां को श्रद्धा के साथ पालन करना ही यथाथव धमव है ।
भारत की अन्तरात्मा 51
दहन्द-ू मत और ईसाई-मत
ऑक्कसफडव सभा में श्री ग्रीव्स ने जो दहन्द-ू धमव पर तनबांध पढ़ा था, उसमें भलखा- 'स्थूलरूप से यह कहा जा
सकता है कक दहन्द ू लोग अपने प्रभसद्ध धमव-भसद्धान्त से प्रायः उतने ही आगे बढ़े हुए हैं त्जतने कक ईसाई कहे
जानेर्ाले लोग ईसाई-भसद्धान्तों से पीछे हैं।"64 जहाां तक दहन्दओ
ु ां के आचरण का प्रश्न है यह तनष्कर्व बहुत उदार
है ; ककन्तु इसके मूल में जो यह भार्ना है कक दहन्द-ू भसद्धान्त इस आर्रण से कम योग्यता के हैं, र्ह वर्र्ाद-ग्रस्त
है । जो बात हमारी समझ में नहीां आती उसे बुरा कर दे ने को हम सदा तैयार रहते हैं और जो लोग दहन्द-ू धमव को दरू
से दे खकर उसपर अपना तनणवय दे ना चाहते हैं, र्े उसकी प्रबल सजीर्ता से अतनभभज्ञ हैं। 'स्र्ाभावर्क धमव-बुद्धध'
के त्रबना हम उन महान ् भसद्धान्तों को कैसे समझ सकते हैं त्जनके भलए अनेक लोगों ने प्राण तक न्योछार्र कर
ददये तथा अब भी करते रहते हैं। यदद इसी दृत्ष्टकोण से हम दस
ू रे धमों दे खें तो हमें मालूम पडेगा कक सभी धमों में
एक ही प्रकार के मूल भसद्धान्तों पर जोर ददया गया है कक ईश्र्र है , मनष्ु य का ईश्र्र से कुछ सम्बन्ध है तथा जो
व्यत्क्कत ईश्र्र के अनुकूल का अभभलार्ी है उसे ककसी-न-ककसी प्रकार की ईश्र्रानुभूतत अर्श्य होती है । सांसार के
प्रगततशील एर्ां सजीर् धमों में अन्तर इतना ही है कक एक ककसी बात पर बल दे ता है और दस
ू रा ककसी दस
ू री बात
पर और इसका कारण ऐततहाभसक एर्ां सामात्जक पररत्स्थततयों की भभन्नता है । यह जान कर परम सन्तोर् होता
है कक उदार आलोचना, र्द्वधमान प्रकृतत-वर्ज्ञान, अध्यात्मशास्ि, तल
ु नात्मक धमव-वर्ज्ञान, धाभमवक चेतना का
मनोर्ैज्ञातनक अध्ययन एर्ां रहस्यानुभूतत से प्रगाढ़तर पररचय के फलस्र्रूप ईसाई-पत्ण्डत धमव-पुनतनवमावण में
सांलग्न हैं त्जससे ईसाई धमव दहन्द-ू धमव के तनकट आ रहा है और ऐसा मालूम पडता है कक ईसाई धमव तथा अन्य
धमों में जो भेद-भार्ना है र्ह समाप्त हो जायेगी। इस तनबन्ध में बहुत सांिेप में -एक छोटे -से तनबन्ध में वर्शद
र्ैज्ञातनक वर्र्ेचन सम्भर् नहीां-दहन्द-ू धमव के कुछ मूल भसद्धान्तों का र्णवन करूांगा त्जससे दहन्द-ू धमव के मूल
भसद्धान्तों से हमारा अभभप्राय उन समान्य वर्चारों से है जो दहन्द-ू धमव के लम्बे इततहास में उसके भभन्न-भभन्न
रूपों में , ईश्र्र, मनष्ु य तथा उसके भवर्ष्य के सम्बन्ध में बराबर पाये जाते रहे हैं।
दहन्द-ू मत से ईश्र्र का रहस्य समझने में मनष्ु य की बुद्धध अिम है । अनेक शास्ि-र्चनों में इस बात
पर जोर ददया गया है कक मनष्ु य की स्थलबुद्धध ईश्र्र के सूक्ष्म स्र्रूप को समझने में अशक्कत है । परमात्मा के
अनन्त गुण तथा रूप हैं त्जनका ज्ञान हम मनुष्यों को नहीां है ; परन्तु कोई भी दहन्द ू इस तनर्ेधात्मक तनणवय से
सांतष्ु ट नहीां होता। र्ह अपने स्र्रूप के उपमान के आधार पर जो ज्ञान, भार्ना एर्ां इच्छाओां का समच्
ु चय है ,
ईश्र्र की व्याख्या करना चाहता है । र्ह ईश्र्र को शरीरयुक्कत व्यत्क्कत पुरुर् कहता है और उससे वर्चारशत्क्कत एर्ां
स्नेह आदद गुणों का सत्न्नर्ेश करता है । र्ह बराबर यह जानता रहता है कक ईश्र्र का शरीर केर्ल एक परदा है ,
64
माडनव चचव मैन, अक्कटूबर, 1922
भारत की अन्तरात्मा 52
इस रूप में ककसी उच्चतर र्स्तु की अभभव्यत्क्कत हो रही है । ईश्र्र का व्यत्क्कतत्र् मनष्ु य के व्यत्क्कतत्र् की तरह
सीभमत तथा बद्ध नहीां है , क्कयोंकक हमारी गतत एर्ां जीर्न ईश्र्र में ही सम्भर् है ।
चूांकक ईश्र्र के व्यत्क्कतत्र् में ज्ञान, स्नेह एर्ां श्रेष्ठता का समन्र्य होता है ; अतः वर्श्र्-सम्बन्धी उसकी
कियाएां सज
ृ न, तनस्तार एर्ां न्याय की कियाएां होती हैं; ब्रह्मा जो ईश्र्र के ज्ञानस्र्रूप का प्रतीक है , सत्ृ ष्ट-रचना
करता है ; वर्ष्णु, जो उसके स्नेह का द्योतक है , हमारा भरण-पोर्ण करता है , भशर्, जो सर्व शत्क्कतमान एर्ां पण
ू व है
'हमारा न्याय करता है । वर्श्र् की व्यर्स्था ईश्र्र के मत्स्तष्क की सूचक है । ईश्र्र के तनत्य वर्चार दे शकाल के
रूप में िमशः अभभव्यक्कत होते हैं। प्रत्येक र्स्तु बराबर यह प्रयास करती है कक अपनी अपण
ू त
व ा को दरू कर सके
त्जससे र्ह उन तनत्य रूपों के समकि हो सके, अथावत ईश्र्र के उद्दे श्य की पतू तव कर सके। सत्ृ ष्ट-व्यापार एक
तनरन्तर वर्कास है त्जसमें द्रव्य नर्ीन तथा उच्चतर गण
ु ों को प्राप्त करते एर्ां पुराने गण
ु ों का पररत्याग करते हैं।
ब्रह्मा की कल्पना ईश्र्र की अनन्तता एर्ां तनत्य-सज
ृ न सांलग्नता को प्रकट करती है । ईश्र्र के सज
ृ न का लक्ष्य
यह है कक जीर्न अपने ददव्य मूल तथा ददव्य पररणाम की अभभव्यत्क्कत करे सकें। ईश्र्र की सत्ृ ष्ट-भर में मनष्ु य
ही केर्ल अपने मूल स्र्रूप को पूणत
व ः व्यक्कत कर सकता है एर्ां र्स्तुओां की यथाथव को प्रदभशवत कर सकता है । जब
ईश्र्र ने मनष्ु य की रचना की तो उसने, उसे उन तनयमों को ज्ञान भी ददया त्जनका पालन उसे करना चादहए यदद
र्ह अपने ददव्य लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है । भगर्द्गीता (3, 10) में भलखा है - 'ब्रह्म ने यज्ञसदहत प्रजा की
सत्ृ ष्ट की।' यह यज्ञ, यह धमव-तनयम ही र्ह साधन है त्जसके द्र्ारा हम ईश्र्र-तनधावररत अपने आदशव की प्रात्प्त
करके ईश्र्रभार् को, ब्रह्म-स्र्रूप को प्राप्त कर सकते हैं। ककां तु हम अपने मूल को भूलकर, ईश्र्र की सत्ृ ष्ट में
अपने स्थान को भूलकर, यज्ञ-तनयम को भूलकर स्र्ाथव साधन में पडकर अपने को नष्ट ककया करते हैं। तभी
ईश्र्र के स्नेह अथर्ा करुणा की आर्श्यकता होती है । सबसे महान ब्रह्मा ही सबको स्नेह करने र्ाला वर्ष्णु भी
है । दे शकाल, भौततक जगत, प्राणी-जीर्न तथा मानर्-इततहास के पीछे रहकर अपनी करुणा एर्ां स्नेह को सर्वि
त्रबखेरकर सर्वव्यापी वर्ष्णु मानर्ात्मा को पाप तथा अवर्द्या का सामना करने में सहायता दे ता है । र्ही हमारे
जीर्न का मूल आधार है , र्ही हमारी र्ह अन्तज्योंतत है जो परम पवर्ि होने के कारण ककसी भी िण-भांगुर पदाथव
में अनुरक्कत नहीां हो सकती एर्ां जो परम स्नेहशीला होने के कारण ककसी को भी अनात्मीय नहीां समझ सकती।
र्ह कल्याणकारी ईश्र्र है तथा इस बात का प्रमाण है कक सांसार मांगल अथर्ा भशर् की ओर बढ़ रहा है । पर र्ह
हमारी इच्छा के वर्रुद्ध कुछ नहीां करता। उसका मांगलमय कायव ब्रह्मा की सत्ृ ष्ट-व्यर्स्था के अनुकूल ही होता
है । ईश्र्र उन सत्ृ ष्ट-तनयमों की अर्हे लना करके, त्जनका उसने स्र्यां तनमावण ककया है , अपने महवर् को प्रदभशवत
करने की इच्छा नहीां करता। यद्यवप वर्ष्णु सदा ही हमारी सहायता करने को तैयार रहता है पर हमारे पाप तथा
अज्ञान उसकी करुणा के महान ् अर्रोधक हैं। यदद हम ईश्र्र पर वर्श्र्ास करके उसकी प्राथवनामाि करें , तो भी र्ह
सांकट से हमारी रिा करता है। कृष्ण ने गीता में कहा है - 'यदद दरु ाचारी भी अनन्य गतत होकर हमारी उपासना
करता है तो उसे साधु समझना चादहए, क्कयोंकक उसका तनश्चय ठीक है । शीघ्र ही र्ह धमावत्मा बन जाएगा एर्ां
अनन्त शात्न्त प्राप्त करे गा। तुम दृढ़तापूर्क
व कह सकते हो । के मेरे भक्कत का कभी वर्नाश नहीां होता ।65 अतएर्
65
गीता-9, 30-31
भारत की अन्तरात्मा 53
महान ् पापी के भलए भी उदार की आशा है । ईश्र्र केर्ल सत्य और प्रेम ही नहीां है , र्ह न्याय भी है । र्ह शत्क्कत एर्ां
पूणत
व ा की मूततव, भलाई एर्ां बरु ाई को तनणावयक तथा कमव का स्र्ामी कमावध्यि भी है । जब हम पाप करते हैं तो
तनणावयक भशर् हमें दण्ड दे ता है ।
ब्रह्मा, वर्ष्णु और भशर्, तीन भभन्न-भभन्न व्यत्क्कत नहीां हैं र्रन ् र्े एक ही अद्वर्तीय ईश्र्र के कतवव्य-
भेद से तीन रूप कर भलए गए हैं। ब्रह्मा कुछ शत्क्कतयों का पण
ू व वर्कास करने में वर्ष्णु हमारी सहायता करता है
तथा भशर् मांगल की वर्जतयनी आत्मतनभवरता का द्योतक है । जैसे तैत्तरीय उपतनर्द में भलखा है - 'जो सब पदाथों
का उद्भर् है , जो उन्हें धारण करता है तथा त्जसमें र्े लय को प्राप्त होते हैं, र्ह एक ही है।' ईश्र्र ही सत्य है , र्ही
पथ एर्ां र्ही जीर्न है । र्ह एक होने पर भी तीन बताया जाता है -एक एर् त्रिधा स्मुतः । सत्ृ ष्ट, पालन एर्ां न्याय-
वर्चार-ये रचनात्मक वर्कास के तीन मुख्य रूप हैं।
जब हम परमात्मा को सत्ृ ष्टकताव, उसका रिक तथा न्याय-कताव की दृत्ष्ट से ईश्र्रीय आत्म-चेतना के
तीन रूपों को समच्
ु चय मानते हैं तो हमें मानना पडेगा कक र्ह वर्श्र्, त्जसके सम्बन्ध से ही इन कमों का कोई अथव
हो सकता है , ईश्र्र से अवर्भक्कत रूप में सम्बत्न्धत है । कुछ उपतनर्दों, भगर्द्गीता तथा आत्स्तक र्ेदान्त के
मत से यह सांसार भगर्ान ् का शरीर है । दहन्द-ू शास्ि प्रत्येक पदाथव में ईश्र्र की सत्ता स्र्ीकार करने से डरता नहीां।
र्ह सांसार से परे अपने ही अरुधचकर एकान्त में रहने र्ाले ककसी अलौककक परमात्मा में वर्श्र्ास नहीां करता।
गीता में कृष्ण ने कहा है कक सांसार का समस्त सौन्दयव, उसका सम्पूणव सत्य, उसका अखखल मांगल ईश्र्र की
अभभव्यत्क्कत के वर्वर्ध रूप हैं। प्रकृतत उसकी महत्ता का आर्रण, उसके शब्द को व्यक्कतस्र्रूप एर्ां उसके वर्चारों
की मूततव है । यह तनम्न कोदट का सर्वर्ाद नहीां है । यथाथव और आदव श में , उत्कृष्ट और तनकृष्ट में भेद ककया गया
है । दहन्द-ू धमव इस बात पर जोर दे ता है कक मनुष्य अपौरुर्ेयता की उपलत्ब्ध करे । इसका अथव है कक र्स्तु-जगत ् के
परे भी कुछ है त्जस तक पहुांचने का प्रयास मनुष्य बराबर ककया करता है । मुक्कत का अथव यह है कक ऐसा भी कुछ है
त्जससे छुटकारा पाने की आर्श्यकता है । यदद सब ब्रह्म ही है तो मुत्क्कत की, ईश्र्र के अनग्र
ु ह की आर्श्यकता ही
कैसी? ईश्र्र प्रकृतत का प्राणमाि ही नहीां है , र्ह तो उसके परे उसका सष्ृ टा, उसका स्र्ामी भी है । दहन्द-ू धमव को
हे गल-प्रततपाददत वर्श्र्-व्यापार तथा परमात्मा का ऐक्कय मान्य नहीां है । ईश्र्र सांसार का मूल अर्श्य है , पर सर्वि
है , र्ह सबमें व्याप्त है , सबका शासक है कफर भी स्र्यां सबसे अतनभलवप्त, सबसे अलग बना रहता है ।
नदी का जल उद्गम स्थान पर ही सबसे अधधक तनमवल होता है । यह लोकोत्क्कत ईसाई धमव पर सर्वथा
चररताथव होती है । यदद हम ईसा के जीर्न तथा उनकी भशिा पर दृत्ष्टपात करें तो उस धमव के मख्
ु य भसद्धान्तों
का हमें स्पष्ट ज्ञान हो जाएगा। 'प्राचीन धमव पुस्तक' का 'जहोर्ा' प्रधानतः जातीय दे र्ता ही था। यद्यवप 'होशा'
तथा 'इशाया' आदद कुछ महात्मा उसे समस्त सांसार को ईश्र्र कहते थे पर र्े भी सांकीणव प्रान्तीय भार्ना से
सर्वथा मक्क
ु त नहीां रह सके। उनकी दृत्ष्ट में भी यहूदी ही परमात्मा की वर्भशष्ट प्रजा थे तथा र्े गर-यहूदी जाततयाां;
जो जहोर्ा की महत्ता को स्र्ीकार कर लेती थीां तथा त्जआन में खाकर उसकी उपासना करती थीां, हीन समझी
जाती थीां। ईसा ने ईश्र्र की कल्पना से सब प्रकार की पररत्च्छन्नता को दरू कर ददया। उसे ईश्र्र के तनपेि रूप में
भारत की अन्तरात्मा 54
खास ददलचस्पी नहीां थी; उसने बडे ही स्तुत्य ढां ग से उसके उस रूप को हमें दशवन कराया त्जसमें र्ह मनुष्य तथा
सांसार से जडडत है । यद्यवप उसने ईश्र्र के ज्ञान, स्नेह एर्ां शत्क्कत, तीनों रूपों की चचाव की है पर पररत्स्थततयों के
अनुरोध से ईश्र्र के प्रेम पर ही वर्शेर् बल दे ना पडा। यहूदी महात्माओां में से जो अपेिाकृत श्रेष्ठ थे, उन्होंने भी
ईश्र्र के िोध एर्ां न्याय पर खास जोर ददया था। इशाया ने कहा था- 'जब ईश्र्र पथ्
ृ र्ी को प्रबल र्ेग से दहला
डालने को उठे गा तो उसकी महत्ता तथा आिोश से भयभीत होकर मनुष्य धगरर-कन्दराओां तथा भू-तछद्रों में जा
घस
ु ेंगे। इसके वर्परीत ईसा ने ईश्र्र के वपतारूप तथा हमारे प्रतत उसके र्ात्सल्य स्नेह की कल्पना पर वर्शेर् बल
ददया है । परमात्मा सबसे पहले प्रेम है ; र्ह हमारा रिक है । ईसा ने ईश्र्र के दस
ू रे रूपों की भी उपेिा नहीां की।
सांसार की सव्ु यर्स्था उसका ज्ञान प्रकट करती है । त्रबना ककसी पिपात के न्यायी तथा अन्यायी सबको, ही सूयव
का प्रकाश प्राप्त है और यही बात जल-र्त्ृ ष्ट के सम्बन्ध में भी सच है । ईसा ईश्र्रकृत वर्भशष्ट वर्धान में वर्श्र्ास
नहीां करता।'66 र्ह उन िुद्र स्र्ाथवपरायणता को फटकारता है जो समझती है कक पावपयों का कठोर दण्ड दे ने के
भलए अथर्ा पुण्यात्माओां को भली भाांतत पुरष्कृत करने के भलए ईश्र्र सत्ृ ष्ट के स्र्ाभावर्क तनयमों में उलट-फेर
कर ददया करता है । पत्थरों को रोदटयों में पररणत करने के प्रलोभन में र्ह नहीां फांसा। शारीररक रोगों को जो उसने
दरू ककया, र्ह सब तनयम सम्मत ही था एर्ां जहाां वर्श्र्ास का अभार् था, र्ह स्र्ास्थ्य दे ने में असमथव ही रहा।
ईश्र्र अचल सत्य है और उसका वर्श्र् कभी अराजक नहीां हो सकता। ईश्र्र न्यायकताव भी है । ईश्र्र का न्याय
बाइत्रबल का प्रधान वर्र्य है । आदम तथा हौआ के शाप तथा केन के प्रात्याख्यान से आरम्भ करके सेन्ट जान के
सांददग्ध प्रमाण 'दशवन' तक ईश्र्र की प्रभुता तथा न्याय पर जोर ददया गया है । अन्त में ईश्र्र के उद्दे श्य की ही
वर्जय होगी। यहूदी-धमावचायों के ही समान ईसाइयों ने भी पाप स्र्ीकृतत एर्ां ईर्रीय करुणा की अपेिा परमात्मा
के न्याय तथा िोध पर प्रायः बहुत जोर ददया है ।
जब ईसा के अनुयातययों ने उसे ईश्र्र की पदर्ी पर पहुांचा ददया तो ब्रह्मा, वर्ष्णु तथा भशर् के तीनों रूप,
अनन्तता, करुणा तथा प्रभत
ु ा, ज्ञान, प्रेम तथा शत्क्कत का उसमें आरोप कर ददया गया। र्ह ईश्र्र का शब्द अथर्ा
ज्ञान है जो इब्राहीम से पहले भी था। र्ह रिक है त्जसने कलर्री की शूली पर अपना स्नेहभसक्कत हृदय खोला था।
र्ह न्यायकताव है जो उन सब लोगों को दण्ड दे ता है जो उसे रुष्ट कर दे ते हैं। बपततस्मा दे ने र्ाले जान का कथन है -
'मेरे पश्चात ् आने र्ाला र्ह (ईसा) अपने गेहूां को तो क्कटोरकर कोठरी में सरु क्षित रख छोडेगा परनतु भस
ू े को र्ह
प्रज्र्भलत र्त्ह्न में जला डालेगा।' र्ह 'भेडों को बकररयों से चुनकर अलग कर लेगा।"67
'त्रिमूततव' के भसद्धान्त ने केर्ल ईसा को ही ईश्र्रता नहीां प्रदान की, प्रत्युत ् 'प्राचीन धमव-पुस्तक' में
ईश्र्र का जो एकाांगी रूप स्र्ीकृत ककया गया था, उसमें भी सुधार ककया। ईश्र्र स्र्गव में त्स्थत केर्ल अनन्त
शत्क्कत (वपता) ही नहीां है र्रन ् र्ह प्रेम-पण
ू व हृदय (पि
ु ) भी है तथा अखखल वर्श्र्व्यापी ददव्य तवर् (पवर्ि आत्मा)
भी है । परमात्मा सांसार से परे की कोई ददव्य सत्ता नहीां है र्रन ् र्ह अनन्त प्रेम है त्जसकी धारा वर्श्र्-कल्याण के
भलए तनत्य प्रर्ादहत हो रही है। अर्ेलाडव एर्ां एक प्रकार से अक्कयूनस भी इस भसद्धान्त का समथवन करते हैं। कक
66
लक 13, 1-5.
67
मैथ्यू 25, 31-46
भारत की अन्तरात्मा 55
न्याय-तनरत र्द्
ृ ध त्जहोिा-शत्क्कत का केन्द्र वपता (भशर्) है, एर्ां पवर्ि आत्मा ही व्यापक प्रेम (वर्ष्ण)ु है । इस
भसद्धान्त के अनुसार वपता, पुि तथा पवर्ि आत्मा ही व्यापक प्रेम (वर्ष्णु) हैं। इस भसद्धान्त के अनुसार वपता,
पुि तथा पवर्ि र्ेदात्न्तक कल्पना के सत ्, धचत ् एर्ां आनन्दस्र्रूप ब्रह्मा के-सत्य, ज्ञान एर्ां आनन्द के अनुरूप
ही है । एक बात त्रबल्कुल स्पष्ट है कक त्रिमूततव का भसद्धान्त ईश्र्र के त्रिवर्ध स्र्रूप को व्यक्कत करने का प्रयास है ।
आधुतनक ईसाई-धमव-वर्ज्ञान यह अनुभर् कर रहा है कक ईश्र्र के तीनों रूपों की एकता तभी सम्भर् है जब हम
उन्हें उसकी किया के तीन प्रकार समझें, भभन्न-भभन्न तीन चेतनाकेन्द्र नहीां।
प्रायः कहा जाता है कक दहन्द ू धमव में ईश्र्र के न्याय पर जोर ददया जाता है एर्ां ईसाई धमव में उसके प्रेम
पर, यह धारणा सर्ाांशतः ठीक नहीां है । इस प्रश्न पर दोनों मतों में वर्शेर् अन्तर नहीां है। प्रेमदे र् वर्ष्णु हमारी
सहायता करने को सदा तैयार रहता है ; र्ह तो केर्ल हमारे प्रयत्न की प्रतीिा ककया करता है । र्ह हमारी इच्छा के
वर्रुद्ध हमारी सहायता नहीां करता। हमारे पाप करने पर भी र्ह हमारा उद्धार तभी करता है जब हम
आत्मग्लातन का अनुभर् करते हैं। ईश्र्र हमारे भलए सब कुछ करने को तैयार रहता है पर यदद हम पापाचरण एर्ां
स्र्ाथवपरायणता में ही रत रहें तथा उसे दया-याचना करें , तो न्यायानुमोददत दण्ड का वर्धान होगा ही। ईश्र्र स्र्यां
अपनी उपेिा नहीां कर सकता। र्ह सबको िमा कर दे ना चाहता है ; परन्तु कुछ ऐसे भी दष्ु कमव हैं 'त्जनके भलए
िमा न तो इस लोक में और न परलोक में ही भमल सकती है ।' ईश्र्र के प्रेम की भी एक प्रणाली है त्जसके अनुसार
उसका प्रकाशन होता है । यह कहना ठीक नहीां कक इससे उसकी सर्वशत्क्कतमत्ता पररसीभमत हो जाती है।
सर्वशत्क्कतमत्ता वर्र्ेकहीनता नहीां है । ईसा को भी मान्य है कक अध्यात्म-जगत ् के भी तनयम हैं। तुच्छ तण
ृ , चोर,
गुप्त धन, मोती, पथ-भ्रष्ट भेड, मुद्रा दश, कुमाररकाओां एर्ां र्ैर्ादहक र्स्िों की दृष्टान्त-कथाओां का यही सांकेत है
कक हमारी मत्ु क्कत अपने ही कमों से हो सकती है ।68' पाांच मूढ़ कुमाररयों ने अर्सर से लाभ नहीां उठाया; अतः र्े
अपने उद्दे श्य-प्रात्प्त में असफल रहीां। यदद हम िमा चाहते हैं तो हमें स्र्यां िमा करना होगा। अध्यात्म-जगत ् के
तनयम इतने दृढ़ हैं कक ईश्र्र का प्रेम भी उनका अततिमण नहीां कर सकता। मत्ु क्कत का उपाजवन करना होगा, उसे
ईश्र्र हमारे ऊपर जबरदस्ती लाद नहीां सकता। दस
ू रों के पापों के भलए स्र्यां दण्ड भोगने का स्पष्ट सांकेत है कक
ईश्र्रीय प्रेम न्याय-सम्मत है । उससे भसद्ध होता है कक िमा करने से पहले दण्ड-वर्धान आर्श्यक है ।
पाश्चात्य ईसाई धमव अनेक प्रभार्ों का पररणाम है । यूनान-वर्रोधी यहूदी धमव से उद्भर् होने के कारण
उसका झक
ु ार् ईश्र्र के ददव्य अलौककक स्र्रूप की कल्पना के समथवन की ओर है । अरब तथा यहूदी, दोनों को ही
प्रकृतत शुष्क तथा नीरस प्रतीत होती थी; यूनानी एर्ां भारतीय को र्ह जीवर्त तथा ददव्य मालूम पडती थी।
अतएर् इन लोगों ने आध्यात्त्मक तथा लौककक में , प्राकृततक तथा पारलौककक में , आत्म तथा शरीर में बहुत
ज्यादा भेद नहीां माना। दहन्द-ू कल्पना की पत्ु ष्ट वर्धान करता है जो प्रकृतत की तात्वर्क एकता पर जोर दे ता है ।
सर्वव्यापी तनयम-प्रधान्य अनर्स्था को पास नहीां फटकने दे ता। लोकोत्तर लोक के हृदय में ही है । जैसा
आररस्टादटल ने कहा- 'प्रकृतत का शरीर ही आत्मा है । ईश्र्र सांसार का प्राण है ।' इततहास के अथव एर्ां उसके वर्कास
के भसद्धान्त का अधधकाधधक ज्ञान, धाभमवक चेतना तथा उसकी प्रगतत का नूतन मनोर्ैज्ञातनक वर्श्लेर्ण
68
मैथ्यू 13, 24-30; 24, 43; 13, 44; 13, 45-46; 18, 12; 25, 14-30, 1-23; 22, 1-14
भारत की अन्तरात्मा 56
सामान्य में ही ददव्य दे खना चाहता है , असाधारण में नहीां। ईश्र्र की र्ह कल्पना जो उसे भभन्न बाह्य तनयामक
समझा करती थी, र्ैसे ही जैसे कुम्हार घडा बनाता है , त्जसका प्रचार ईसा के बाद पाल आगस्टीन, लूथर तथा
कॉलवर्न की परम्परा से ईसाई धमव के बराबर रहा है -ईसा स्र्यां अपने धाभमवक र्ातार्रण से काफी जकडा था-अब
धीरे -धीरे ततरस्कृत होकर एक अधधक व्यापक कल्पना स्र्ीकृत हो रही है । ईश्र्र की सर्वव्यापकता के भसद्धान्त
को पूणत
व ः स्र्ीकृत करने में पयावप्त सैद्धात्न्तक नर्गठन की आर्श्यकता होगी तथा प्राचीन कल्पना से जडडत
अनेक धाभमवक भार्नाओां का पररत्याग करना होगा। यह नहीां हो सकता कक हम ईश्र्र की सर्वव्यापक भी मानते
रहें तथा चमत्कार, वर्भशष्ट-कृपापािता, एक की ही मध्यस्थता, मुत्क्कत की वर्कास पर नहीां, ईश्र्रीय करुणा पर
तनभवरता एर्ां मत्ृ यु के अनन्तर अधधकाांश मनुष्यों के तनत्श्चत नरकर्ास की कल्पना से भी धचपटे रहें । ईसाई
धमावचायव भी अब भभन्न-भभन्न मािा में पण
ू व सर्वव्यापकता के भसद्धान्त को अपना रहे हैं। यहूदी-र्ांशानि
ु म के
फलस्र्रूप ईसा के मागव में काफी अडचन थीां तो भी ईश्र्र की सर्वव्यापकता में उसका दृढ़ वर्श्र्ास था। 'ईश्र्र का
राज्य तुम्हारे हृदय में है ।' दहन्दओ
ु ां की ही भाांतत ईसा को भी मान्य था कक सांसार में घदटत होनेर्ाले पररर्तवन
दरू स्थ परमात्मा के आकत्स्मक हस्तिेप का पररणाम नहीां हैं, प्रत्यत
ु र्े उसकी तनयभमत प्रगतत का फल हैं। ईसा
के जीर्न से दहन्दओ
ु ां को प्रधान उपदे श यह भमलता है कक ईश्र्र तथा मनुष्य में भेद की कल्पना करना भमथ्या एर्ां
तनरथवक है । ईसा स्र्यां एक ऐसे मनुष्य का उदाहरण है जो ईश्र्र बन गया है और कोई तनश्चयपूर्क
व नहीां कह
सकता कक कहाां पर उसकी मानर्ता की समात्प्त एर्ां ईश्र्रता का प्रारम्भ है । ईश्र्र तथा मनष्ु य एक जातीय ही
हैं। 'तवर्मभस' तुम यही हो।
जीर्न तथा इततहास में ईश्र्र की व्यापकता तथा युग वर्शेर् में उसका अपूर्व प्रादभ
ु ावर्, इन दोनों
भसद्धान्तों में पारस्पररक वर्रोध है । दहन्द ू धमव मनुष्य के सम्पूणव आध्यात्त्मक वर्कास में ईश्र्र को व्यापक
मानता है । कफर भी इस तनरन्तर वर्कास के कुछ महवर्पण
ू व रूपों को र्ह ईश्र्र की उपत्स्थतत के वर्शेर् पररचायक
मानता है । यद्यवप ईश्र्र जीर्न की प्रत्येक अर्स्था में व्यापक रहकर उसे तनयांत्रित करता है कफर भी र्े
अर्स्थाएां, त्जनमें उच्च रूपों का वर्कास हुआ है एर्ां श्रेष्ठ रूपों को प्रौढ़ता भमली है , ईश्र्र की व्यापकता को स्पष्टः
प्रकट करती हैं। ये अर्स्थाएां, त्जनमें उच्च एर्ां श्रेष्ठ रूपों का वर्कास हुआ है , उसकी व्यापकता का स्पष्ट तनदे श
करती हैं। ऐसी दशा में मानर्ेतर अर्तारों का प्रादभ
ु ावर् होता है । मानर्-सत्ृ ष्ट के पश्चात ् नैततक व्यर्स्था में िोभ
उत्पन्न होने पर अधधक स्पष्ट हो उठती है । तब नीतत के पुनः सांस्थापन के भलए असाधारण शत्क्कत से युक्कत पुरुर्ों
का प्रकट होना आर्श्यक हो जाता है ।'69 ये महान ् आत्माएां, जो धमव का, नीतत का, अवर्चभलत 'भार् से समथवन
करती हैं, अतनत्य में तनत्य का, भूसे में अन्न का सामान्य पुरुर्ों की अपेिा अधधक स्पष्ट दशवन कराती हैं।
आध्यात्त्मक महवर् की इन अभभव्यत्क्कतयों को चाहे ईश्र्र का अर्तार कहो, चाहे मनुष्य की शत्क्कतयों का पूणव
वर्कास, क्कयोंकक ये दोनों एक ही बात को प्रकट करने के दो ढां ग हैं। उन्हें ईश्र्र के सांकल्प से उत्पन्न समझते हैं
त्जन्हें र्ह ददव्य ज्ञान से अपने उद्दे श्य को सफल करने के भलए ककया करता है; ककन्तु भारत के उच्च दशवन का
69
भगर्द्गीता 4, 7-8, प्रोफेसर हाग की 'सांसार से मुत्क्कत' नामक पुत्स्तका भी दे खना चादहए।
भारत की अन्तरात्मा 57
तो यही दृढ़ मत है कक परमात्मा सदै र् कमव में लगा रहता है तथा प्रेम उसका साररूप है , यदा-कदा प्रकट होने र्ाला
आकत्स्मक चमत्कार नहीां। ककसी-न-ककसी मािा में सभी मनुष्य ईश्र्र के स्र्रूप के, उसकी शत्क्कत, प्रेम और
सत्य के प्रततत्रबम्ब होते हैं; पर त्जन्हें अर्तार कहते हैं, र्े अधधक मािा में वर्शेर्तः उसे प्रततत्रबत्म्बत कहते हैं।
राम, कृष्ण तथा बुद्ध के सम्बन्ध में भी यही सच है । ईसा ही एक अर्तार है क्कयोंकक शूली पर लटके हुए भी उसने
पावपयों के भलए जो प्राथवना की थी- 'वपता, इन्हें िमा कर दो, क्कयोंकक इन्हें नहीां मालूम कक ये क्कया कर रहे हैं?' - र्ह
अपने बच्चों के भलए ईश्र्र के प्रेम का प्रतीक है ; ककन्तु यह कहना कक उसका ईश्र्र से कोई वर्शेर् सम्बन्ध था
त्जसकी प्रात्प्त दस
ू रों के भलए असम्भर् है , एक ऐसी बात कहना है त्जसका समथवन करना कदठन है । और मैं दार्े
के साथ कह सकता हूां कक सांक्षिप्त 'सुसमाचारों' में इसका कोई प्रामाखणक साक्ष्य भी नहीां । हाां, ईसा के पूर्र्
व ती
तथा परर्ती यग
ु ों के अन्य लोगों की भाांतत उसके सम्बन्ध में भी कुछ कथायें प्रचभलत हैं पर ऐसे महवर् के वर्र्य
में उनका मल्
ू य ही ककतना ! ईसा की पूर्व मनष्ु य में एक अप्रमाखणक भेद के पोर्क हैं जो यहूददयों के द्र्ैतर्ाद का
स्मरण ददलाते हैं। ईसा का जीर्न हमारे भलए तनरथवक होगा यदद उसमें कुछ ऐसे अपौरुर्ेय गुणों की सत्ता भी
स्र्ीकार कर ली जाय त्जनकी सहायता से र्ह पण
ू त
व ा तक पहुांच सकता है । ईश्र्र के वपतत्ृ र् में वर्श्र्ास हमें यह
स्र्ीकार करने पर वर्र्श करता कक जो कायव ईसा के भलए सम्भर् हो सका है , र्ह दस
ू रों के भलए भी सम्भर् है ।
ईश्र्र की जो शत्क्कत उसे प्राप्त थी, हमारे भलए भी सुलभ है और यदद उसी की तरह हम भी प्रयत्नशील बन सकें तो
हम भी अपने अन्ततनवदहत परमात्मा का वर्कास कर सकते हैं। हम सभी ईश्र्रीय गण
ु ों से यक्क
ु त हैं तथा ईसा की ही
भातत उसके प्रेम को त्रबत्म्बत कर सकते हैं, यदद हम भी उसकी-सी दृढ़ ईश्र्र-तनष्ठा अपने में भर सकें। अधधक-से-
अधधक ईसा को अनेक, भाइयों में ज्येष्ठ'70 समझा जा सकता है । ईसा में ईश्र्र की अभभव्यत्क्कत ठीक र्ैसी ही है
जैसी सांसार के अन्य महात्माओां में । जो दे र्वर् उसमें प्रकट हुआ है , र्ह बीजरूप से हम सबमें वर्द्यमान है । यह
समझना कक ईसा को छोडकर और ककसी ने भी ईश्र्र से उस तादात्म्य-भार् की अनुभूतत नहीां की, शुद्ध भ्रम है ।
दहन्द-ू धमव के इततहास में अनेक उदाहरण ऐसे साधु परु
ु र्ों के भरे पडे हैं जो स्र्यां मुक्कत हो गये थे, त्जन्हने 'मैं' तथा
'मेरे वपता' की एकता का अनभ
ु र् कर भलया था, त्जन्होंने ददव्य चिुओां से महान ् ईश्र्र का दशवन ककया था, केर्ल
इत्न्द्रय-जगत ् के घोर अन्धकार के पटल को भेदकर कभी-कभी चमकने र्ाली िखणक ज्योतत-रे खाओां को ही नहीां;
तथा र्े सदा के भलए जाते हैं, उतना ही मनुष्य एर्ां ईश्र्र के स्र्रूप में एकरूपता बढ़ती जाती है और जो व्यत्क्कत,
यदा-कदा नहीां, तनरन्तर ब्रह्म में ही तनर्ास करता है , र्ह कह सकता है - 'मैं र्ही हूां।' ऋवर्यों एर्ां उपतनर्दों के
साक्ष्य की सत्यता को ईसा एर्ां सांसार के अन्य प्रततभाशाली साधु परु
ु र्ों का अनभ
ु र् प्रमाखणत करता है । धमव पर
बभल हो जानेर्ाला अल हजाज कहता है - 'मैं ही सत्य हूां, मैं ही अपनी वप्रयतम हूां, अपना प्रेमी भी मैं हूां। हम एक ही
शरीर में तनर्ास करनेर्ाली दो आत्मायें हैं। जब तुम मझ
ु े दे खते हो तो तुम उसे दे खत हो; और जब तुम उसे दे खते
हो तो तम
ु मझ
ु े दे खते हो।' तल्लीनता की उस दशा में मनष्ु य की आत्मा 'एर्ां ईश्र्र में कोई भेद नहीां रह जाता।
जामी कहता है - 'मैं और तू के भलए यहाां अर्काश ही नहीां है ; र्े तो केर्ल भमथ्या एर्ां सारहीन कल्पनायें हैं।"71
70
रोमन्स 8, 92
71
ब्राउन-फारस का सादहत्त्यक इततहास- 1, पष्ृ ठ 439 ।
भारत की अन्तरात्मा 58
ईसा की श्रद्धा और भत्क्कत में बहकर हम कह सकते हैं-ईसा में ईश्र्र पूणरू
व प से व्यत्क्कत हुआ है तथा
इततहास में उसका व्यत्क्कतवर् अद्वर्तीय है । कभी-कभी बडी अतनच्छापूर्क
व इतना स्र्ीकार ककया जाता है कक
कुछ अन्य महात्माओां में भी ईश्र्र की ज्योतत का स्पष्ट दशवन हुआ है पर इतनी प्रभार्पूणव ज्योतत और कभी और
कहीां नहीां ददखाई पडी त्जतनी ईसा में हो सकता है कक यह सच हो, परन्तु यदद बुद्धध एर्ां कन््यूसस के अनुयायी
अपने-अपने आदशव पुरुर्ों के सम्बन्ध में ऐसा ही दार्ा करें तो हमें आपवत्त करने का कोई न्याय अधधकार नहीां।
यदद यह कहा जाय कक बहुत बडी आध्यात्त्मक अनभ
ु तू त ईसा की ईश्र्रता तथा मध्यस्थता को प्रमाखणत करती है
तो इस प्रकार की अनुभूतत का अभार् महान ् मानर्ोद्धार-तत्पर महात्माओां में भी नहीां है । दहन्दओ
ु ां का वर्श्र्ास है
कक प्रत्येक गुरु उद्धारक होता है , क्कयोंकक र्ह अपने भशष्यों में ईश्र्रीय जीर्न को उत्तेत्जत करता है तथा उनमें
उस अध्यात्म-बीज को वर्कभसत करता है जो भवर्ष्य में सफल हो सकता है । कोई भी परु
ु र्, जो हमारा उद्धारक
हो सकता है । 'शैर् भसद्धान्त' आददक कुछ सम्प्रदायों में तो गुरु को ईश्र्र ही समझा जाता है जो दया-परर्श
होकर मनुष्य को उन्नतत-मागव में सहायता दे ने के भलए अर्तररत हो जाता है । यह कहना गलत है कक मध्यस्थता
के त्रबना स्र्गव नहीां पहुांचा जा सकता। यह भी स्र्ीकार ककया जा चक
ु ा है कक ईसा के जन्म से शतात्ब्दयों पहले
इब्राहीम स्र्गव पहुांच चुका था।72
यह बात आसानी से समझ में नहीां आती कक पूणव मानर्ता के समस्त आदशव गण
ु -सब दशाओां एर्ां सब
कालों के भलए उपयक्क
ु त-ईसा में एक साथ व्यक्कत हो चुके हैं तथा र्ही अत्न्तम हैं। पथ्
ृ र्ी पर कोई अभभव्यत्क्कत
अत्न्तम नहीां कहला सकती। ईश्र्र ने कभी ककसी वर्र्य में भी अपना अत्न्तम हैं। फैसला नहीां ददया। उसे सदा ही
इतनी अधधक बातें बताना शेर् रह जाती हैं कक हम उन सबका भार सांभाल ही नहीां सकते।73
पत्श्चम के ईसाई धमावचायों में अब तक अधधक वर्र्ेचनात्मक दृत्ष्ट कोण जाग्रत हो रहा है और ईसा की
मानर्ता पर अधधक जोर दे ने लगे हैं। उसकी सर्वज्ञता तथा सत्ृ ष्ट-रचना-चेतना पर अब अधधक जोर नहीां ददया
जाता। दस
ू री ओर इस प्रकार के र्ाक्कयों पर वर्शेर् ध्यान ददया जा रहा है कक उसका 'ज्ञान बढ़ा', 'कष्ट झेलकर
ईश्र्र की आज्ञा का पालन करना सीखा', 'सांकटों के द्र्ारा ही पूणव बना' और 'हमारी ही भाांतत के प्रलोभनों में डाला
गया।' र्न-जीर्न के घोर कष्ट ने उसे हमारा भाई बना ददया। र्ह भी हमारी ही भाांतत ईश्र्र के समीप अपनी
दीनता का अनुभर् करके कहता था- 'तुम मुझे अच्छा क्कयों कहते हो? अच्छा तो अकेला भगर्ान ् है ।' 'मेरा वपता
मुझसे बडा है ।"74 उसके दे र्वर् के प्रमाण में चमत्कारों का उल्लेख नहीां ककया जाता। वर्ज्ञान उसमें से बहुतों को
अवर्श्र्ास की दृत्ष्ट से दे खता है । मानभसक धचककत्सा ने कुछ की व्याख्या भी की है । ईसा ने स्र्यां अपना दे र्वर्
प्रमाखणत करने के भलए कभी चमत्कार नहीां ददखाये। उसका तो कथन है कक दस
ू रे लोग भी ऐसे चमत्कार कर
सकते हैं। 'यदद मैं शैतान की सहायता से प्रेम-बाधा से मुत्क्कत दे ता हूां तो तम्
ु हारे बच्चे ककसकी सहायता से यह काम
72
लक
ु 16, 24।
73
जान 16, 12।
74
माकव 14 - 28
भारत की अन्तरात्मा 59
करते हैं?"75 ईसा के साक्ष्य, दाशवतनक सत्य एर्ां धाभमवक अनुभूतत, सबका एक स्र्र से अनुरोध है कक अन्य
भगर्द्भक्कत साधुओां के ही समान उसे भी समझना चादहए, क्कयोंकक ईश्र्र ने प्रत्येक दे श और युग में अपने
साक्षियों को भेजा है ।
मनुष्य ईश्र्र के अनुरूप बनाया गया है ; अतः र्ह स्र्भार्तः दष्ु ट नहीां होता। जैसा हम उसे पाते हैं र्ह
तनस्सन्दे ह अनेक बाधाओां से तघरा हुआ है । उसकी दब
ु ल
व तायें स्र्भार्भसद्ध नहीां हैं र्रन ् स्र्तांिता के दरु
ु पयोग का
पररणाम है । यहूदी कहानी कक मनष्ु य ने ककस प्रकार सर्वप्रथम परमात्मा की आज्ञा का उल्लांघन करके ज्ञानर्ि
ृ
का फल चखा त्जसके फलस्र्रूप सांसार में सांकट एर्ां मत्ृ यु का आवर्भावर् हुआ, इस दहन्द-ू मत को पुष्ट करती है
कक मूढ़ता तथा पापाचरण के कारण उत्पन्न होने र्ाले दःु ख, कष्ट मनुष्य स्र्यां रचता है यद्यवप हमें स्र्तांिता
दे ते समय ईश्र्र ने उनकी भी आयोजना कर दी थी। ईश्र्र का सम्बन्ध हमारे साथ ठीक र्ैसा ही नहीां है , जैसा
कुम्हार का भमट्टी के साथ होता है । उसने तो हमें अपने भाग्य का तनमावण करने के भलए पण
ू व स्र्तांिता दे रखी है ;
परन्तु मनुष्य ने अपने झठ
ू े , अतनत्य रूप को ही चाहा और र्ह अपने सच्चे स्र्रूप ईश्र्र से दरू भागता रहा।
फलतः पाप का उदय हुआ। कफर भी यह पापाचरण हमारे अमरवर् को, त्जसपर हमारा र्ांशिमागत स्र्वर् है , छीन
नहीां सकता, र्ह उसे केर्ल कुछ समय के भलए टाल सकता है ।
र्ह भसद्धान्त, जो मनुष्य को स्र्भार्तः पापी समझता है , मुझे भय है , सत्य नहीां भसद्ध ककया जा
सकता। हमारी प्रकृतत तो दै र्ी है । जो पुरुर् भी सांसार में आता है , र्ह ईश्र्रीय ज्योतत से युक्कत रहता है । 'यदद मैं
तुममें न होता तो तुम हमारी खोज नहीां कर सकते थे।' गेटे का कहना है - 'यदद आांखें स्र्यां सूयव न होतीां तो उन्हें
सय
ू -व प्रकाश का ज्ञान ही कभी न होता। यदद हमारा हृदय ददव्य न होता तो ककसी भी ददव्य र्स्तु की ओर उनकी
प्रर्वृ त्त नहीां हो सकती थी।'
इस दृत्ष्ट से पाप-र्वृ त्त-त्याग ककसी नर्ीन र्वृ त्त का अवर्भावर् नहीां है । यद्यवप यह पूर्व जीर्न-पद्धतत में
आकत्स्मक वर्पयवय अर्श्य है। मुत्क्कत अपने भीतर के दे र्वर् के िभमक वर्कास का पररणाम है , ईश्र्रीय करुणा
का फल नहीां। मत्ु क्कत-किया के आधतु नक मनोर्ैज्ञातनक वर्श्लेर्ण से स्पष्ट हो जाता है कक ककसी भी आत्मा के
वर्कास में परमात्मा बाहर की अपेिा उसके भीतर से ही अधधक काम करता है । दया एर्ां वर्कास एक ही किया के
दो पि हैं, यद्यवप पहले में एक प्रकार के आध्यात्त्मक चमत्कार अथर्ा शात्न्त का-सा सांकेत भमलता है और दस
ू रे
में ईश्र्र तथा मनष्ु य की अवर्त्च्छन्न एकता की सच
ू ना तनदहत है ।
अपने पैतक
ृ दे र्वर् की प्रात्प्त के भलए मनुष्य के भलए तीन प्रकार की साधना का तनदे श ककया गया है जो
चेतन-जीर्न के तीनों अांगों के अनुरूप है । उपतनर्त्काल में ईश्र्र को प्रधानतः तनत्य, सत्य अथर्ा प्रकाश समझा
जाता था और मनुष्यों को बताया गया था कक ईश्र्र-सािात्कार के भलए उन्हें श्रद्धा एर्ां ज्ञान का मागव ही
75
लूक 9, 19
भारत की अन्तरात्मा 60
अपनाना चादहए। भगर्द्गीता के युग में ईश्र्र का प्रेम-रूप प्रबल हो जाता है और मुत्क्कत ईश्र्र की शाश्र्त
न्यायाधीश समझने लगे और तप अथर्ा कठोर सरलता एर्ां आत्म-वर्सजवन का जीर्न प्रमुख बन गया। ज्ञान,
भत्क्कत तथा तप में से कोई भी हमारे सम्पूणव जीर्न को शुद्ध कर दे ने में समथव है ।
स्र्गव में पहुांचकर ईसा ने कहा है - 'अपने दे र्-मत्न्दर में मैं उसे स्तम्भ बना दां ग
ू ा और उसका कफर
आर्ागमन नहीां होगा।'' 'उसका कफर आर्ागमन नहीां होगा'76- ये शब्द दहन्द-ू धमव के उस भसद्धान्त से त्रबलकुल
भमलते हैं त्जसका कहना है कक मुक्कत आत्मा कफर सांसार में कष्ट उठाने नहीां आती-न पुनरार्वृ त्त । मुक्कत आत्मा के
लिण दहन्द ू एर्ां ईसाई मत में समान ही हैं। मुत्क्कत का फल ज्ञान, प्रेम तथा आनांद है । मुक्कत परु
ु र् को सांसार के
मांगलमय होने में दृढ़ वर्श्र्ास होता है; अतः र्ह दरु ाग्रहों अथर्ा भसद्धान्तों के झांझार्ात से िुब्ध नहीां होता ।
उसमें र्ह सच्चा प्रेम अथर्ा आन्तररक भ्रातभ
ृ ार् जग जाता है जो केर्ल शिुओां को ही िमा नहीां करता प्रत्युत ्
मानर्ता की तनत्श्चत सेर्ा भी करता है । ऐसा कोई महान ् धाभमवक नेता नहीां हुआ त्जसने प्रेम के भसद्धान्त की
महत्ता को स्र्ीकार न ककया हो। उपतनर्दों का मुख्य भसद्धान्त अदहांसा है । बुद्ध का आदे श है कक जो तुमसे घण
ृ ा
करे , तुम्हें उसका कल्याण करना चादहए। बाइत्रबल की 'बदहगवमन' (एक्कसोडस) नामक पुत्स्तका में भलखा है - 'यदद
तम्
ु हें शिु का बैल अथर्ा गधा भमले, तो तम्
ु हें अर्श्य उसे र्ापस लाकर उसके स्र्ामी के पास पहुांचा दे ना चादहए।'
'र्ांश र्णवन' के पैंतालीसर्ें अध्याय से हमें इस बात का ज्ञान होता है कक प्राचीन लोग उदार पुरुर् की ककतनी श्रद्धा
करते थे। उस परमोत्कृष्ट स्थल को दे खखए त्जसमें जोजेफ अपने भाइयों को िमा करता है । रोमान्स को पि
भलखते समय 'पाल', 'लोकोत्क्कतयों की पस्
ु तक' का उल्लेख करता है - 'यदद तम्
ु हारा शिु भख
ू ा हो तो उसे खाना
खखलाओ; अगर र्ह प्यासा हो तो उसे पानी वपलाओ।' ईसा के वर्र्य में भलखा है - 'जब लोगों ने उसे गाभलयाां दीां तो
उसने गाभलयाां नहीां दीां; जब उसे कष्ट ददया गया तो उसने बदला नहीां भलया।"77 मुक्कत परु
ु र् के पास केर्ल ज्ञान
76
ददव्य दशवन (रर्ेलेशन) 3, 12।
77
पीटर 2, 23
भारत की अन्तरात्मा 61
तथा प्रेम ही नहीां होता र्रन ् उसके पास तो र्ह शाांतत भी होती है जो मनुष्यों एर्ां पररत्स्थततयों की शत्क्कत से परे
होती है और त्जसका र्णवन दहन्द ू ककया करते हैं। यही र्ह आनन्द है त्जसकी ओर ईसा ने सांकेत ककया था, जब
उन्होंने कहा था- 'अपना आनन्द मैं तुम्हें दे ता हूां और तम्
ु हारा आनन्द तुमसे कोई नहीां छीनता।'
कमव तथा पुनजवन्म का भसद्धान्त, जो दहन्द-ू धमव की वर्शेर्ता है , स्पष्टतः अधधकाांश ईसाई-वर्द्र्ानों को
नापसन्द है । मुझे भय है कक इस सम्बन्ध में उन्हें भमथ्या-प्रचार का भशकार होना पडा है । मोि अथर्ा तल्लीनता
तब तक सम्भर् नहीां जब तक र्े अपने सांकीणव व्यत्क्कतवर् से धचपटे हैं। जब तक इस भेद-प्रर्वृ त्त का आमूल वर्नाश
नहीां होता, ब्रह्मात्मैक्कय की अनभ
ु तू त नहीां हो सकती। जब तक हम समय पर वर्जय प्राप्त करके पण
ू व नहीां बन
जाते, हम इसी सांसार के, आर्ागमन के, चक्ककर में पडे रहें ग।े यह मत उतना उपाहासास्पद नहीां है , त्जतना इसे
सामान्यतः बताया जाता है । यदद मोि सांसार से परे की त्स्थतत है तो जब तक हम सांसार से धचपटे रहें ग,े काल में
ही सीभमत रहें ग,े तब तक हम उस अमरता को नहीां प्राप्त कर सकेंगे। जब तक हम र्ैयत्क्कतक दृत्ष्टकोण से ऊपर
उठकर सार्वलौककक दृत्ष्टकोण को नहीां अपनाते तब तक हम सत्य तक नहीां पहुांच सकते। र्ैयत्क्कतक दृत्ष्ट बनाये
रखकर सार्वलौककक दृत्ष्टकोण को प्राप्त कर लेने का प्रयास कभी सफल नहीां हो सकता। नैततक वर्कास का यही
लिण है । उसका आधार व्यत्क्कत होता है त्जसकी अपनी योजनाएां, अपने उद्दे श्य एर्ां अपनी रुधच होती है तथा जो
इसी प्रकार के अन्य लोगों से तघरा होता है । नैततक प्रयास के द्र्ारा व्यत्क्कत अपने लक्ष्य के समीप र्ैयत्क्कतक
नैततकता का लोक है त्जसका भसद्धान्त अनन्त वर्कास है, पूणव सफलता की सच्ची अनुभूतत नहीां। काण्ट के
नीततशास्ि में एक बडी ही उपदे शपण
ू व उपमा दी गई है । धमव तनयम का अनरु ोध है कक मानर्-प्रकृतत के भार्ना-
मूलक अांश का पूणव तनरोध कर ददया जाय। हमारे र्तवमान अनुभर् में ऐसा होना असम्भर् है ; अतः इसकी पूततव के
भलए र्ह अनन्त भवर्ष्य की कल्पना करता है ; परन्तु कान्ट भूल जाता है कक असम्भर् कायव के भलए अनन्त काल
78
समथवन तथा सत्न्ध (जस्टीकफकेशन तथा ररकन्
सीभलयेशन), पष्ृ
ठ 387
भारत की अन्तरात्मा 62
सांसार में सर्वि कमव-तनयम पाया जाता है । यह धमव के सभी नाश न होने का तनयम है , त्जसके होने से
श्रम तथा कष्ट उठाकर हम जो कुछ प्राप्त करते हैं, र्ह हमारे भलए सुरक्षित रहता है तथा हम त्जस चररि का
तनमावण करते हैं, र्ह सांधचत रहता है त्जससे हमें परु ाना रास्ता कफर न चलना पडे और हम सदा आगे की ओर,
ऊपर की ओर, अपनी दृत्ष्ट रख सकें। कमवतनयम यह है कक प्रत्येक व्यत्क्कत को, जब तक र्ह अपने तनत्श्चत लक्ष्य
तक नहीां पहुांचता, बराबर अर्सर भमलेगा। यदद ईश्र्र प्रेम है तो कोई भी सदा के भलए पथ-भ्रष्ट नहीां रह सकता ।
ईश्र्र इस रिा के कमव में तब तक बराबर लगा रहे गा जब तक प्रत्येक व्यत्क्कत के भलए ईश्र्र द्र्ारा तनधावररत
उद्दे श्य की समात्प्त नहीां होती। मनुष्यकृत पाप उसके अमरवर् को ढक सकता है , उसका वर्नाश नहीां कर
सकता। ईश्र्र का प्रेम नीच-से-नीच पापी को भी उससे त्रबलकुल पराङमख
ु नहीां होने दे ता। यदद मत्ृ यु ही हमारा
अर्सान होता तो त्जस उद्दे श्य ने हमारी सत्ृ ष्ट की है , र्ह वर्फल हो जाता, क्कयोंकक हममें से अधधकतर लोग पापी
दशा में ही त्रबना पश्चात्ताप ककये ही मर जाते हैं। यदद हम ईश्र्र के उद्दे श्य से ईश्र्र की वर्फलता नहीां स्र्ीकार
करते-त्जसके मान लेने से ईश्र्र के स्र्रूप में बहुत बडी पररत्च्छन्नता को स्र्ीकार करना होगा-तो मत्ृ यु के
पश्चात ् प्रत्येक आत्मा को, आत्मवर्कास के भलए तथा अपने में ही ईश्र्र को अभभव्यत्क्कत करने के भलए उधचत
अर्सर भमलना चादहए। उस दस
ू रे भसद्धान्त की अपेिा, त्जसने अधधकतर मनष्ु यों के भलए नरक की रचना कर
रखी है एर्ां त्जसका ईसाई-जगत ् में बडा मान है , यह मत ईश्र्र के प्रेम तथा न्याय को ध्यान में रखते हुए अधधक
सुसांगत प्रतीत होता है । ईश्र्र के प्रेमरूप की सत्यता को अधधक अनुभर् करने पर ईसाई-वर्द्र्ान ् भी मत्ृ यु के
पश्चात ् र्ाले वर्कास को मान लेंगे।
सन्त पाल के कथनानुसार- 'ईश्र्र के पुिों की अभभव्यत्क्कत की प्रतीिा में .... समस्त सत्ृ ष्ट र्ेदना-वर्ह्र्ल
होकर दःु खभरी भससककयाां ले रही है ।' अगर कुछ पुरुर् अपने को ईश्र्र के पि
ु रूप में अभभव्यत्क्कत करने से सदा के
भलए र्ांधचत करे ददये गये हैं तो ईश्र्र-तनधावररत सांसार की आदशव पररणतत भांग हो चुकी है । ईश्र्र की
भारत की अन्तरात्मा 63
सर्वव्यापकता का अनुरोध है कक हम यह वर्श्र्ास करें कक कोई भी अनन्त काल तक नरक में ही सडते रहने के
योग्य नहीां है । र्ह ककतना ही क्कयों न भटक जाय, ऐसा नहीां हो सकता कक उसका उद्धार एकान्त असम्भर् हो
जाय। अपने पाप, मूखत
व ा एर्ां स्र्ाथवपरायणता से कोई अपने दे र्त्र् को ककतना ही क्कयों न ढक ले, उसे सर्वथा दरू
कर लेने की शत्क्कत उसमें नहीां है । केर्ल तनस्सहाय शान्त जीर्न, र्ह व्यत्क्कत त्जसका आधार अनन्त परमात्मा
नहीां है , दस
ू रे शब्दों में केर्ल र्ह मनुष्य ही त्जसकी रचना ईश्र्र ने न की हो, ऐसा कूडा हो सकता है जो नरक की
ज्र्ाला में फेंके जाने के योग्य है , र्ह व्यत्क्कत नहीां जो मनष्ु य की ददव्य आकृतत से सम्पन्न है । जीर्न में र्ह
ककतना ही घोर पाप क्कयों न करें , उसकी अमरता नष्ट नहीां हो सकती। जूडस के घखृ णत आर्रण के नीचे बीजरूप में
ददव्य शत्क्कत को धारण ककये ककसी ईसा की मद्र
ु ा तछपी है । सन्त पाल का कहना है - 'लोगों के हृदय पर एक पदाव
पडा; ककन्तु जैसे ही कोई परु
ु र् ईश्र्र की ओर बढ़े गा।' इन शब्दों पर ध्यान दीत्जए। इसका अथव है कक व्यत्क्कत के
इततहास में ककसी-न-ककसी समय इस जीर्न में अथर्ा इसके बाद र्ाले जीर्न में , जभी र्ह आत्मग्लातन का
अनुभर् करे गा, उसे उद्धार का मौका अर्श्य भमलेगा। दहन्दओ
ु ां की दृत्ष्ट में 'डाइर्ज ्' को दृष्टान्त पराकाष्ठा के
दःु ख की कथा है ।'79 आत्मग्लातन से भरकर र्ह एक छोटे -से अनग्र
ु ह की, सो भी अपने भलए नहीां, याचना करता है
पर ईश्र्र उसकी प्राथवना पर ध्यान ही नहीां दे ता, क्कयोंकक नरक में पडे हुए व्यत्क्कत के भलए मुत्क्कत की कोई
सम्भार्ना नहीां। मर चक
ु ने के बाद, ऐसा प्रतीत होता है , मनुष्य के भाग्य का तनणवय सदा के भलए हो जाता है । यदद
हम यह भी मान लें कक ईश्र्र प्रेम नहीां है , र्ह कठोर न्याय ही है तथा अन्याय पर उसे घोर िोध आता है तो भी
डाइर्जू के साथ जो व्यर्हार ककया गया है र्ह न्याययुक्कत नहीां है । यदद इस जीर्न में ककसी ने अपनी िुदटयों के
भलए पश्चात्ताप नहीां ककया तो इसके भलए हम उसे अनन्त काल तक तो दण्ड नहीां दे सकते। 'पुरानी धमव पुस्तक'
भी ईश्र्र के केर्ल न्याय-रूप के ऊपर उठ गई है । कुछ महात्माओां एर्ां भजन-लेखकों के वर्चार अधधक वर्शाल
हैं।' परमात्मा दयालु एर्ां िमाशील है ; र्ह दे र में िुद्ध होता है पर कृपा करने में बडा उदार रहता है ।"80 ऐसे ईश्र्र
से, जो िमा करने को सदा तैयार रहता है तथा पापी को भी कफर से शरण में ले सकता है , डाइर्ज ् का भला हो
सकता है । ईसा के ईश्र्र से र्ह ककतनी अधधक आशा कर सकता है जो अपव्ययी पि
ु के स्र्ागत की प्रतीिा में
बैठा वपता ही नहीां है र्रन ् र्ह गडररया भी है जो पहाडों में भटकी हुई भेडों की खोज भी करता है । यदद ईश्र्र
पावपयों को खोजकर सीधे मागव पर लाता है तो डाइर्ज ् का पश्चात्ताप उसी प्रसन्नता का वर्र्य होगा। यदद ईश्र्र
में कल्पनातीत दया है , यदद र्ह हमारे वर्चारों से बढ़कर, हमारी इच्छा से अधधक, कृपालु है , तो क्कया ऐसे भवर्ष्य
की आशा करना, त्जसमें डाइर्ज ्-जैसे आत्माएां अपना वर्कास कर सकें, इतनी बडी दरु ाशा है कक र्ह सत्य न हो
सके? यदद पापी होकर भी तुम अपने बच्चों को सुन्दर उपहार दे ना जानते हो तो स्र्गव में रहनेर्ाले तुम्हारा वपता
माांगने पर तुम्हें ककतना अधधक नहीां दे सकता I'81 यदद यह यदद यह सत्य है कक त्जतनी िमा हमने पाई है , उतनी
िमा हम स्र्यां दस
ू रों को दे नहीां सकते तो क्कया यह मानना ठीक होगा कक परमात्मा त्रबना बदला भलए नहीां मान
सकता? वर्कास के भलए अनन्त भवर्ष्य तनबावध पडा है ।
79
लक
ू 16, 19-31
80
भजन 103, 81
81
मैथ्यू 7, 11 ।
भारत की अन्तरात्मा 64
यह कहने के अलार्ा कक परमात्मा त्जांदा लोगों का ईश्र्र है मुरदों का नहीां, ईसा ने और कोई र्णवन
भवर्ष्य-जीर्न का नहीां ककया। भेडों तथा बकररयों, डाइर्ज ् तथा लेजरस आददक दृष्टान्त-कथाओां में जो सांकेत
पाये जाते हैं र्े उस युग के स्र्गव एर्ां नरक-सम्बन्धी उन वर्चारों से प्रभावर्त है जो उन्हें दे श वर्शेर् समझकर
आनन्द तथा दःु ख से भरा मानते थे, अतएर् र्े र्तवमान प्रश्न से असम्बद्ध हैं। इतना स्पष्ट है कक मत्ृ यु और
न्याय में बहुत अधधक काल का अन्तर र्ह नहीां मानता था, क्कयोंकक धनी अततभिक तथा लेजरस को प्रायः मत्ृ यु
के अनन्तर ही दण्ड भमल गया था। पश्चात्ताप करने र्ाले चोर को ईसा धोखा नहीां दे रहा था, जब उसने कहा था-
'आज तुम हमारे साथ स्र्गव चलोगे I'82 'ईसा के इन कथनों से इस शास्िमत का समथवन नहीां होता कक मरने के
बाद मत
ृ पुरुर् अपने भौततक शरीर के साथ न्याय के भलए उठें गे। उस साम्प्रदातयक मत को मानने पर यह जानना
कदठन है कक मत्ृ यु एर्ां न्याय के बीच के माल में असांख्य मत
ृ परु
ु र्ों पर कैसी बीतती है । ईसा के चररि एर्ां भशिा के
अनुकूल स्र्गव तथा नरक की केर्ल यही व्याख्या हो सकती है कक उनका सांकेत मानभसक पररर्तवन की ओर है ।
स्र्गव आत्मा की उन्नतत का प्रतीक है और नरक उसके वर्परीत। और स्र्गव में नरक की ही भाांतत कई स्तर हैं,
भगर्ान ् का राज्य में अनेक राजप्रासाद हैं और प्रत्येक व्यत्क्कत अपने वर्श्र्ास की दृढ़ता एर्ां र्ांधचत पण्
ु य के
अनुसार उपयक्क
ु त स्थान पर पहुांचेगा। यही र्ह पद्धतत है त्जसमें भगर्ान ् का न्याय चलता है -यही कमव-तनयम का
भसद्धान्त है । त्जस भाांतत कोई व्यत्क्कत प्राप्त अर्सर का उपयोग करे गा र्ैसी ही उसकी गतत होगी एर्ां उसके
उपयोग के प्रकार एर्ां वर्स्तार पर उसकी उन्नतत का स्तर तनभवर होगा। उसके कथनों से इस बात का साफ पता
चलता है कक ईसा को आध्यात्त्मक जीर्न की तनरन्तरता का, मत्ृ यु के पश्चात ् भी उसकी सत्ता का, ज्ञान था। उसे
पता है कक न्याय के ददन लोगों को प्रत्येक असाधानी अथर्ा लापरर्ाही के साथ कहे हुए शब्द का उत्तर दे ना होगा।
स्नेह एर्ां करुणा से प्रेररत हमारे सब िुद्र कमों का -'मैं भूखा था और तुमने मझ
ु े खाने को ददया था'- काफी
महवर्पूणव पररणाम होगा।
यह तनयम इस बात पर ठीक ही जोर दे ता है कक हमारा समस्त आचरण ही हमारे भवर्ष्य का तनणवय
करता है । बपततस्मा-जैसी एक अकेली घटना मनष्ु य के भाग्य का तनणवय नहीां कर सकती। यदद अन्य
पररत्स्थततयाां समान हैं तो बपततस्मा लेकर शीघ्र ही मर जाने र्ाला बच्चा तथा त्रबना बपततस्मा के ही चल
बसनेर्ाला भशशु प्रायः एक समान ही भवर्ष्य के अधधकारी होंगे। यह जानकर ईसा को महान ् खेद होगा कक उसके
प्रेम-सन्दे श के अनुसार श्रद्धा में प्रमाद के कारण, दस
ू रे धमव में उत्पन्न हो जाने की दघ
ु ट
व ना के कारण अथर्ा
ककसी चमत्कारपण
ू व सांस्कार के अभार् के कारण ककसी को भी अनन्तकाल तक नरक-यातना भोगनी होगी।
82
लूक 23, 1,43।
भारत की अन्तरात्मा 65
उसका भाग्य तो उस आध्यात्त्मक वर्कास पर तनभवर होगा, त्जसके प्रयास में उसे सफलता अथर्ा असफलता
भमली है ।
कमव-तनयम के वर्रुद्ध यह कहा गया है कक कुछ अचेतन यांि से भमलता-जुलता है और ईश्र्र के प्रेम के
साथ उसका ठीक मेल नहीां खाता। दहन्द-ू शास्ि ईश्र्र की उस कल्पना को त्रबलकुल पसन्द नहीां करता जो उसे
तनरां कुश बताती है और यह मानती है कक र्ह जब चाहता है तो ककसी को पापी तथा ककसी को साधु बनाकर
तनसगवतनयम में हस्तिेप ककया करता है । यह कहना कक ईश्र्र का प्रेम नैततक आचरण से वर्रुद्ध नहीां होता,
कालवर्न के भसद्धान्त को मान लेना है जो मनमाने अवर्चारपण
ू व धमव-तनयमों का उपदे श ककया करता था और
कहता था कक ईसा के भक्कत कुछ भी क्कयों न करें , सद्गतत पायेंगे तथा जो उसके भक्कत नहीां हैं र्े कुछ भी क्कयों न
करें , नरक में पडेंगे ही। लोगों के आचरण की उपेिा करना ईश्र्र के भलए सम्भर् नहीां है , यद्यवप उसका प्रेम
इतना वर्शाल है कक जो व्यत्क्कत भी ठीक कदम उठाता है, उसकी सहायता ककये त्रबना र्ह नहीां रह सकता।
अध्यात्म-जगत ् के तनयमों का अनुरोध है कक पश्चात्ताप के बाद पापों के भलए िमा भमल जाना चादहए। धमव-
तनयम तो ईश्र्र का प्राण ही है ; अतः यह आर्श्यक है कक हमारे भार्ी अनुभर् हमारे कमों की नैततकता पर
आधाररत रहें । ईश्र्र की दृढ़ता और उसके प्रेम में कोई वर्रोध नहीां है । ईश्र्र की सर्वव्यापकता का भसद्धान्त यह
है कक ईश्र्र का न्याय कहीां बाहर से नहीां आता; र्ह तो भीतर से ही प्रेररत होता है । हम अपने कमों के ही द्र्ारा
उठते अथर्ा धगरते हैं। ईश्र्र के तनयमों से छूटना सम्भर् नहीां; र्े हमारे हाथ और पैरों से भी अधधक समीप हैं और
र्ास्तर् में हम सबका मूल है । कमव-तनयम का अथव यह है कक जो ईश्र्रप्रणीत तनयमों का उल्लांघन करें ग,े र्े उस
उल्लांघन के फलस्र्रूप अर्श्य दःु ख भोगें गे यद्यवप पश्चात्ताप एर्ां सुधार की सम्भार्ना प्रत्येक त्स्थतत में रहे गी।
दहन्दओ
ु ां के इस कमव-तनयम को याांत्रिक मानकर-क्कयोंकक इसके अनुसार प्रत्येक व्यत्क्कत को अपने कमों
को पूरा फल भोगना पडता है -जो लोग इसकी तनांदा करते हैं, र्े एक अनोखे ढां ग से उससे बुरे इस तनयम को
स्र्ीकार कर लेते हैं कक पापी के अततररक्कत ककसी दस
ू रे के उन पापों का फल भोग लेने से काम चल जाता है । ठीक
हो चाहे गलत, यह बात तो समझ में आती है कक कोई मनष्ु य ककसी दस
ू रे के पाप का फल भोगे पर क्कया तब
त्स्थतत यदद घखृ णत नहीां तो कम-से-कम लोक-वर्रुद्ध नहीां हो जाती जब पापी परम सांतोर् के साथ यह तनश्चय
कर लेता है कक उसके पापों का दण्ड दस
ू रा भोगे; यह भसद्धान्त वर्चारहीन पुरुर्ों को इस धोखे में डाले रहता है कक
र्े त्जतना चाहें पाप करते रहें , क्कयोंकक ककसी-न-ककसी ददन ईश्र्र एक दत
ू अथर्ा अपने पि
ु को अर्श्य भेज दे गा,
जो सबके पापों का दण्ड भोग लेगा। रूदढ़र्ादी ईसाई-मत ईसा के कष्ट एर्ां मत्ृ यु को त्जस रूप में दे खता है , र्ह
तभी सम्भर् हो सकता है जब हम ईश्र्र को एक सुन्दर तराजू मान लें। दहन्द-ू मत में ईश्र्र का प्रेम तथा मनुष्य
का यत्न, दोनों ही आध्यात्त्मक उन्नतत के भलए आर्श्यक माने गये हैं। यह प्रभसांद्ध ही है कक कमव-तनयम की
उद्भार्ना मनष्ु यों की वर्र्मता को समझाने के भलए की गई है । अनुभर् से ज्ञात होता है कक सब मनष्ु य बुद्धध
अथर्ा बाह्य पररत्स्थततयों में समान नहीां होते। मानर्ात्मा के तनमावण में र्ांश-परम्परा तथा र्ातार्रण का
पयावप्त प्रभार् पडता है । यदद कालवर्न की ही भाांतत हम भी वर्श्र्ास करते हैं कक सांसार का तनयन्ता कोई
स्नेहशील, वर्चारर्ान ् व्यत्क्कत है तो हमें मानना ही पडेगा कक यह वर्र्मता आकत्स्मक, केर्ल घटनाजात, नहीां है ,
भारत की अन्तरात्मा 66
यहाां तक तो दहन्द ू समझ सकता है ; ककन्तु जब कालवर्न इस तनर्ावचन अथर्ायन के भसद्धान्त को सामने रखता
है कक ईश्र्र की स्र्च्छन्द इच्छा ने ककसी को स्र्गव तथा ककसी को नरक के भलए चुन रखा है तो दहन्द ू उसके
नेतत्ृ र् को सन्दे ह की दृत्ष्ट से दे खता है और यह जानना चाहता है कक क्कया इससे अधधक सांयुत्क्कतक समाधान नहीां
हो सकता। ईश्र्र तथा मनुष्य के बीच ऐसे जड-सम्बन्ध को मान लेने की कोई आर्श्यकता नहीां। कमव का
भसद्धान्त इस गण
ु र्ैधचत्र्य को परमात्मा की सांयत इच्छा पर आधाररत मानता है । ईश्र्र के स्र्रूप में ककसी
सर्वथा वर्चारहीन तवर् का समार्ेश करने के भलए दहन्द ू तैयार नहीां। उसका वर्श्र्ास है कक एक ही र्द्वधमान
उद्दे श्य वर्श्र्-भर के वर्कास में अभभव्यक्कत हो रहा है और यदद कुछ लोग दस
ू रों की अपेिा अधधक सुगमतापूर्क
व
ईश्र्र के कृपापाि बन सकते हैं तो केर्ल इसीभलए कक पहले जन्म में र्े काफी प्रयास कर चुके हैं। सन्त पाल का
कथन है - 'आदमी जो बोता है , र्ही काटता भी है ।' कमव-तनयम इस बात को मान लेता है तथा थोडा और आगे
बढ़कर कहता है - 'जो कुछ भी आदमी काटता है उसे उसने अर्श्य बोया होगा।' मेरा ख्याल है कक ईसा को इस
व्यापक सांकेत का ज्ञान था। पिघात के रोगी से जब उसने कहा था- 'पुि, - दहम्मत बाांधों, तुम्हारे पाप िमा कर
ददये गये हैं,' तो उसका यही अभभप्राय था कक उसकी पीडा उसके पर्
ू व पापों का पररणाम थी। हो सकता है कक पापी
उन्हें भूल गया हो पर ईश्र्र नहीां भूला। आधुतनक मनोवर्ज्ञान का कहना है कक हमारे पूर्व कमव अचेतन मन में
सांगह
ृ ीत रहते हैं। ईसा ने कमव-तनयम जैसे भसद्धान्त की कल्पना करके रोगी से कहा था-(सन्त जान 5, 14)।
हमारी वर्पवत्तयाां ककसी न्यायाधीश की मनमानी आज्ञा नहीां है जो हम पर लाद दी जायां, भले ही हम उसके
अधधकारी न हों। हमारी इच्छा के वर्रुद्ध भी जो वर्पवत्त हमारे गले मढ़ दी जाती है , र्ह हमारे ही पूर्व पापों का
पाररश्रभमक है । हम उसे सम्मान अथर्ा गर्व का वर्र्य नहीां समझ सकते। यदद ऐसा होता तो नरक-यातना
भोगनेर्ालों के भलए लजाने की बात ही कौन-सी थी। ईसा वर्पवत्त की यही उपयोधगता समझता था कक र्ह हमें पाप
से रोके तथा धमव में प्रोत्सादहत करे ।
स्र्ेच्छापर्
ू कव जो कष्ट उठाया जाता है उस पर उपयक्क
ुव त कथन नहीां घदटत होता। र्ह कष्ट तो आत्मा-
शुद्धध के भलए तब तक उठाया जाता है जब तक हमें अमर जीर्न की प्रात्प्त न हो जाय। जब हम पूणव हो जाते हैं
तो हम भी ईश्र्र के तनरपेि भार्ों के सज
ृ न एर्ां रिण में सहायक हो जाते हैं। उसके उपरान्त कभी कष्ट
स्र्ेच्छापर्
ू कव स्र्ीकार ककया जाता है यद्यवप र्ह कष्ट सामान्य कष्ट से सर्वथा भभन्न होता है । मानर् जातत की
रिा के भलए भशर् ने वर्र्पान ककया। महायान सम्प्रदाय के अनुसार बुद्ध ने मनुष्यों के कल्याण के भलए
तनर्ावणपद को त्याग ददया था। पूर्व पाप के दण्डरूप तथा उसी प्रकार के प्रतीत होने र्ाले, महात्माओां द्र्ारा
स्र्ेच्छा से अांगीकृत कष्ट के अलार्ा एक तीसरे प्रकार का कष्ट भी होता है त्जसे दहन्द-ू शास्िों में तप कहा गया है ।
तप उस कष्ट को कहते हैं जो मुत्क्कत पथ के पधथक आत्म-वर्कास अथर्ा वर्श्र्-कल्याण के भलए स्र्तः अपने
ऊपर ले लेते हैं। यह बडा ही कदठन काम है और सांसार के बडे-से-बडे महात्मा उससे घबरा गये हैं। जेथसी मीन का
स्थल दे खखए। मत्ु क्कत पाने के भलए सबसे अधधक उपयक्क
ु त मागव यही लोक-दहत के भलए कष्ट उठाना है । सांन्यासी
सम्राट् भशर् अपने भक्कतों से कठोर सांन्यास एर्ां आत्म-वर्सजवन की आशा करते हैं, र्ैसे ही जैसे ब्रह्मा ध्यान और
वर्ष्णु भत्क्कत चाहते हैं। यदद कोई पापमक्क
ु त होकर ईश्र्र का पुि बनना चाहता है तो स्नेह से प्रेररत होकर वर्श्र् के
भलए कष्ट उठाने का मल्
ू य उसे चुकाना ही होगा। ईसाई त्जस स्र्त्स्तक-धचन्ह को इतना महवर् दे ते हैं उससे दहन्द ू
भारत की अन्तरात्मा 67
जरा भी नहीां धचढ़ते और न उसे र्े ककसी प्रकार की अडचन ही मानते हैं। र्ह तो ईश्र्र की र्ास्तवर्क करुणा का
प्रतीक है । र्ह प्रकट करता है कक ककस प्रकार प्रेम का आधार आत्म-वर्सजवन ही है । दहन्दी-धमव के इततहास में
अनेक ऋवर्यों तथा बद्
ु धों के दृष्टान्त हैं त्जन्होंने तपस्या को भी पवर्ि कर ददया है और त्जन्होंने लोक-दहत के
भलए आर्श्यकता से अधधक कष्ट सहन ककया है । यह स्र्ेच्छापूर्क
व अांगीकृत ककया कष्ट पूर्व पापों का पररणाम
नहीां है । बहुत ददनों से ईसाई धमावचायव इस अनन्त दां ड-वर्धान के प्रश्न से परे शान हैं तथा उन्होंने भार्ी वर्कास के
भलए कई योजनाएां प्रस्तत
ु की हैं। 1429 में ्लोरे न्स में जो सभा हुई थी, उसने 'परगेटरी' का समाधान तनकाला।
'परगेटरी' न तो स्र्गव है और न नरक। पुजारी फेरार ने एक बीच की परीक्ष्यमाण त्स्थतत का तनदे श ककया है
त्जसमें जीर्ों को पश्चात्ताप करने का अर्सर भमलेगा। कुछ धमव-शास्िी पीटर (3, 19; 4, 6 ) के अस्पष्ट र्चनों के
आधार पर मत्ृ यु तथा अत्न्तम न्याय के बीच में एक मध्यमा त्स्थतत को स्र्ीकार करते हैं। यद्यवप र्तवमान तथा
भार्ी जीर्न में अवर्त्च्छन्न सम्बन्ध माननेर्ाले अनेक हैं पर पूर्ज
व न्म का समथवन करने र्ाले नहीां के बराबर हैं।
कुछ समय के बाद पाश्चात्य वर्द्र्ान ् भी दहन्द-ू धमव के उन मूल्यर्ान ् अांशों को समझेंगे जो अब अनेक अनगवल
पौराखणक कथाओां में दब-से गये हैं और त्जनके अिरशः सत्य होने में ककसी भी दहन्द ू का वर्श्र्ास नहीां है ।
भारतीय ईसाई, जो उसी र्ातार्रण में रहते हैं त्जसमें दहन्द ू रहते हैं तथा जो भारत के अतीत से सुर्ाभसत
हैं, ईश्र्र की सर्वव्यापकता से भरे हैं। उनके भलए इस सांददग्ध भसद्धान्त को मानना ददन-ददन कदठन होता जा रहा
है कक ईश्र्र बडा कठोर है तथा उसमें अलौककक शत्क्कत है त्जससे र्ह अपनी अर्ज्ञा करनेर्ालों को घोर दण्ड दे ता
है , त्जस भसद्धान्त के अनुसार ईसा परमात्मा का भी परमात्मा है जो मनष्ु य-जातत की पाप-शात्न्त के भलए शूली
पर चढ़ा एर्ां जो मरकर जी उठने की चमत्कारी घटना को एक बहुत बडे पैमाने पर दोहरानेर्ाला है , जब र्ह कफर
शान के साथ उस सांसार में अर्तररत होगा त्जसने पहली बार उसकी अर्हे लना की थी। वर्चारशील, वर्शेर्तः नई
पीढ़ी के, भारतीय ईसाई मानते हैं कक ईश्र्र सब मनष्ु यों में तथा समस्त सांसार में मौजद
ू है । यद्यवप ईसा ने अपने
को इतना पूणव कर भलया था कक अन्य पुरुर्ों की अपेिा उसमें ईश्र्र की अभभव्यत्क्कत अधधक सुस्पष्ट हो उठी थी।
उनका मत है कक ईसा को जीर्न, त्जसने भगर्ान ् के उस मांगलमय प्रेम को स्पष्ट कर ददया त्जसे पुरानी धमव-
पस्
ु तक में भल
ु ा ददया गया था यद्यवप इशाया आददक कुछ महात्मा उससे अनभभज्ञ न थे, सांसार की र्तवमान
पररत्स्थतत में वर्शेर् उपयोगी है । र्े वर्श्र्ासपूर्क
व आशा करते हैं कक भद्रता तथा ईसाई धमव सम्मत प्रेम-ईसाई-
धमव-भसद्धान्त नहीां-के िभमक प्रसार से पथ्
ृ र्ी पर सत्युग अर्श्य आर्ेगा। उन्हें बहुत बरु ा मालूम पडता है जब
उनके वर्दे शी सहधमी, त्जन्हें परम्परा-प्राप्त तनयमों vec 7 भशधथलता आ जाने के दष्ु पररणामों का कोई ज्ञान
नहीां, दहन्दओ
ु ां के अमूल्य भसद्धान्तों, जैसे ईश्र्र की सर्वव्यापकता, अदहांसा, कमव तथा पन
ु जवन्म के सम्बन्ध में
झूठा प्रचार करके उनका उपहास करते हैं। आज भारत का ईसाई धमव दहन्द-ू भसद्धान्तों से प्रभावर्त हो रहा है । र्ह
दहन्द-ू भसद्धान्तों को सन
ु तथा समझकर उनका अनक
ु रण कर सकता है अथर्ा उसकी बातों को अनसन
ु ी करके
उससे दरू रह सकता है ; परन्तु लिणों से तो यही प्रतीत होता है कक र्ह ठीक ही पथ चुन रहा है । र्ह यह प्रयास कर
रहा है कक दहन्द-ू धमव के उत्तम भसद्धान्त तथा ईसाई धमव vec b अच्छे तवर्ों को भमला ददया जाय और यदद र्ह
भारत की अन्तरात्मा 68
इसमें सफल होता है तो दहन्द ू प्रभावर्त ईसाई धमव से केर्ल भारतर्र्व का ही लाभ नहीां होगा र्रन ् सांसार का
आध्यात्त्मक जीर्न अधधक समद्
ृ ध हो जाएगा।
बौद्ध-धमव
बौद्ध-धमव के सांस्थापक गौतम बुद्ध की गणना सांसार के महापुरुर्ों में की जाती है । उनके सम्बन्ध में
स्र्भार्तः अनेक दन्त-कथाएां प्रचभलत हो गई हैं और ऐसे लोग भी हैं त्जनका दार्ा है कक उनका समस्त जीर्न
जन्म से लेकर मत्ृ यु तक कल्पना ही है ; परन्तु यह तो मानना ही पडेगा कक बुद्ध भोग-वर्लास के र्ातार्रण में
जन्म लेनेर्ाले एक राजकुमार थे त्जन्होंने यौर्न में ही सांसार छोडकर एकान्तर्ास अपना भलया था तथा ध्यान
एर्ां धचन्तन के द्र्ारा ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास ककया था।
र्ह बौद्धधक सांिोभ का युग था । प्रचारकों की बौद्धधक वर्लिणता एर्ां प्रर्वृ त्त से उत्पन्न अनेक
भसद्धान्तों तथा कल्पनाओां से र्ातार्रण पण
ू व था। कुछ उन्हें स्र्ीकार करते थे, कुछ उनका प्रततर्ाद करते थे।83'
इस सांघर्वपण
ू व उत्साह एर्ां वर्रोधी दशवनों को दे खकर बद्
ु ध ने तनश्चय कर भलया कक दाशवतनक गर्ेर्णा व्यथव है ।
उन्होंने दे खा कक आचरण-िेि में कमव-काांड की सांस्कार-पद्धतत ने नैततक कतवव्य-पालन का स्थान ले भलया है ।
धाभमवक िेि में भी असभ्यता-युग के अन्ध-वर्श्र्ास कफर से सर उठा रहे थे एर्ां स्र्ाथव-परायण पुरुर् अपने
दहतसाधन में उनका उपयोग कर रहे थे। बद्
ु ध ने बताया कक त्रबना पज
ु ाररयों की मध्यस्थता अथर्ा ईश्र्र की चचाव
के भी हम मुत्क्कत प्राप्त कर सकते हैं। लोक-कल्याण-साधन अथर्ा शुद्ध आचरण से मोि भमलता है , तनत्श्चत
फल पानेर्ाले दरु ाग्रहों को मानने अथर्ा िुद्ध दे र्ताओां की रोर्-शात्न्त के उद्दे श्य से रहस्यपूणव कियाओां के
सम्पादन से नहीां। दाशवतनक धचन्तन की ओर से वर्रत्क्कत, धमवशास्ि में अनास्था तथा नैततक आचरण में
अनुरत्क्कत ही बुद्ध के उपदे शों की वर्शेर्ता है ।
83
ब्रह्मजाल सुत्त दे खों
भारत की अन्तरात्मा 69
यदद हम व्यापार के स्थान में र्स्तुओां अथर्ा पदाथों की चचाव करते हैं तो हम अत्स्तवर्हीन पदाथों की
चचाव करते हैं। द्रव्य तथा गण
ु , सम्पण
ू व तथा अर्यर्, कारण तथा पररणाम आददक न्याय-सम्बन्धों के द्र्ारा हम
त्स्थर प्रतीत होने र्ाले वर्श्र् की रचना कर लेते हैं। ये सम्बन्ध वर्चारजगत के भलए सत्य हैं, र्स्तु जगत ् के भलए
नहीां। स्र्भार्तः हम र्स्तुओां के आधारस्र्रूप ककसी तनत्य द्रव्य की कल्पना का गढ़ हुआ होता है । हम कहते हैं-
र्त्ृ ष्ट हो रही है , ककन्तु 'र्त्ृ ष्ट' पदाथव की सत्ता कहाां है ? गतत को छोडकर और कुछ भी तो नहीां है । किया है , परकताव
कहीां नहीां है । हम तनरन्तर प्रर्ाह को र्स्तुओां की पररर्तवनरदहत एकरूपता समझते हैं। भशश,ु बालक, युर्क, प्रौढ़
तथा र्ि
ृ एक ही हैं। बीज और र्ि
ृ एक हैं। एक के बाद दस
ू री त्स्थतत इतनी शीघ्रतापूर्क
व आ जाती है कक हम उसे
अखांड एकता समझते हैं, उसी तरह जैसे जलती हुए लकडी को घम
ु ाने से हमें एक अखांड र्त्त
ृ का भ्रम होने लगता
है । एक बडी उपयोगी प्रथा के अनुरोध से हम भभन्न-भभन्न समुदायों को वर्भशष्ट नामों से पुकारने लगते हैं। नाम
की अखांडता के कारण हमें उस नाम से युक्कत पदाथव को ही अखांड एक समझने का भ्रम होता है ।
स्थायी द्रव्य के अभार् में सांसार की तनरन्तरता को सार्वभौभमक कारणर्ाद के भसद्धान्त के द्र्ारा
प्रततपाददत ककया जाता है । र्स्तु तो केर्ल ककसी धमव का नाम है , ककसी कारण अथर्ा दशा की सांज्ञा है । 'उसकी
उपत्स्थतत में यह होता है , उसके उत्पन्न होने पर इसकी उत्पवत्त होती है , उसके अभार् में यह नहीां उत्पन्न हो
सकता, उसका अन्त होने पर इसका भी अन्त हो जाता है ।' (मत्ज्झक तनकाय 11, 32) यह 'प्रतीत्य समुत्पाद' को
भसद्धान्त अथर्ा सापेि-कारणतार्ाद कहलाता है । पररर्तवन होने र्ाली ककसी र्स्तु की सत्ता नहीां है , केर्ल
पररर्तवन स्यमेर् घदटत हो रहा है । वर्श्र्-श्रांख
ृ ला वर्नाश एर्ां तत्पश्चात नूतन सत्ृ ष्टयों की श्रख
ां ृ ला नहीां है । एक
दशा अपनी 'पच्छायशत्क्कत' - सत्ृ ष्ट-शत्क्कत-अपने पश्चात ् आनेर्ाली दशा को दे जाती है । अतीत तथा र्तवमान एक
सत्न्ध में आबद्ध हो जाते हैं और जब हम प्रकृतत का बदहरां ग वर्र्ेचन करते हैं तो उसे 'पर्
ू 'व तथा 'पर' की वर्भभन्न
त्स्थततयों की एक तनरन्तर परम्परा के नाम से अभभदहत करते हैं।
यह प्राण तथा गतत के जीर्न का सांसार एक तनयम के अधीन है । जगत ्-व्यापार में इस तनयम की
उपत्स्थतत ही सांकट के समय मनुष्य को आशा बांधाती है । इस जगत ्-व्यापार का वर्भशष्टरूप कैसा है , इस
सम्बन्ध में अनेक मत हैं। अधधकतर लोग उसकी सत्ता से तो नहीां इनकार करते पर उसे शत्क्कत मानते हैं कभी-
कभी ऐसे सांकेत भी भमलते हैं, त्जसमें यह र्स्त-ु जगत ् धचत्त का वर्कारमाि बताया गया है । 'चेतना का वर्नाश कर
दे ने से इस अशेर् वर्श्र् का अर्सान हो जाता है ।' यह जगत ् अवर्द्याजतनत है , ज्ञानी के भलए उसकी सत्ता नहीां।
सांसार के नाना पदाथव कभी-कभी तनगण
ुव की अभभव्यत्क्कत समझे जाते हैं। जब र्ास्तवर्क ज्ञान उत्पन्न हो जाता है
तो सांत्श्लष्ट पदाथव सामप्त हो जाता है , केर्ल मूल तवर् शेर् यह जाते हैं। इस अभभव्यत्क्कत के सांसार का वर्श्लेर्ण
करना बुद्ध को अभीष्ट नहीां था। उनका उद्दे श्य इसके जाल से मक्क
ु त होने में सहायता दे ना था। 'जो लोग
भारत की अन्तरात्मा 70
धधकती आग में जल रह हों, उन्हें आग की मीमाांसा करने की आर्श्यकता नहीां, उन्हें तो येन-केन-प्रकारे ण उससे
बच तनकलना है ।'
प्रत्येक जीर् एक भमधश्रत द्रव्य है त्जसके घटकार्यन, नाम एर्ां रूप तनत्य बदलते रहते हैं। र्ेदना, सांज्ञा,
सांस्कार तथा वर्ज्ञान मन के अांग हैं। र्ेदना रागात्मक अांश है , सांज्ञा तथा बद्
ु धध ज्ञान से सम्बत्न्धत हैं एर्ां सांस्कार
चेष्टा से। बुद्धध कभी-कभी जीर् का काम करती है । ककसी तनत्य जीर्न अथर्ा आत्मा का कोई प्रमाण नहीां
भमलता। 'जब कोई मनष्ु य कहता है 'मैं' तो उसका सांकेत या तो अर्यर्-समत्ष्ट की ओर होता है या उसमें से ककसी
एक की ओर, और इस भाांतत उसे र्ह 'मैं' समझकर अपने को धोखा ददया करता है ।' (सांयक्क
ु त तन. 3, 130)। बद्
ु ध
व्यार्हाररक आत्मा के घटकार्यर्ों की बात करके ही चुप हो जाते हैं, र्े तनत्य आत्मा का स्पष्ट वर्रोध नहीां करते।
नागसेन तनत्य आत्मा को न्याय-वर्रुद्ध कल्पना कहता है तथा मानर्ात्मा को मनकी एकी करण शत्क्कत के
द्र्ारा कत्ल्पत एर्ां जदटल भार् बताता है । त्जस प्रकार अनेक गण
ु ों के सांग्रह का नाम शरीर है उसी प्रकार हमारी
समस्त मानभसक दशाओां का समुच्चय ही आत्मा कहलाता है ।
आत्मा की कल्पना में पुनजवन्म को साथवक बनाने के भलए पयावप्त स्थान है । व्यत्क्कत असम्बद्ध घटनाओां
की अस्त-व्यर्स्त श्रांख
ृ ला नहीां है र्रन ् र्ह एक सजीर् तनरन्तरता है । दब
ु ारा जन्म लेने र्ाला मनुष्य र्ही मत
ृ
मनुष्य नहीां होता पर र्ह उससे सर्वथा भभन्न भी होता है । न तो र्े पूणत
व ः एक ही हैं एर्ां न सर्वथा भभन्न ।
तनरन्तरता भी है तथा उसके साथ ही तनत्य पररर्तवन भी है। हमारा प्रत्येक अनुभर् उस दस
ू रे अनुभर् िय अथर्ा
दशा की ओर ले जाता है , उससे पररणतत अथर्ा समाप्त हो जाता है , त्जसमें सम्पण
ू व अजीत सत्न्नदहत रहता है ।
जीर्न का लक्ष्य तनर्ावण प्राप्त करना है । जो कमव इसमें सहायक हैं र्े अच्छे समझे जाते हैं। बौद्धों का
आचरण-शास्ि आयव अष्टाांधगक मागव कहलाता है त्जसके आठ अांग ये हैं-सम्यक् दृत्ष्ट, सम्यक् सांकल्प, सम्यक्
र्चन, सम्यक् कमावन्त, सम्यक् आजीर्, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मवृ त्त एर्ां सम्यक् समाधध । यह मध्यम
प्रततपदा अथर्ा मध्यमागीय धमव कहलाता है । इसमें अत्यधधक तप तथा अत्यधधक भोग दोनों का ही पररत्याग
करके बीच का रास्ता-मध्य मागव-स्र्ीकृत हुआ है । इसका उद्दे श्य मनुष्य के सम्पण
ू व मानभसक जीर्न को
रूपान्तररत कर दे ना है , बौद्धधक भार्नात्मक एर्ां कियात्यक सभी िेिों को नर्ीनता प्रदान कर दे ना है ।
बुद्ध के समय में र्गव-व्यर्स्था में काफी अनर्स्था उत्पन्न हो गई थी। उन्होंने ब्राह्मणत्र् को जातत के
स्थान में कमव पर-आचरण पर-तनभवर बताकर इस सांस्था को काफी दब
ु ल
व बनाया; परन्तु र्े समाज सुधारक नहीां
थे। उनका मख्
ु य उद्दे श्य धमव था। यद्यवप तनयमतः सभी उसमें सत्म्मभलत हो सकते थे परन्तु यथाथवतः उच्च
र्णों तक ही उनका धमव सीभमत था। उन्होंने गह्
ृ य-सांस्कार-पद्धतत में कोई हस्तिेप नहीां ककया और र्े र्ैददक
पद्धतत के अनुसार बराबर चलते रहे । बुद्ध को आनन्दोपलत्ब्ध के रहस्य का उद्घाटन नहीां करना था प्रत्युत ्
लोगों को उस अनभ
ु र् में लगा दे ना था। तनर्ावण शब्द का अथव 'बझ
ु ना' अथर्ा 'शान्त' होना है । अतः उष्ण र्ासना
भारत की अन्तरात्मा 71
मानते थे अतएर् उन्होंने उस तनरपेि सत्ता के नैततक स्र्रूप पर ही वर्शेर् बल ददया है । उनके उपदे शों में ब्रह्म का
स्थान धमव ने ही ले भलया है । (इस प्रश्न पर दे खो 'माइांड', 1926, पुष्ठ 158-174)।
भारतीय दशवन
अन्य दशवनों की भाांतत भारतीय दशवन की आलोचना से वर्श्र् की रहस्यमयता एर्ां अनन्तता का तथा
उसका सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने के भलए मनुष्य के आग्रहपूणव मनोरम प्रयत्न का पररचय भमलता है । अगखणत
भारत की अन्तरात्मा 73
र्क्कतव्य तनश्शेर् हो जाने पर अब हम त्जज्ञासा कर सकते हैं कक क्कया इततहास का ज्ञान वर्कास का,
उन्नतत का, समथवन करता है? मानर् वर्चारधारा आगे की ओर, वर्कास की ओर बढ़ रही है अथर्ा पीछे की ओर
जा रही है । पररणाम चांचल अथर्ा अथवहीन नहीां है । भारतर्र्व वर्कास में वर्श्र्ास रखता है क्कयोंकक, जैसा हम पहले
कह चुके हैं, भभन्न-भभन्न युगों में नैसधगवक सम्बन्ध है । अवर्त्च्छन्नता का आभ्यन्तररक सूि कभी टूटा नहीां है । र्े
िाांततयाां भी जो अतीत भी काल प्रतीत होती हैं, उसमें पुनः प्राण-प्रततष्ठा ही करती है , उसे और भी गतत दे ती है ।
त्जन्हें हम अर्नतत के युग कहा करते हैं र्े र्स्तुतः इस दे श के तनकट अतीत की भाांतत पुराने जीर्न से नर्ीन की
ओर आने के पररर्तवन काल होते हैं। अर्नतत तथा उन्नतत की यग
ु ल धाराएां एक ही में भमल जाती हैं। कभी तो
उन्नतत की ओर ले जाने र्ाली शत्क्कतयाां बडे र्ेग से आगे को बढ़ती नजर आती हैं, कभी गतत अतनत्श्चत दशा में
अर्रुद्ध-सी प्रतीत होती है और कभी परार्तवन की शत्क्कतयाां वर्कास शत्क्कतयों को परात्जत करके पीछे ही ओर
जाती ददखाई दे ती हैं, पर सब भमलाकर दे खने से मालम
ू होगा कक गतत आगे की की ओर हुई हैं इससे इनकार करना
ठीक नहीां होगा कक इस पद्धतत में बहुत कुछ वर्तनष्ट हो गया, ककां तु अतीत के इततहास ने त्जस मागव को चुन
भलया उस पर त्रबगडने अथर्ा आांसू बहाने के समान व्यथवता कदाधचत ् ही कहीां भमले। कुछ हो दस
ू रा पररणाम यदद
होता तो बरु ा होता। अधधक महवर् की र्स्तु तो भवर्ष्य है । हम अपने पर्
ू जव ों से ज्यादा दरू तक दे ख सकते हैं;
क्कयोंकक हम उनके कांधों पर चढ़ सकते हैं। अतीत में जो श्रेष्ठ नीांर् डाल दी गई है , उससे हमें सन्तुष्ट नहीां हो जाना
84
जेनो फेनस का कथन है -'दे र्ताओां तथा त्जसे हम सार्वलौककक प्रकृतत कहते हैं, उसके सम्बन्ध में पूणव तनश्चय के साथ
कोई कुछ नहीां जान सका है और न आगे ही जान सकेगा। यदद दै र्ात ् कोई सत्य तक पहुांच भी गया तो उसे तथ्य का ज्ञान नहीां
होगा; क्कयोंकक सब कुछ माया से आच्छाददत है ।' (Gomperiz Greek : Thinkers, Vol. I. page 164)
भारत की अन्तरात्मा 74
चादहए र्रन ् हमें तो उससे अधधक भव्य प्रासाद को तनमावण करना चादहए जो अतीत प्रयास तथा नूतन दृत्ष्टकोण,
दोनों में सामांजस्य स्थावपत कर सके।
सब दर्शनों की एकिा
परम्परा-भत्क्कत तथा सत्य-प्रेम, ये दो बातें भारतीय दाशवतनकों के समस्त प्रयत्नों में ककसी-न-ककसी रूप
में अर्श्य पाई जाती है । प्रत्येक दाशवतनक यह समझता है कक उसके पूर्ज
व ों के भसद्धान्त ही र्ह भशलायें हैं त्जनसे
आध्यात्त्मक प्रासाद तनभमवत हुआ है , उनकी तनन्दा अपनी ही सांस्कृतत की तनन्दा है । एक उन्नततशील जातत,
त्जसकी अपनी सम्पन्न सांस्कृतत है , उस सांस्कृतत की अर्हे लना कभी नहीां कर सकती, भले ही उस सांस्कृतत के
कुछ अांग ऐसे हों जो श्लाघ्य न कह जा सकें। ये दाशवतनक बडे पररश्रम से प्राचीन सम्प्रदाय को समझाने का प्रयास
करते हैं, उसमें लािखणकता खोज तनकालते हैं, उसे पररर्ततवत एर्ां पररशोधधत भी करते हैं; क्कयोंकक र्ह
लोकभार्नाओां का केन्द्र बन चक
ु ा है । परर्ती भारतीय आचायव पर्
ू गव ामी दाशवतनकों के वर्श्र् के सम्बन्ध में
तनत्श्चत ककए हुए वर्वर्ध भसद्धान्तों का समथवन करते हैं और उन सबको सत्य का भभन्न-भभन्न मािा में
ददग्दशवक मानते हैं। यह नहीां माना जाता कक वर्भभन्न सम्प्रदाय यथाथवतः एक अज्ञात प्रदे श में मानर्-मत्स्तष्क
के असम्बद्ध अभभयान अथर्ा दाशवतनक वर्धचिताओां का सांग्रह है । र्े सब उस एक ही मत्स्तष्क से तनकले माने
जाते हैं त्जसने इस महान ् मांददर का तनमावण ककया है , यद्यवप उस मत्न्दर में अनेक दीर्ालें, अनेक दे हभलयाां,
अनेक मागव और खम्भे हैं।
न्याय तथा वर्ज्ञान में , दशवन तथा धमव में प्राकृततक सम्बन्ध है । वर्चारों की उन्नतत का प्रत्येक नूतन
युग न्याय के सध
ु ार से ही प्रारम्भ होता है । पद्धतत की समस्या का वर्शेर् मल्
ू य है क्कयोंकक इसमें मानर्-वर्चारों
की प्रकृतत का खास ज्ञान सत्न्नदहत है । न्याय-दशवन हमें यह बताता है कक कोई भी धचरस्थायी दशवन त्रबना तकव-
शास्ि के आधार के नहीां बन सकता। र्ैशेवर्क चेतार्नी दे ता है कक प्रत्येक सफल दशवन के भलए भौततक प्रकृतत की
रचना-प्रणाली का ज्ञान तनतान्त अपेक्षित है । हम हर्ाई ककला नहीां बना सकते। यद्यवप दशवन तथा भौततक
वर्ज्ञान दो भभन्न-भभन्न शास्ि हैं जो कभी एक नहीां हो सकते, कफर भी दाशवतनक योजना को प्रकृतत-वर्ज्ञान के
तनष्कर्ों से सामांजस्यता रखनी होगी। ककन्तु जो बातें भौततक जगत ् के सम्बन्ध में सत्य हैं, उन्हें यदद हम
अधधक व्यापक मानकर सम्पण
ू व वर्श्र् पर आरोवपत कर दें तो हम र्ैज्ञातनक दशवन का प्रचार करने के दोर्ी ठहराये
जायेंगे। साांख्या-शास्ि इस खतरे से बचने के भलए हमें सार्धान करता है । प्रकृतत की समस्त शत्क्कतयाां चेतना के
उत्पादन में असमथव हैं। र्ैज्ञातनक तथा मनोर्ैज्ञातनक दाशवतनक की भाांतत प्रकृतत अथर्ा चेतनता को हम एक-
दस
ू रे के रूप से पररर्ततवत नहीां कर सकते। सत्य का दशवन हमें वर्ज्ञान तथा मानर्-जीर्न में ही नहीां भमलता र्रन ्
धाभमवक अनभ
ु तू त में भी भमलता है और यह अनभ
ु तू त ही योग-दशवन का वर्र्य है । पर्
ू व मीमाांसा और र्ेदाांत आचरण
तथा धमव पर वर्शेर् जोर दे ते हैं। बाह्य प्रकृतत तथा मानर्-मत्स्तष्क का सम्बन्ध-ज्ञान ही र्ेदान्त-दशवन का
महवर्पूणव वर्र्य है । जो कहा गया था कक ऋवर् लोग एक-दस
ू रे का वर्रोध नहीां करते, र्ह दशवनों के सम्बन्ध में भी
सच है । न्याय-र्ैशेवर्क यथाथवर्ाद, साांख्य-योग द्र्ैतर्ाद तथा र्ेदान्त के अद्र्ैतर्ाद में सत्य एर्ां असत्य का
भारत की अन्तरात्मा 75
नहीां, कम सत्य एर्ां अधधक सत्य का अन्तर है ।'85 र्े तो िमशः मन्दाधधकारी, मध्यमाधधकारी एर्ां उत्तमाधधकारी
की आर्श्यकताओां की पूततव के उद्दे श्य से तनभमवत हुए हैं। एक ही मूल पार्ाण को काांट-छाांट कर वर्भभन्न
सम्प्रदायों का तनमावण ककया गया है , सबका मूलाधार एक, भेदरदहत, पण
ू व एर्ां अन्य अपेिा-रदहत है ।
वर्श्र्सम्बन्धी कोई भी ज्ञान तब तक पूणव नहीां हो सकता जब तक उसमें न्याय तथा भौततक वर्ज्ञान, मनोवर्ज्ञान
तथा नीततशास्ि दशवन तथा धमव के वर्भभन्न पहलू नहीां हैं। त्जतने दाशवतनक सम्प्रदायों का जन्म भारत में हुआ है ,
उनमें से प्रत्येक अपना स्र्तांि तवर्-मीमाांसा-शास्ि, प्रकृतत तथा आत्मा का सम्बन्ध-तनदे श एर्ां नीतत धमव-शास्ि
का वर्धान ककया है । प्राकृततक वर्ज्ञान की सांरिता में जगत ्-सम्बन्धी हमारा ज्ञान बहुत उन्नतत कर चुका है और
अब हम जीर्न के ककसी सीभमत दृत्ष्टकोण से ही सांतुष्ट नहीां हो सकते । भवर्ष्य में जो दाशवतनक प्रयास ककये
जायेंग;े उनको मनोवर्ज्ञान एर्ां प्रकृतत वर्ज्ञान के नर्ीनतम अनस
ु न्धानों से सम्बन्ध स्थावपत करने की जरूरत
होगी।
दशवन का काम जीर्न को व्यर्त्स्थत करना तथा उसे मागवप्रदभशवत करना है । दशवन जीर्न के नेतत्ृ र् को
ग्रहण कर सांसार के अनेक पररर्तवनों एर्ां पररत्स्थततयों में से होकर रास्ता ददखाता है । जब तक दशवन जीवर्त
रहता है , र्ह लोक-जीर्न से दरू नहीां जाता। दाशवतनकों के वर्चार उनकी व्यत्क्कतगत जीर्न-चयाव से ही वर्कभसत
होते हैं हमें उसके प्रतत केर्ल श्रद्धा ही नहीां रखना है प्रत्युत उस भार्ना की प्रात्प्त भी करनी है । र्भशष्ठ तथा
वर्श्र्ाभमि, याज्ञर्ल्क्कय तथा गागी, बद्
ु ध तथा महार्ीर, गौतम तथा कणाद, कवपल तथा पतज्जभल, र्ादरायण
और जैभमतन केर्ल इततहासकारों के वर्र्यमाि- ('जब हम दो वर्द्र्ानों के वर्चारों में समन्र्य करके सत्य का
दशवन कर लेते हैं-और एक-दस
ू रे का प्रत्याख्यान करते रहने पर भी ऐसा कभी नहीां होता कक भभन्न-भभन्न वर्चारों
के भीतर प्रच्छन्न एक ही सत्य का दशवन र्े न कर सके-तो हम मानर्-बुद्धध के गौरर्पूणव पद की रिा करते हैं।'
र्ाडव-'काण्ट का अध्ययन' में उद्धत
ृ , पष्ृ ठ 11, नोट 1) नहीां हैं, र्े व्यत्क्कतवर् के भभन्न-भभन्न प्रकार भी हैं। उनके
भलए दशवन, वर्चारों तथा अनभ
ु र् पर आधाररत सांसार-सम्बन्धी एक दृत्ष्टकोण है । भली भाांतत मनन ककए हुए
वर्चार ही जीर्नरूपी सर्ोच्च परीिा में व्यर्हृत एर्ां परीक्षित होकर धमव बन जाते हैं। दशवन का अभ्यास
धमावचरण की पूततव करना भी तो है ।
इस पुस्तक में त्जस साक्ष्य का सांग्रह ककया गया है , उससे तो इस बात की पत्ु ष्ट नहीां होती कक भारतीय
मत्स्तष्क वर्चार करने से घबराता है । भारतीय वर्चारों की सम्पूणव उन्नतत को केर्ल यह कहकर नहीां उडाया जा
85
माांधर् - 'सर्वदशवन सांग्रह', सधुसूदन सरस्र्ती 'प्रस्थानभेद', वर्ज्ञान भभिु - 'साांख्य प्रर्चन भाष्य' । काण्ट से तुलना
कीत्जये।
भारत की अन्तरात्मा 76
सकता कक भारतीय मत्स्तष्क इतना तकव-प्रेमी अथर्ा सशक्कत नहीां है कक र्ह भद्दी कल्पना तथा मूखत
व ापण
ू व दे र्-
कथाओां से ऊपर उठ सके; ककन्तु कफर भी वपछली तीन-चार शतात्ब्दयों के दाशवतनक इततहास में प्रचुर मािा में ऐसी
सामग्री पाई जाती है त्जससे यह आिेप बहुत कुछ भसद्ध होता-सा प्रतीत होता है । अब भारत ने एभशया'86 खांड में
उच्च ज्ञान के नेतत्ृ र् का महवर्पूणव कायव करना छोड ददया है । कुछ लोग यह सोचने लगे हैं कक जो ज्ञानसररता
शतात्ब्दयों से वर्चाररूपी जल से भरी पूणव र्ेग के साथ प्रर्ादहत हो रही थी, कदाधचत ् अर्रुद्ध होकर अशद्
ु ध गन्दे
जल में ही अब समाप्त होने को है । दाशवतनक अथर्ा कहना चादहए कक इस अर्नतत-काल के दशवनलेखक अपने को
सत्य का भक्कत त्तो कहते हैं पर सत्य से उनका तात्पयव केर्ल भमथ्या र्ाक्कछल अथर्ा ककसी वर्भशष्ट सम्प्रदाय के
अबाध्य भसद्धान्तों में बाल की खाल तनकालने माि से है । इन तकवव्यर्सातययों का वर्श्र्ास है कक उनके पाश्र्व में
त्स्थतत छोटा-सा झरना ही बालक
ु ा िेि में लप्ु त हो जाने र्ाली अथर्ा कुहासे के रूप में उड जाने र्ाली हस्र्-काय
कुल्या ही-भारतीय दशवन की वर्शाल सररता है ।
इस तनष्कर्व पर पहुांचने के अनेक कारण हैं। मुसलमानों का साम्राज्य स्थावपत हो जाने से जो राजनीततक
पररर्तवन हुए, उनके फलस्र्रूप लोग कुछ रूदढ़र्ादी तथा अनुदार हो गये उस युग में , जब व्यत्क्कतगत गौरर् तथा
भसद्धान्तों के प्रचार से प्राचीन समाज-व्यर्स्था तथा स्थायी वर्चार धारा में अराजकता फैल रही थी, ककसी
सर्वमान्य प्रमाखणक तनयांिण की वर्शेर् आर्श्यकता थी। मत्ु स्लम वर्जय तथा इस्लाम के प्रचार और तदप
ु राांत
ईसाई धमव के प्रचार ने दहन्द-ू समाज की नीांर् ही दहला दी और अत्स्थरता की इस गम्भीर चेतना से युक्कत युग में
स्र्भार्तः तनयामक सत्ता ही र्ह सुदृढ़ भशला बनी, त्जसपर समाज के रिण तथा आचरण की पवर्िता का
तनमावण ककया जा सकता था। इस साांस्कृततक सांघर्व में रूदढ़यों की शरण में जाकर दहन्दओ
ु ां ने अपने को सबल
बनाया तथा आिमण करनेर्ाले वर्चारों को उन्होंने अपने पास ही नहीां फटकने ददया। उसके समाज ने तकव से
वर्श्र्ास खोकर तथा बहस से ऊबकर अपने को पूणरू
व प से उस तनयामक सत्ता के अधीन कर ददया त्जसने शांका को
ही पाप घोवर्त कर ददया। तभी से र्ह अपने आदशव का सच्चा भक्कत नहीां रहा। उसमें सच्चे दाशवतनकों का अभार्
हो गया, बच रहे केर्ल कुछ पांडडत जो नर्ीनता का ततरस्कार करके पुराने राग अलापने में लग गये। कुछ
शतात्ब्दयों तक र्े इस कत्ल्पत चरम भसद्धान्त में अपने को धोखा दे ते रहे । रचनात्मक शत्क्कत का हास हो जाने से
लोग दशवन के इततहास को ही दशवन समझने लगे। भारतीय दशवन स्र्कतवव्य पराङमख
ु होकर प्रर्ांचना में ही पडा
86
प्रोफेसर लाांग काई चो ने चीन के प्रतत भारत के ऋण को इस प्रकार व्यक्कत ककया है - 'भारत ने हमें पूणव स्र्ाधीनता का पाठ
पढ़ाया है , उस आधारभूत मानभसक स्र्तांिता का पाठ पढ़ाया है त्जससे हमारा मत्स्तष्क परम्परा, आदत तथा र्तवमान युग
की रीततयों में दासता-पाश को तोडने में सफल हो सकता है -र्ह आध्यात्त्मक स्र्तांिता जो भौततक जीर्न के समस्त बन्धनों
को काट दे ती है ।.... भारत ने हमें तनरपेि प्रेम भी भसखाया है , प्राणी-माि के भलए र्ह पवर्ि स्नेह त्जसके कारण ईष्याव, द्र्ेर्,
घण
ृ ा, अधैयव तथा स्पधाव की नीच र्वृ त्तयों का वर्नाश होता है , जो मूख,व दष्ु ट तथा पावपयों के प्रतत भी दया एर्ां समर्ेदना जागत
ृ ्
करता है -र्ह तनरपेि प्रेम जो प्राखणमाि में अद्र्ैत दृत्ष्ट रखने की भशिा दे ता है ।' इसके बाद उन्होंने समझाया है कक चीन के
सादहत्य एर्ां कला को, सांगीत एर्ां भशल्प को, धचिकला तथा मतू तववर्द्या को, नाटक, कवर्ता आख्यातयका को, ज्योततर् तथा
आयर्
ु ेद शास्ि को भशिा-पद्धतत एर्ां समाज-व्यर्स्था को क्कया-क्कया भमला है । दे खो िैमाभसक वर्श्र् भारती, अक्कटूबर, 1924।
ब्रह्मा तथा लांका पर, जापान तथा कोररया पर जो भारत का प्रभार् पडा र्ह तो सर्ववर्ददत ही है ।
भारत की अन्तरात्मा 77
रहा। जनसाधारण के वर्चारों की अभभभार्कता तथा पथ-प्रदशवन से दरू हटकर उसने अपने ऊपर बहुत बडा
अत्याचार ककया। बहुतों का वर्श्र्ास हो गया कक उनकी जातत ने त्जस लक्ष्य की प्रात्प्त के भलए एक दीघवकालीन
लम्बी यािा की थी, र्ह उन्हें आखखर प्राप्त हो गया है । र्े थक-से गये और उनकी इच्छा होने लगी कक अब वर्श्राम
ककया जाय। र्े लोग भी, जो समझते थे कक र्े लक्ष्य तक अभी नहीां पहुांच पाये हैं और त्जन्हें भवर्ष्य में काफी
वर्स्तत
ृ िेि अब भी चलने को बाकी ददखाई पडता था, अज्ञात पथ से तथा उसकी कदठनाइयों से भयभीत थे।
दब
ु ल
व हृदय के व्यत्क्कतयों की चप्ु पी तथा अनन्तता के सम्बन्ध में शांका करना खतरे से खाली नहीां है । अनन्त की
गर्ेर्णा एक ऐसा चक्ककर है त्जससे बचने का प्रयास बडे- बडे शत्क्कत-सम्पन्न व्यत्क्कत भी यथासम्भर् ककया करते
हैं। मनुष्य की बडी-से- बडी शत्क्कत में भी उत्साहहीनता के िण आते हैं और इन तीन-चार शतात्ब्दयों में दाशवतनक
प्रेरणा पर भी उत्साहहीनता अथर्ा अकमवण्यता का आिमण हो गया था।
ििशर्ान स्स्त्थनि
आज सांसार के बडे-बडे धमों तथा वर्चार-धाराओां को भारतर्र्व में सत्म्मलन हो गया है । पाश्चात्य
वर्चारों के सम्पकव से वपछले युग के आत्मसांतोर् में कुछ िोभ उत्पन्न हो गया है । एक भभन्न सांस्कृतत को
स्र्ीकार कर लेने का एक फल यह हुआ है कक लोगों की यह धारणा बन गई है कक चरम प्रश्नों का कोई
आधधकाररक समाधान नहीां हो सकता। परम्परा-प्राप्त समाधानों में वर्श्र्ास नहीां रहा और ककसी हद तक वर्चारों
में कुछ अधधक स्र्तांिता एर्ां अधधक पररर्तवनशीलता को प्रश्रय भमल गया है । प्रथाएां कफर तरल हो गई हैं और
यद्यवप कुछ लोग प्राचीन नीांर् पर ही पन
ु तनवमावण करना चाहते हैं पर कुछ ऐसे हैं जो उस नीांर् को ही हटा दे ने के
पि में हैं। यह पररर्तवनकालीन युग काफी मनोरां जन तथा धचन्तापूणव है ।
तनकट अतीत में भारतर्र्व वर्श्र् की वर्चारधाराओां के मुख्य प्रर्ाह से दरू एक सुरक्षित कोने में पडा था,
पर आज तो शेर् सांसार के साथ सम्बन्धहीनता की र्ह दशा नहीां रही है । आज के तीन-चार सौ र्र्व बाद के
इततहासकार को भारत तथा योरोप के पारस्पररक आदान-प्रदान के सम्बन्ध में बहुत कुछ भलखना होगा, पर अभी
तो र्ह सब अप्रकट ही है । जहाां तक भारतर्र्व का सम्बन्ध है , हमें लोगों की प्रर्वृ त्त जाग उठी है तथा अकेली
सैद्धात्न्तक धचन्तन से लोगों को अरुधच उत्पन्न हो गई है ।
ककन्तु इस धचि का एक दस
ू रा पि भी है । किया की ही तरह वर्चारों के िेि में भी अत्यधधक बन्धन एर्ां
पूणव अनर्स्था, दोनों ही मनुष्य की आत्मा को पतन की ओर ले जाती है । जहाां तक सांस्कृतत तथा सभ्यता का
सम्बन्ध है , दोनों समान ही हैं। हो सकता है कक अराजकता में भौततक कष्ट, आधथवक त्स्थरता तथा सामात्जक
खतरा हो और बन्धन में भौततक कष्ट, आधथवक बरबादी तथा सामात्जक शात्न्त हो, पर सभ्यता को आधथवक
सम्पन्नता अथर्ा सामात्जक अर्स्था की रिा समझ लेना भारी भूल होगी। कई पीदढ़यों तक सार्वजतनक कलह
तथा व्यत्क्कतगत कष्ट झेलकर भारतर्र्व ने अांग्रेजों के आगमन को जो स्र्णव-यग
ु समझकर स्र्ागत ककया था,
उसका समझना कुछ कदठन नहीां है , पर भारत की र्तवमान भार्ना को सहानुभतू तपूर्क
व समझना भी उतना ही
भारत की अन्तरात्मा 78
भय हमें उसी अनुपात में होता है त्जस अनुपात में हममें आत्म-वर्श्र्ासहीनता अथर्ा दब
ु ल
व ता होती है । यह सच है
कक आज हमारे चेहरे पर शोक-रे खाएां हैं तथा बुढ़ापे के कारण हमारे बाल कुछ पक गये-से ददखाई दे ते हैं। हममें जो
वर्चारशील हैं र्े कुछ धचन्ताग्रस्त हैं, कुछ तो तनराशार्ादी हो गये हैं और इसभलए वर्चार िेि में र्े एकान्तर्ासी
सांन्यासी बन गये हैं। पाश्चात्य सांस्कृतत से जो असहयोग चल रहा है र्ह तो अस्र्ाभावर्क पररत्स्थततयों के कारण
उत्पन्न हो जाने र्ाली एक ऐसी त्स्थतत है जो अधधक समय तक दटकने र्ाली नहीां। उसके रहते भी पाश्चात्य-
भार्ना को समझने तथा उसे प्रशांसा की दृत्ष्ट से दे खने का प्रयास हो ही रहा है । यदद भारत ने पाश्चात्य सांस्कृतत
के बहुमूल्य अांश को ग्रहण कर भलया तो र्ह अतीत में की गई उसी प्रकार की अनेक कियाओां की पुनरार्वृ त्त-माि
होगी।
त्जन लोगों को पाश्चात्य प्रभार् ने स्पशव नहीां ककया है , र्े अधधकाांश में ऐसे लोग हैं त्जन्हें अपनी बौद्धधक
अथर्ा चाररत्रिक वर्भशष्टता का गर्व है , जो राजनीतत से त्रबलकुल उदासीन हैं तथा वर्श्र्ासपण
ू व आशा के नहीां,
भवर्तव्यतार्लम्बन तथा ममवर्वर्सजवन के भक्कत हैं। उनका ख्याल है कक उन्हें न कुछ सीखना है और न कुछ
भूलना है ; र्े तो अतीत के शाश्र्त धमव की ओर ही अपनी दृत्ष्ट रखकर कतवव्य का पालन करते जा रहे हैं। उन्हें
मालम
ू है कक दस
ू री शत्क्कतयाां भी काम कर रही हैं त्जन्हें रोकने अथर्ा तनयांत्रित करने की शत्क्कत उनमें नहीां है और
उनकी सम्मतत है कक हमें जीर्न की कदठनाइयों एर्ां भ्रात्न्त तनमोचन का मुकाबला शात्न्तपूर्क
व तथा आत्मगौरर्
के साथ करना चादहए। यह र्गव अपने उन्नतत-काल में अधधक गततशील था और बराबर प्रयास ककया करता था
कक बद्
ु धधर्ाद तथा धमव का सामांजस्य स्थावपत कर लेना चादहए। इसने सदा ही धमव की सांयुत्क्कतक व्याख्या करके
नात्स्तकों से उसकी रिा की है तथा धाभमवक वर्र्ेचना में इसने रूपक पद्धतत को ही अपना साधन बनाया है । इस
र्गव के भलए धमव का वर्र्य मनुष्य की सम्पूणव प्रकृतत है , उसमें बुद्धध के साथ ही मनुष्य की व्यार्हाररक तथा
रागात्मक र्वृ त्तयों का भी समार्ेश होता है । यदद प्राचीन वर्द्या के र्तवमान प्रतततनधधयों में अतीत की स्फूततव भी
होती तो अन्य शत्क्कतयों के साथ असहयोग करने की अपेिा उन्होंने स्र्तन्िता तथा मौभलकता के साथ प्राचीन
वर्द्या से उत्तराधधकारी में पाई शत्क्कत के द्र्ारा एक नर्ीन योजना की सत्ृ ष्ट की होती। पर उनकी तो वर्चारों
अथर्ा किया के सम्बन्ध में , लौककक अथर्ा आध्यात्त्मक सम्बन्ध में, प्रमाण में , तनयम में अत्यधधक श्रद्धा है
और इसभलए र्े प्रगततवर्रोध तथा मानभसक दासता के दोर्ी बन गए हैं। मस
ु लमानों के आने से पहले भी हम
प्रमाण चाहते जरूर थे; ककन्तु उस मयावदानुसरण में बौद्धधक स्र्तन्िता का अपहरण नहीां था और यद्यवप लोग
अपने मनोनुकूल शास्ि की आज्ञा के पालन के समथवन में यत्ु क्कतयाां दे ने को सदा तैयार रहते थे, र्ह शास्ि चाहे र्ेद
हो चाहे आगम और यद्यवप यत्ु क्कतपण
ू व काट-छाांट तथा दाशवतनक वर्र्ेचना के द्र्ारा र्े शास्ि को सदा ही तकवयक्क
ु त
भसद्ध कर ददया करते थे, पर आज की शास्ि भत्क्कत तो मानर्ात्मा के भलए कारागार बन गई है । धमवशास्ि की
ककसी बात पर भी शांका करने का यह अथव भलया जाता है कक हम अपने महान ् पूर्ज
व ों के अर्ाध्य हो रहे हैं। उन्हें
चप
ु चाप मान लेना उसमें अपनी भत्क्कत का पररचय दे ना समझा जाता है । त्जज्ञासा तथा शांका को प्राचीन ग्रन्थों
का उद्धरण दे कर दबा ददया जाता है , र्ैज्ञातनक सत्य को असम्मान की दृत्ष्ट से दे खा जाता है यदद र्ह येन केन
प्रकारे ण प्रचभलत वर्कास को ही अांग नहीां बनाया जा सकता। अकमवण्यता, वर्रोधहीनता तथा शासन स्र्ीकृतत ही
बौद्धधक सद्गण
ु समझी जाती है । अतः कोई आश्चयव की बात नहीां यदद आज का दाशवतनक सादहत्य अतीत के
भारत की अन्तरात्मा 80
श्रेष्ठ कायव की तुलना में बहुत हीन श्रेणी को है । यदद वर्चार को इतना अधधक श्रम न करना पडता तो तनश्चय ही
र्ह कहीां अधधक वर्शद होता है ।
रूदढ़र्ाददयों की एक यत्ु क्कत यह भी है कक सत्य पर युग का प्रभार् नहीां पडता। सत्य का स्थान कभी दस
ू रा
नहीां ग्रहण कर सकता, र्ैसे ही जैसे अस्तोन्मख
ु सूयव अथर्ा माता के र्ात्सल्य प्रेम की पतू तव ककसी दस
ू री र्स्तु से
नहीां की जा सकती। सत्य शाश्र्त हो सकता है पर उसकी अभभव्यत्क्कत त्जस रूप में होती है , उसमें पररर्तवन
सम्भर् है । हम आत्मा तो अतीत से ले सकते हैं, क्कयोंकक आरत्म्भक भसद्धान्त अब भी तनतान्त आर्श्यक है , पर
शरीर तथा प्राण र्तवमान से ही लेने होंगे। हम भूल जाते हैं कक त्जस रूप में धमव आज हमारे सामने है , र्ह स्र्यां
अनेक पररर्तवनों से युक्कत यग
ु ों का पररणाम है; और कोई र्जह नहीां कक उसके रूपों में आर्श्यकता पडने पर
भवर्ष्य में पररर्तवन न हो। यह सम्भर् है कक हम शब्द को मानकर चलते रहें और कफर उसकी समस्त भार्ना को
त्रबगाड दें । यदद दो हजार र्र्व पहले के दहन्द-ू नेता, त्जनमें पात्ण्डत्य आज के नेताओां से कम होने पर भी उनसे ज्ञान
अधधक था, आज भी हमारे बीच आ जाएां तो र्े उन पत्ण्डतों को कभी अपना अनुयायी न स्र्ीकार करें ग,े उनके जो
कथनों के अिराथव से रत्ती भर भी नहीां डडगे हैं'87 आज बहुत कांकड-पत्थर इकट्ठा हो गए हैं जो आत्म-सररता के
स्र्तन्ि जीर्न में बाधा बनकर उसे सख
ु ाये दे रहे हैं। यही कहना कक सत्यरदहत, प्राणहीन रूदढ़यों को भी उनकी
प्राचीनता तथा श्रद्धास्पदता के कारण हम स्पशव नहीां कर सकते, उस रोगी की कष्ट की अर्धध को बढ़ाना माि है
जो अतीत के कलुवर्त वर्र् से पीडडत हैं। अनद
ु ार व्यत्क्कतयों को पररर्तवनिम बनना होगा। चूांकक अभी तक लोग
87
'यदद उपतनर्द् बुद्ध अथर्ा महाकाव्य काल का प्राचीन भारतर्ासी आधुतनक भारत में • आ पडे तो र्ह यह अनुभर्
करे गा कक उसके जातत के लोग अतीत के बाह्य रूपों, तछलकों तथा चीथडों से तो धचपटे हैं पर उनके उच्च आदशव के 90
प्रततशत को भुला बैठे हैं। ...... र्ह हमारे बौद्धधक दाररद्रय को, हमारी गततहीनता को, पररर्तवनहीन लीक पीटने को, वर्ज्ञान
के गततरोध को, कला के र्न्ध्यत्र् को; अपेिाकृतां रचनात्मक स्फूततव की दब
ु ल
व ता को. दे खकर आश्चयवचककत हो जाएगा।'
इतने उदार नहीां हो पाये हैं, अतएर् हमें दशवन के िेि में तीक्ष्ण प्रततभा एर्ां अतात्वर्क अस्त-व्यस्तता का
वर्लिण भमश्रण ददखाई पडता है । वर्चारशील भारतर्ाभसयों को अपना पण
ू व शत्क्कत का उपयोग तो इन प्रश्नों को
हल करने में करना चादहए कक अपने प्राचीन आदशव को अस्थायी झाड-झांखाड से ककस प्रकार दरू रखें, ककस प्रकार
धमव तथा वर्ज्ञान में सामांजस्य स्थावपत करें , स्र्भार् एर्ां व्यत्क्कतत्र् के अधधकारों को ककस प्रकार समझायें और
प्राचीन आदशव के आधार पर वर्भभन्न प्रभार्ों को ककस प्रकार व्यर्त्स्थत करें । ककन्तु हमारे दभ
ु ावग्य से कुछ
पररर्दें इन समस्याओां के सल
ु झाने में नहीां प्रत्यत
ु ् परु ाण-र्स्तु-पत्ण्डतों के समाज के उपयक्क
ु त गर्ेर्णा में सांलग्न
हैं। र्ह तो वर्शेर्ज्ञों की युद्ध-भूभम बन गया है । दे श की धाभमवक भशिा का आयोजन उदार दृत्ष्ट से नहीां हो रहा है।
लोगों की समझ में नहीां आता कक हमारी आध्यात्त्मक बपौती पर भाग्य के कततपय लाडलों का एकाधधकार कैसे
हो सकता ? वर्चार तो शत्क्कतयाां हैं और यदद हमें र्तवमान र्द्
ृ धार्स्था-जतनत मत्ृ यु से उनकी रिा करना इष्ट है तो
उनका प्रसार सभी ओर करना होगा। यह नहीां हो सकता कक उपतनर्द्, गीता एर्ां बुद्ध का प्रचलन, जो मानर्-
मत्स्तष्क में इतने उच्चादशों का सांचार कर दे ते थे, अब अपनी शत्क्कत को खो चुके हों। यदद समय तनकल जाने से
पहले हम अपने जातीय जीर्न को कफर से सांगदठत कर सके तो भारतीय दशवन का भवर्ष्य उज्ज्र्ल है; कौन कह
सकता है कक इन शत्क्कतशाली र्ि
ृ ों में अब भी कैसे-कैसे फूल खखल सकते हैं, कैसे-कैसे फल पक सकते हैं!
यद्यवप र्े लोग, जो पाश्चात्य सांस्कृतत से त्रबलकुल ही अछूते हैं, वर्चार एर्ां किया के प्रत्येक िेि में
रूदढ़र्ादी बने हुए हैं; ककन्तु पाश्चात्य वर्चारधारा में दीक्षित कुछ ऐसे भी लोग हैं जो प्राकृततक बुद्धधर्ाद के
नैराश्यपूणव दशवन को मानकर हमें अतीत के भार से मुक्कत होने का सत्परामशव दे ते हैं। ये लोग परम्परा, असदहष्णु
एर्ां अतीत के तथाकधथत ज्ञान में शांकालु हैं। 'प्रगततर्ाददयों' की यह मनोर्वृ त्त आसानी से समझ में आ जाती है ।
भारत की आध्यात्त्मक बपौती ने आिमणकाररयों तथा लट
ू रों से उसकी रिा नहीां की। ऐसा मालूम होता है कक
उसने भारत को धोखा ददया और उसे र्तवमान पराधीनता के चांगुल में फांसा ददया। ये दे शभक्कत राष्रों की भौततक
सफलता का अनक
ु रण करना चाहते हैं त्जससे पाश्चात्य दे शों से प्राप्त नर्ीनता को स्थान ददया जा सके। अभी
कल तक भारतीय वर्श्र्वर्द्यालयों में भारतीय दशवन पाठ्य-वर्र्यों में इसका बहुत ही तनम्न स्थान है । हमारी
भशिा का सम्पण
ू व र्ातार्रण ही भारतीय सांस्कृतत की हीनता के सांकेतों से पण
ू व है । मैकाले ने त्जस नीतत का
उद्घाटन ककया था, उसका साांस्कृततक महवर् कुछ भी क्कयों न हो, र्ह एकाांगी अर्श्य है । जहाां सदा सजग रहकर
र्ह हमें पाश्चात्य सांस्कृतत की शत्क्कत एर्ां महत्ता को एक िण के भलए भी भूलने नहीां दे ती, र्हाां दस
ू री ओर उसने
हममें अपनी सांस्कृतत में अनरु ाग एर्ां आर्श्यकतानुसार उसमें सांस्कार कर लेने की प्रर्वृ त्त नहीां उत्पन्न की।
ककसी-ककसी पि में तो मैकाले की अभभलार्ा त्रबल्कुल पण
ू व हो गई है और ऐसे भशक्षित भारतर्ासी हैं जो मैकाले के
ही सुप्रभसद्ध शब्दों में 'अांग्रज
े ी से भी बढ़कर अांग्रज
े ' हैं। स्र्भार्तः इनमें से कुछ लोग भारतीय दाशवतनक इततहास
के महवर्-तनधावरण में प्रततकूल वर्दे शी आलोचकों का ही अनुकरण करते हैं। र्े भारत के, दाशवतनक वर्कास को
मख
ू त
व ा एर्ां अन्धवर्श्र्ास से पण
ू व वर्चारों का नीरस वर्रोध-िेि समझते हैं। उनमें से एक सज्जन ने अभी हाल ही
में घोवर्त ककया था कक यदद भारत को उन्नतत करना है तो उसे चादहए कक र्ह इांग्लैंड को अपनी आध्यात्त्मक
जननी तथा ग्रीस को आध्यात्त्मक मातामही बनार्े। चूांकक धमव के प्रतत आपकी श्रद्धा नहीां है , अतः उन्होंने दहन्द-ू
धमव को ईसाई धमव में पररर्ततवत कर दे ने का प्रस्तार् अर्श्य नहीां ककया है । आधुतनक युग के भ्रात्न्त-तनमोधचत एर्ां
भारत की अन्तरात्मा 82
पराजय के भशकार इन लोगों का कहना है कक भारतीय दशवन में अनुराग रखना यदद भमथ्या आत्म-गौरर् की
प्रर्ांचना नहीां है तो कम-से-कम राष्रीय भार्नाजतनत दोर् तो अर्श्य है ।
अनुदार र्गव के लोगों का तनत्श्चत मत है कक हमारी प्राचीन सांस्कृतत महान ् है एर्ां आधतु नक सांस्कृतत
ईश्र्र-वर्रोधी है ; उग्र पररर्तवनर्ाददयों का उतना ही तनत्श्चत भसद्धान्त है कक प्राचीन परम्परा त्रबलकुल तनरथवक
है तथा प्राकृततक बुद्धधर्ाद ही केर्ल एक मागव है । इन मतों के समथवन में बहुत कुछ कहा जा सकता है ; ककन्तु
यदद हम भारतीय दशवन के इततहास को ठीक-ठीक समझने का उद्योग करें तो हमें मालम
ू होगा कक ये दोनों ही
सामान्य से िुदटपूणव हैं। जो भारतीय सांस्कृतत को तनरथवक बताकर उसकी तनन्दा करते हैं, र्े उसे जानते ही नहीां
और जो उसे पण
ू व बताकर उसकी प्रशांसा करते हैं, उन्हें ककसी अन्य सांस्कृतत का ज्ञान नहीां। िात्न्तर्ाददयों तथा
रूदढ़र्ाददयों को, जो नत
ू न आशा एर्ां प्राचीन ज्ञान के प्रतीक हैं, पारस्पररक सम्पकव में आना होगा एर्ां एक-दस
ू रे को
समझना होगा। ऐसे सांसार में , जहाां र्ायुयान तथा जलपोत, रे ल तथा तार लोगों को एकता के सूि में बाांध रहे हैं,
हम अन्य असम्बन्ध से त्रबलकुल रदहत होकर नहीां रह सकते। हमारे दाशवतनक वर्चार सांसार की प्रगतत को
प्रभावर्त अर्श्य ही करें गे। पोखरों की ही भाांतत गततहीन दाशवतनक धाराओां में भी अर्ाांतछत घास-फूस उग आती है
पर बहनेर्ाली सररतायें सदा ही अभभनर् तनझवरों से उत्साहरूपी तनमवल जल प्राप्त ककया करती हैं। अन्य लोगों की
सांस्कृतत को आत्मसात ् कर लेने में कोई बुराई नहीां है; हाां, त्जस र्स्तु को हम ग्रहण करें उसे शुद्ध एर्ां पररष्कृत
करके अपनी श्रेष्ठ र्स्तु में त्रबलकुल भमला दें । बाहर से आकर राष्रीय कडाही में धगरकर एकाएक होने के ठीक ढां ग
का तनदे श महात्मा गाांधी, रर्ीन्द्र नाथ ठाकुर, अरवर्न्द घोर् तथा श्री भगर्ानदासजी के लेखों में पाया जाता है ।
इनमें अपने उज्ज्र्ल भवर्ष्य की िीण प्रकाश-रे खा ददखाई दे ती है , शुष्क पाांडडत्य पर वर्जय एर्ां महान ् सांस्कृतत
के दशवन कर लेने के धचन्ह ददखाई दे ते हैं। यद्यवप अतीत भारत के लोक-कल्याण की भार्ना से र्े प्रभावर्त हैं पर
पाश्चात्य वर्चारों को भी उन्होंने भली भाांतत समझा एर्ां अपनाया है । र्े प्राचीन मूलस्रोत को कफर तनकालने के
भारत की अन्तरात्मा 83
भलए उत्सुक हैं त्जससे वर्शुद्ध, तनमवल प्रणाभलयों के द्र्ारा प्यासी भूभम का भसांचन ककया जा सके; परन्तु त्जस
भवर्ष्य को दे खने को हम वर्कल हैं, अभी तो उसकी सत्ता का आभास भी कहीां नहीां भमलता। बहुत सम्भर् है कक
उस राजनीततक उत्तेजना के मन्द पडने पर, त्जसने भारत के अनेक श्रेष्ठ वर्द्र्ानों को अपने में ही तल्लीन कर
रखा है , तथा नर्ीन वर्श्र्वर्द्यालयों में भारतीय वर्चारधाराओां के अध्ययन पर अधधकाधधक जोर दे ने के
फलस्र्रूप (पुराने वर्श्र्वर्द्यालय इस कायव को बडी अन्यमनस्कता से कर रहे हैं) नर् प्रभात का उदय हो।
रूदढ़र्ादी शत्क्कतयाां, त्जन्हें भवर्ष्य से बढ़कर अतीत की ममता है , आनेर्ाले यग
ु में वर्शेर् प्रभार्शाली नहीां रह
सकेंगी।
आज भारतीय दशवन के सामने एक महवर्पूणव प्रश्न आ गया है । उसे यह तनश्चय करना है कक यह दशवन
एक सीभमत वर्स्तार का र्तवमान जीर्न-पररत्स्थततयों से एकान्त असम्बद्ध छोटा-सा सम्प्रदायमाि बना ददया
जाय अथर्ा उसे र्ास्तवर्क जीर्न से सम्पन्न कर ददया जाय त्जससे र्ह अपने सच्चे स्र्रूप को प्राप्त कर सके,
भारत के प्राचीन आदशों में सर्
ु धधवत आधुतनक वर्ज्ञान का समार्ेश करके उसे मानर्-प्रगतत का एक महवर्पूणव
साधन बना दें ? लिणों से तो यही प्रतीत होता है कक भवर्ष्य में दस
ू रा मागव ही स्र्ीकृत होगा। प्राचीन दाशवतनक
सम्प्रदायों के प्रतत हमारी भत्क्कत एर्ां दाशवतनक लक्ष्य का अनरु ोध है कक हमारा दृत्ष्टकोण बहुत उदार होना चादहए।
र्तवमान काल में भारतीय दशवक की साथवकता इसीमें है कक र्ह जीर्न को उन्नत एर्ां महान ् बना सके। भारतीय
दाशवतनक वर्कास की वर्गत धारा हमारे हृदय में आशा का सांचार करती है । याज्ञर्ल्क्कय तथा गागी, बद्
ु ध तथा
महार्ीर, गौतम तथा कवपल, शांकर तथा रामानुज, माधर् तथा र्ल्लभ एर्ां अनेक अन्य दाशवतनक भारत के
अत्स्तवर् को बनाये रखने के भलए अकाट्य प्रमाण हैं, उसके सम्मान्य जीवर्त राष्र होने के स्पष्ट प्रमाण है , इस
बात का प्रमाण है कक अब भी उठकर र्ह इस महती सम्भार्ना को यथाथव बना सकता है ।